भारतीय और पाश्चात्य चिंतन धारा
डाॅ मुनीश प्रकाश अग्रवाल
जीवन के लक्ष्य के अनुसार ही साधन सुनिश्चित किए जाते हैं। जीवन शैली भी उसी के अनुसार प्रभावित होती है। विश्व में विशेष रुप से दो प्रकार की चिंतन दृष्टि दिखाई देती है एक पाश्चात्य चिंतन और दूसरा भारतीय चिंतन दृष्टि । पाश्चात्य चिंतन का लक्ष्य असीमित भौतिक संसाधनों के संग्रह से सुख प्राप्ति का प्रयास है। इसके विपरीत भारतीय जीवन दर्शन का लक्ष्य ” सर्वं खल्विदं ब्रह्म” अर्थात जड़ और चेतन जीव और जगत में उस परम सत्य ब्रह्म की अनुभूति करते हुए “सर्वे भवंतु सुखिनः” अर्थात सबके सुख की कामना से ही सबके सुख के लिए सतत प्रयास है ,लक्ष्य के अनुरूप ही हमारी आध्यात्मिक अवधारणा ,शिक्षा पद्धति, सामाजिक , आर्थिक व राजनीतिक व्यवस्था की योजना रही है ।
भारतीय और पाश्चात्य चिंतन धारा
भारतीय चिंतन दृष्टि समग्रता से विचार करती है। वह जड़ चेतन के अंतः संबंधों के आधार पर सब का समान रूप से संरक्षण और संवर्धन करते हुए परम आनंद की प्राप्ति में विश्वास करती है। इसके लिए धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के रूप में पुरुषार्थ चतुष्टय की अवधारणा की गई है। धर्मानुसार अर्थ प्राप्ति और अर्थ से समस्त कामनाओं की पूर्ति करते हुए उसे परम सत्य की अनुभूति से अखंड आनंद का अनुभव करना जीवन का लक्ष्य रहा है। व्यष्टि ,समष्टि, प्रकृति और परमात्मा का सहसंबंध ही परम सुख और शांति का सुदृढ़ आधार है। जहां किसी भी प्रकार के संघर्ष की संभावना नहीं रहती ।हमारी अज्ञानता और सृष्टि को समग्र रूप में ना देखने के कारण संघर्ष की स्थिति बनती है।
पाश्चात्य विद्वानों की धारणा थी की सृष्टि में मनुष्य के अतिरिक्त सभी वस्तुएं प्राणहीन हैं और ये सभी मनुष्य के उपभोग के लिए बनी है। इसलिए विज्ञान का उपयोग करके संपूर्ण प्रकृति का हमें स्वेच्छा से उपभोग करने का अधिकार प्राप्त है। प्रकृति का भंडार अक्षुण्य है । इसी मान्यता को ध्यान में रखते हुए भौतिक प्रगति की प्रतिस्पर्धा में प्रकृति के संसाधनों का असीमित दोहन किया जाने लगा और व्यक्तिगत स्वार्थ तथा अति महत्वाकांक्षा से प्रेरित प्रकृति के संरक्षण एवं संवर्धन के विचार को ओझल कर दिया फल स्वरुप भूकंप, भूस्खलन, सुनामी ,बाढ़ आदि प्राकृतिक आपदा से भारी विनाश होते देख रहे हैं। जानलेवा कोरोना जैसी महामारी ,कैंसर जैसे असाध्य रोग ,जल स्रोतों की कमी तथा अन्य आवश्यक खनिज पदार्थों के अभाव से विश्व का जनमानस त्रस्त है। प्रकृति के असीमित शोषण किए जाने के कारण समस्त जीवधारियों का जीवित रहने रहना असंभव हो जाएगा। इसीलिए प्रकृति की रक्षा और उसका पोषण किए जाने में ही हमारे जीवन की सुरक्षा संभव है। भारतीय अवधारणा भी यही है कि सबका समान रूप से संरक्षण और सबका संतुलित विकास होना चाहिए।
सृष्टि की प्रत्येक वस्तु एक दूसरे से जुड़ी हुई है ,इसीलिए एक वस्तु को जब क्षति पहुंचाते हैं तो उसका प्रभाव दूसरी ओर अवश्य होगा। अतः प्रकृति के समस्त पदार्थों का अन्योन्याश्रित संबंध है। एक को दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता।
पाश्चात्य चिंतन की एकांगी धारणा
पाश्चात्य विचारको ने मनुष्य के शरीर को भी अलग-अलग टुकड़ों में देखा। शरीर बीमार हुआ तो फिजिशियन के पास और मानसिक रोग हुआ तो मनो चिकित्सक के पास जाओ। आज इसमें परिवर्तन हुआ है ,और अब यह धारणा बनी है कि रोग शरीर और मन दोनों को होते हैं ।शरीर का असर मन पर और मन का असर शरीर पर होता है। इसीलिए पूर्ण रूप से स्वस्थ रहने के लिए शरीर और मन दोनों का समान रूप से विचार करना चाहिए ।कहा भी गया है कि “शरीर माध्यम खलु धर्म साधनम्” अर्थात शरीर से ही धर्म की साधना संभव है। अब यह धारणा बलवती होती जा रही है की शरीर और मन को स्वस्थ रखने के लिए योगाभ्यास करना चाहिए। योग प्राचीन भारतीय परंपरा का मुख्य अंग रहा है जिसे आज विश्व के अधिकांश देशों ने स्वीकार किया है और उससे स्वास्थ्य लाभ तथा अपूर्व शांति का अनुभव कर रहे हैं। योगाभ्यास से हृदय और रक्तचाप संतुलित रह सकता है। यदि मन शांत होता है तो बहुत सी समस्याओं से हम मुक्त हो सकते हैं। अशांत मन ही तनाव ,अवसाद ,क्लेश, संघर्ष आदि का कारण बनता है ।अब वैश्विक अनुसंधानों के निष्कर्ष से समग्रता की सोच बनती जा रही है। प्रकृति प्रदत्त हर वस्तु को हमें उसके समग्र रूप में देखना चाहिए क्योंकि सभी पदार्थों का परस्पर अभेद संबंध है ।इसीलिए ज्ञान की पृथकतावादिता सोच के आधार पर जो भी आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक रचनाएं बनी, वे अब कालातीत होती चली जा रही है ।
एकांगी सोच के फल स्वरुप जैसे साम्यवादी विचारधारा का लोप हो गया है वैसे ही धीरे-धीरे पूंजीवादी साम्राज्यवाद भी समाप्त हो जाएगा क्योंकि वह एक सीमित सोच के आधार पर खड़े हैं। इसमें सबके हित के लिए सर्वांगीणता के साथ विचार नहीं किया गया है। व्यक्ति ,समाज, प्रकृति और परमात्मा के बीच जो कुछ अंतः संबंध है, इन अंतः संबंधों को परिभाषित करने वाला वास्तव में ’धर्म’ है। धर्म ग्रंथो में कहा गया है–
“आहार निद्रा भय मैथुनं च
सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
धर्मो हि तेषामधिको विशेष:
धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥
आहार, निद्रा, भय और मैथुन – ये मनुष्य और पशु में समान हैं। मनुष्य में विशेष केवल धर्म है, अर्थात् बिना धर्म के व्यक्ति पशुतुल्य है।
अधिकार नहीं कर्तव्य भावना
भारतीय चिंतन में अधिकार की चर्चा नहीं की गई है, धर्म अर्थात दायित्व बोध को मान्यता दी गई है। इसी संदर्भ में अतीत में सामाजिक संरचना की गई थी ‘चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः’श्री कृष्ण ने कहा था की अपनी अभिरुचि और कर्म के आधार पर वर्ण की व्यवस्था की गई थी। जिसकी अध्ययन, अध्यापन, आध्यात्मिक चिंतन में रुचि हो और धर्म अनुसार समाज का मार्गदर्शन कर सके उसे ब्राह्मण कहा गया। शौर्य और पराक्रम से युक्त जो समाज व राष्ट्र की सुरक्षा में तत्पर हो वह क्षत्रिय कहलाया ।जिसकी कृषि और व्यापार में अभिरुचि रही उसे वैश्य कहा गया ।जो श्रम करके समाज की सेवा में सहभागी बने उसे शुद्र कहा गया। ये चारों वर्ण समाज के अभिन्न अंग बने रहकर राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति के आधार थे । कालांतर में विदेशी आक्रांताओं के कारण यह व्यवस्था छिन्न भिन्न हुई और उनके षड्यंत्रों के परिणाम स्वरूप तथा सत्ता लोभ के कारण समाज को भिन्न-भिन्न जाति और वर्गों में बांट दिया गया ।
यद्यपि मानव एक बड़ी इकाई का अभिन्न अंग है। व्यक्ति परिवार का, परिवार समाज का ,समाज राष्ट्र का और राष्ट्र मानव जाति का अंग है। मानव जाति प्रकृति का और प्रकृति परमात्मा का अंग है। व्यक्ति से परमात्मा तक हम सब अंगांगी भाव से संयुक्त है ।हाथ ,पेट ,आंख, पैर शरीर के अंग है, ये अधिकार की मांग नहीं करते। ये सदैव शरीर के प्रति कर्तव्य भावना से क्रियाशील रहते हैं। शरीर सभी अंगों की आवश्यकता अनुसार बिना भेदभाव के समान रूप से चिंता करता है, और उनका पोषण करता है ।
इसी प्रकार परिवार में सभी लोग परिवार के सुख वैभव की चिंता करते हैं और परिवार अपने प्रत्येक सदस्य की चिंता करता है। परिवार समाज की और समाज परिवार की तथा समाज मानव जाति के विकास का प्रयत्न करें। मानव जाति प्रत्येक समाज की विशिष्टताओं की चिंता करें और संपूर्ण मानव समाज प्रकृति का संरक्षण एवं संवर्धन करें परिणाम स्वरुप प्रकृति समाज को आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराए और यह सब तभी हो सकता है जब जीव और जगत में एक ही परम सत्य की अनुभूति करके ’वसुधैव कुटुंबकम’ की भावना से सबके उत्थान के लिए प्रयत्न करें।
पश्चिम का अंधा अनुकरण घातक
पश्चिम की व्यवस्थाएं हमारे लिए उपयोगी नहीं है ।वहां की जनसंख्या कम और जमीन अधिक है। वहां बड़ी-बड़ी मशीनों की आवश्यकता है जिससे एक आदमी अनेक गुना उत्पादन कर सके ।हमारे यहां जमीन कम और जनसंख्या अधिक है। पश्चिम की तकनीक का अनुकरण करके हिंदुस्तान में करोड़ों श्रमिक और युवा बेकार हो रहे हैं ।उनके पास श्रम है ,प्रतिभा है और काम करने की इच्छा है किंतु उनको काम नहीं ।व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि सब की ऊर्जा और प्रतिभा का सही उपयोग हो क्योंकि बेकारी विकास में बाधक एवं अशांति व संघर्ष का कारण बनती है।
पश्चिम की बहुराष्ट्रीय कंपनियां हमारे देश के उद्योग और व्यापार पर अपना वर्चस्व स्थापित करने का प्रयत्न कर रही है। इसके कारण छोटे-छोटे व्यापारियों के सामने संकट खड़ा हो गया है ।बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बहुआयामी संसाधनों के कारण भारतीय व्यापारी उस प्रतिस्पर्धा में पीछे छुटते जा रहे हैं। बड़े-बड़े चमचमाते हुऐ वातानुकुलित मॉल तथा शोरूम नागरिकों को आकर्षित कर रहे हैं। भारी भरकम कर्मचारियों का खर्च भी वस्तुओं के मूल्य में जोड़कर मनमाने ढंग से ग्राहक का शोषण किया जा रहा है। जिससे अमीर अधिक अमीर और गरीब अधिक गरीब होते जा रहे हैं। यह व्यवस्था भारतीय परिवेश के अनुकूल नहीं है।
सामाजिक एवं पारिवारिक विघटन
पाश्चात्य चिंतन का आधार अर्थ प्राप्ति और कामनाओं की पूर्ति है। अर्थ केंद्रित व्यवस्था के कारण हर क्षेत्र में संघर्ष की स्थिति बनी हुई है। औद्योगिक क्रांति से आर्थिक प्रगति के नाम पर प्रकृति का असीमित दोहन कर रहे हैं जिससे प्राकृतिक असंतुलन बनता जा रहा है और जो मानव के विनाश का कारण बन सकता है। औद्योगिक क्रांति के नाम पर गरीबों का शोषण और अमीरों का पोषण हो रहा है। आर्थिक असमानता की खाई गहरी होती जा रही है ।
राजनीतिक सत्ता के लोभ से समाज विभिन्न जाति और वर्गों में बटता जा रहा है। अपने वर्चस्व की कामना के कारण आपसी संबंधों में खटास पैदा हो गई है। आपसी सद्भाव और सहिष्णुता समाप्त होती जा रही है। इस कारण परिवारों में विघटन हो रहा है ।रिश्ते समाप्त होते जा रहे हैं। अति महत्वाकांक्षा के कारण बच्चों पर पढ़ाई का दबाव बढ़ता जा रहा है। महत्वाकांक्षा पूरी होने में असमर्थ जानकर अनेकों छात्र आत्महत्या कर रहे हैं ।मोबाइल व टीवी पर अधिक समय देने से बच्चों में धैर्य और एकाग्रता कम होती जा रही है ।फल स्वरुप बच्चे चिड़चिड़े और असहिष्णु और उग्र हो रहे हैं ।छोटी-छोटी बातों से खिन्न होकर अपने साथी व परिजनों की हत्या तक कर देते हैं।तनाव और अवसाद के कारण बालक शारीरिक और मानसिक रूप से बीमार हो रहे है, जो किसी भी किसी के भी हित में नहीं है ।
अतीत से वर्तमान की ओर
यदि हम अतीत का अवलोकन करें तो भारत का अतीत राजनीतिक रूप से सुदृढ और व्यवस्थित था। सामाजिक दृष्टि से पारस्परिक प्रेम, सद्भाव ,सहिष्णु भाव से युक्त था। आर्थिक दृष्टि से अत्यंत संपन्न और वैभवशाली था ।यूनानी राजदूत मेगास्थनीज तथा चीनी यात्री फाह्यान ने भारत के सुखी और समृद्ध जीवन का वर्णन किया है। गुप्त काल को इतिहास का ’स्वर्ण युग’ कहा जाता है।
शिक्षा के क्षेत्र में तक्षशिला,नालंदा और विक्रमशिला आदि विश्व विख्यात विश्वविद्यालय थे ,जहां विश्व के अनेक देशों से हजारों विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे ।इन विश्वविद्यालय में भूगोल, खगोल, अर्थशास्त्र, समुद्री विज्ञान, धातु विज्ञान, रसायन विज्ञान ,भौतिक, आयुर्वेद ,धनुर्वेद ,शिल्प कला, मूर्ति कला ,संगीत ,नृत्य आदि 18 विषयों का अध्ययन कराया जाता था। इन विश्वविद्यालय से शिक्षा ग्रहण कर विद्यार्थी जीवन और आजीविका में पूर्ण पारंगत होकर निकलता था। उसे किसी के आश्रय की आवश्यकता नहीं होती थी। कालांतर में विदेशी आक्रांताओं ने ज्ञान, विज्ञान और साहित्य के केंद्र जला दिए । बहुत सा साहित्य लूट कर ले गए ।यहां की अकूत संपत्ति,सोना आदि लूट ले गए। जिसके कारण भारत पिछड़ गया।हमें अतीत से प्रेरणा और अनुभव लेकर नवीनतम तकनीक से स्वदेशी परंपरा और परिस्थिति के अनुसार आत्मनिर्भर, समर्थ और समृद्ध भारत के निर्माण का प्रयत्न करना चाहिए।
वर्तमान की योजना और भविष्य का संकल्प
यदि हम तनाव, अशांति और संघर्ष से मुक्त होकर सुखद जीवन के अभिलाषी हैं तो भारतीय जीवन शैली को अपनाना होगा । “तेन त्यक्तेन भुंजीथा “अर्थात त्याग पूर्वक भोग करने की इच्छा जागृत करनी होगी। अपनी आवश्यकताओं के अनुसार अर्थ का अर्जन करते हुए अन्य समाज की चिंता करें ।शरीर स्वस्थ होगा तो मन भी स्वस्थ और शांत होगा। शरीर और मन को स्वस्थ रखने के लिए हमारी दिनचर्या भी स्वस्थ होनी चाहिए। गीता में इसके लिए निर्देश दिया है –”युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा॥ अर्थात हमारा आहार विहार उत्तम हो जो भी कम करें वह दोष मुक्त हो उपयुक्त समय पर सोना और जागना हो तो किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं होगा।
जब शरीर और मन स्वस्थ और सुचिता व समता से युक्त होगा तो परिवार भी सुखी और स्वस्थ होगा। सुखी परिवार संपूर्ण समाज के सुख की कामना से प्रयत्न करेगा तो पूरा समाज सुखी और संपन्न होगा ।सुखी समाज से ही राष्ट्र शक्ति तथा वैभव संपन्न बनेगा और मानव जाति के कल्याण के लिए कार्य करेगा। जब व्यक्ति संपूर्ण मानव जाति एवं प्रकृति के कल्याण की कामना से उद्यम करेगा तो सर्वत्र सुख शांति और आनंद का साम्राज्य होगा ।कहीं भी अशांति और संघर्ष दिखाई नहीं देगा ।यही हमारे जीवन का लक्ष्य होना चाहिए और इसी प्रकार के विश्व की हम कामना करते हैं।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।।
सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय जीवन के साक्षी बनें और किसी को भी किसी भी प्रकार का दुःख ना हो।