जानकारी काल
वर्ष-24 अंक-05 सितम्बर – 2023, पृष्ठ 50 मूल्य 2-50
श्री कृष्ण के लिए समाज एवं राष्ट्र व्यवस्था कर्त्तव्य थी, इसलिये उन्होंने कर्त्तव्य से कभी पलायन नहीं किया तो वही धर्म उनकी आत्मनिष्ठा बना, इसलिये उसे उन्होंने कभी नकारा नहीं। योगेशवेर श्रीकृष्ण का चरित्र एक लोकनायक का चरित्र है। वह द्वारिका के शासक भी है किंतु कभी उन्हे राजा के रूप में संबोधित नहीं किया जाता। वह तो यशोदा के लाल है,गोपियों के प्रिय है,बाल गोपाल है,वही अर्जुन के सखा ओर पथ प्रदर्शक भी है।
संरक्षक
श्रीमान कुलवीर शर्मा कमहामंत्री समर्थ शिक्षा समिति डॉ वी एस नेगी प्रोफेसर भगत सिंह कॉलेज सांध्य प्रधान संपादक व प्रकाशक सतीश शर्मा
कार्यालय ए 214 बुध नगर इंद्रपुरी नई दिल्ली 110012 मोबाइल 9312002527 संपादक मंडल सौरभ शर्मा,कपिल शर्मा, गौरव शर्मा,डॉ अजय प्रताप सिंह, करुणा ऋषि, डॉ मधु वैध,राजेश शुक्ल प्रकाशक व मुद्रक सतीश शर्मा के लिय ग्लैक्सी प्रिंटर-106 F, कृणा नगर नई दिल्ली 110029, A- 214 बुध नगर इन्दर पूरी नई दिल्ली 110012 से प्रकाशित | सभी लेखों पर संपादक की सहमति आवश्यक नहीं है पत्रिका में किसी भी लेख में आपत्ति होने पर उसके विरुद्ध कार्रवाई केवल दिल्ली कोर्ट में ही होगी R N I N0-68540/98 |
अनुक्रमणिका सम्पादकीय – 3जीवन मे भौतिक आधार के दुष्परिणाम – 4 लेखमेरी पहली पाठशाला – 9 लेखसमावेशी नेतृत्व- 13 लेख ज्योतिष व वर्तमान – 15 कहानी Birsa Munda- 16 Article सितंबर मास के महत्व पूर्ण दिवस- 19 जानकारी भीष्म कृष्ण संवाद – 23 कहानी शिक्षक जीवन का सार्थक सार्थी – 26 लेख हिन्दी भाषा के प्रचार मे शास्त्रीय संगीतकी भूमिका- 30 साक्षात्कार इमानदारी – 34 कहानी चौबारा – 36 कहानी स्त्री कीर्ति या वासना 38 – प्रसंग अजा {प्रबोधिनी} एकादशी – 41 कथा परिवर्तन {पदमा} एकादशी – 34 कथा गौमुखासन- 43 योग बिना टिकट यात्री व्यंग्य – 44 व्यंग्य स्क्वायर डायमंड क्रासिंग- 47 लेख |
सम्पादकीय
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् |
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः
जो सभी प्राणियों का उदगम् है और सर्वव्यापी है, उस भगवान् की उपासना करके मनुष्य अपना कर्म करते हुए पूर्णता प्राप्त कर सकता है ।
जो कार्य हमने अपने करने हेतु स्वीकार किये हैं, उन सब कामों को अपने निमित कार्य के अन्तर्गत लेना चाहिये। जैसे, हमने अपने लिए वकील, अध्यापक, चिकित्सक, नौकर आदि अपने निमित कार्य स्वीकार किए है तो उसके कर्तव्य का प्रेमपूर्वक, आदरपूर्वक निःस्वार्थ भाव से भली भाँति पालन करना ही अपने लिये ‘स्वकर्म’ है। अगर हम अपने निमित कार्य को स्वार्थ बुद्धि, पक्षपात, कामना आदि को लेकर कर्म करते है तो वह कर्मों के प्रति ‘आसक्ति’ होती है। यदि हम अपने काम प्रेमपूर्वक, निष्काम भाव से और दूसरों के हित के लिये करते है तो वह ‘अभिरत होती है। कर्मों को अपने निमित अपने लिए अपने द्वारा स्वीकार किया मान कर करेंगे तो काम करने मे मज़ा भी आएगा व हम तनाव मुक्त रहेंगे | भगवान ने कर्मों में आसक्ति का निषेध किया है। यानि अपने कर्म स्वय की प्रेरणा से करने है | मनुष्य जाति व कर्म आदि को लेकर न तो कभी अपने को ऊँचा समझे, न नीचा समझे, अगर हम अपने को किसी से उच्च समझेगे तो अहंकार आएगा ओर नीचा समझेंगे तो मनोबल कम होगा | ये दोनों ही स्थिति अपने लिए नुकसान दायक है | प्रत्युत घड़ी के पुर्जे की तरह अपनी जगह ठीक कर्तव्य का पालन करते रहे यही अपने लिए ठीक रहेगा | कभी भी किसी दूसरे की निन्दा, तिरस्कार न करे तथा अपना अभिमान भी न करे, तब ‘अभिरति’ होगी। वास्तव में ‘कर्म’ की प्रधानता नहीं है, प्रत्युत ‘भाव’ की प्रधानता है। करने वाले का भाव शुद्ध होगा तो वह सबका कल्याण करने वाला हो जायगा,इससे कोई फर्क नहीं पढ़ता की वह किस वर्ण का है । ‘कर्म’ में वर्ण की मुख्यता है और भावमें दैवी अथवा आसुरी सम्पत्ति की मुख्यता है । अतः दैवी अथवा आसुरी सम्पत्ति किसी वर्ण को लेकर नहीं होती, प्रत्युत सबमें हो सकती है। दैवी सम्पत्ति मोक्ष देनेवाली और आसुरी सम्पत्ति बाँधने वाली होती है। इसलिये यदि ब्राह्मण में भी अपनी जाति आदि को लेकर अभिमान हो जाय तो वह आसुरी- सम्पत्ति वाला हो जायगा अर्थात् उसका पतन हो जायगा । हमे जानना होगा की हम ने जन्म क्यों लिया है | अगर थोड़े मे समझे तो हमे नर से नारायण बनाना है | यही निमित मान कर कर्म करे |
जीवन मे भौतिक आधार के दुष्परिणाम
वासुदेव प्रजापति
पश्चिमी जीवन विचार और भारतीय जीवन विचार में आधारभूत अन्तर है। जहाँ पश्चिम ने भौतिकता को आधार बनाया है, वहीं भारत ने आध्यात्मिकता को अपना आधार बनाया है। पश्चिमी जीवन विचार आत्मतत्त्व को जानता तक नहीं, इसलिए आध्यात्मिकता भी उसकी समझ से परे है। फिर भी भारत में आध्यात्मिकता का अंग्रेजी अनुवाद ‘स्पिरिचुअल’ किया जाता है, जो समानार्थी नहीं है। इन दोनों संकल्पनाओं की व्याप्ति में जमीन-आसमान का अन्तर है। इस अन्तर की ओर ध्यान न देने के कारण ही पश्चिमी जीवन विचार ठीक से समझ में नहीं आ रहा है। यही कारण है कि अनेक लोग भौतिक विचार को सही मानकर चलते हैं।
अध्यात्म के प्रकाश में भौतिक को समझना
भारतीय जीवन विचार आध्यात्मिकता पर आधारित है, जबकि पश्चिमी जीवन विचार भौतिकता पर आधारित है। यहाँ एक बात ध्यान में रखने योग्य है कि आध्यात्मिकता और भौतिकता को अनेक लोग परस्पर विरोधी मानते हैं, किन्तु ये दोनों विरोधी नहीं हैं। अर्थात् भारत में भौतिकता का विरोध नहीं है, हम भी भौतिकता को मान्य करते हैं परन्तु अध्यात्म के प्रकाश में भौतिक को मानते हैं। जो भौतिक विचार अध्यात्म का अविरोधी है वह हमें मान्य है, इसके विपरीत जो भौतिक विचार अध्यात्म का विरोधी विचार है, वह हमें मान्य नहीं है।
मनुष्य के व्यक्तित्व में भौतिकता को समझना हो तो मनुष्य का यह पंचभूतात्मक शरीर भौतिक है। अर्थात् यह शरीर आकाश, वायु, अग्नि, जल व पृथ्वी नामक पाँच भौतिक पदार्थों के मेल से बना है। मनुष्य के व्यक्तित्व में शरीर और प्राण के अतिरिक्त अन्त:करण भी होता है। इसी प्रकार सृष्टि में सत्त्व, रज व तम नामक तीन गुण होते हैं। व्यक्तित्व में शरीर, प्राण व अन्त:करण का कुछ विचार होता है, जो भौतिक है, परन्तु त्रिगुण की भूमिका के सम्बन्ध में कुछ भी विचार नहीं किया जाता।
मनुष्य के अन्त:करण में मन सबसे अधिक प्रभावी है। मन में इच्छाएँ होती हैं, मन में रुचि-अरुचि, अच्छा-बुरा, मान-अपमान आदि सब कुछ होता है। मन में काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दुर्गुण होते हैं तो दया, करुणा, प्रेम, सहानुभुति जैसे सद्गुण भी होते हैं। यह सब मन का भौतिक पक्ष है। जब इसी मन को अध्यात्म का अधिष्ठान मिलता है तो मन का संयम और मन का निग्रह करते हुए उसे बुद्धि के नियंत्रण में लाया जाता है। बुद्धि को मन के अनुकूल रखना, भौतिक सोच है, जबकि बुद्धि को आत्मानुकूल बनाना आध्यात्मिक सोच है। पश्चिम के भौतिक विचार में मन-बुद्धि दोनों शरीर सुख का ही विचार करते हैं, जबकि भारत के आध्यात्मिक विचार में शरीर सुख तो तात्कालिक है, इसलिए शरीर सुख के साथ-साथ स्थायी आत्मिक सुख को महत्व दिया गया है।
भौतिकता अर्थात् कामनापूर्ति
मन में कामनाएँ जन्म लेती हैं, इसलिए मन कामनाओं का पूंज है। पश्चिमी विचार में सम्पूर्ण जीवनचर्या का प्रेरक तत्त्व कामनापूर्ति है। और भौतिक पदार्थों को प्राप्त करना ही कामनापूर्ति का स्वरूप है। कामनापूर्ति से शरीर को सुख की अनुभूति होती है। हमारी मान्यता है कि कामनाएँ अनन्त हैं, इसलिए उनकी पूर्ति असम्भव है। महाभारत में इसी आशय का श्लोक है –
न जातु काम: कामानां उपभोगेन शाम्यति।हविषा कृष्णमर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते।।
“जैसे यज्ञ में घी डालने से यज्ञाग्नि बुझती नहीं और अधिक प्रज्वलित होती है, उसी प्रकार कामनाओं का
सेवन करने से कामनाएँ शान्त नहीं होती और अधिक बढ़ जाती है।” इसलिए कामनापूर्ति का पुरुषार्थ कभी रुकता नहीं है। कामनाओं की पूर्ति जितनी अधिक मात्रा में होती है, उतना ही अधिक सुख मिलता है और जितना अधिक सुख मिलता है, उतनी ही अधिक सफलता मिलती है। यह पश्चिमी भौतिक विचार है।
इस भौतिकता का विस्तार अनेक रूपों में दिखाई देता है। वस्तुओं का मूल्यांकन भौतिक आधार पर किया जाता है। जैसे – विद्यालय का भवन कितना भव्य है, उसमें आधुनिक सुविधाएँ कैसी हैं, विद्यालय का शुल्क कितना अधिक है? ये सब विद्यालय के मूल्यांकन के बिन्दु होते हैं। विद्यालय के सर्वांगीण मूल्यांकन में इस बिन्दु का भी महत्व है, परन्तु केवल इसी बिन्दु के आधार पर किया गया मूल्यांकन अधूरा होता है। सामान्य भवन में और कम सुविधाओं में भी अच्छी शिक्षा होती है, यह बात किसी के समझ में नहीं आती, क्योंकि उनकी दृष्टि ही भौतिक है।
बजट गुणवत्ता का मापक
किसी कार्यक्रम या प्रकल्प का बजट कितना है, इस आधार पर उस प्रकल्प का मूल्यांकन किया जाता है। कम बजट वाला प्रकल्प स्वतः ही कम गुणवत्ता वाला मान लिया जाता है। वास्तव में तो कम खर्च में अच्छा और कम समय में प्रकल्प पूर्ण करने वाले को मूल्यांकन में प्रथम क्रम मिलना चाहिए। परन्तु भौतिकवादियों की दृष्टि में इस कर्म-कुशलता का कोई महत्व नहीं है। प्रति व्यक्ति आय, देश की कुल आय और इस जीडीपी को बढ़ाने वाला उत्पादन देश को विकास के सूचकांक में स्थान दिलाता है। कौन सी वस्तु का उत्पादन हो रहा है, इससे उनको कोई लेना-देना नहीं। जैसे – शराब का उत्पादन, गोमांस का उत्पादन, नशीली वस्तुओं का उत्पादन आदि से आय बढ़ती है तो वे होने चाहिए। उनका युवा पीढ़ी पर दुष्प्रभाव होगा, इसकी उन्हें तनिक भी चिन्ता नहीं होती।
भारतीय परिवारों में भोजन घर में ही करना उत्तम माना जाता है, इसलिए होटलों में कम लोग जाते हैं। कम लोगों के जाने से होटल ज्यादा नहीं चलते, देश की जीडीपी कम होती है। हमारे घरों में माताओं को भोजन बनाने व अन्य काम करने के पैसे नहीं मिलते, इसलिए देश की जीडीपी कम होती है। देश में यदि लोग बीमार कम होते हैं तो अस्पताल व दवाई बाजार कम चलता है। परिणामस्वरूप देश की जीडीपी कम होती है, जिससे हमारा देश विकसित देशों की श्रेणी में नहीं आता, विकासशील देश माना जाता है। हमारा देश विकसित देश नहीं है, इसका कारण पैमाना भौतिक है। भारत को यदि विकसित देश बनना है तो उसे अपनी संस्कृति छोड़नी पड़ेगी। क्योंकि पैमाना सांस्कृतिक नहीं है, भौतिक है और भौतिक पैमाने में संस्कृति को कोई स्थान नहीं है। भारतीय आध्यात्मिक मानक अपनाने से संस्कृति व समृद्धि दोनों बढ़ती है।
भौतिकता का प्रभाव फैल रहा है
आज हम भी भौतिक विकास को ही वास्तविक विकास मान रहे हैं। घर कैसा है? इसका मापन शयनकक्षों से करते हैं, वन बेडरूम नहीं, टू बेडरूम नहीं, फोर बेडरूम है तो घर बढ़िया है। घर में रहने वाले लोगों के संस्कार कोई नहीं देखता। विद्यालय का मापन वातानुकुलित कक्षों व कम्प्यूटरों से आँका जाता है, शिक्षा व संस्कार से नहीं। समारोहों का मूल्यांकन श्रोताओं की संख्या व उस पर हुए खर्च से होता है। परीक्षा में सफलता का मापदंड कितने अधिक अंक मिले से होता है, ज्ञान या योग्यता से नहीं। नौकरी का मापदंड कार्य से नहीं, अधिक वेतन से होता है। चिकित्सालय का मूल्यांकन कितने अधिक रोगी आते हैं, डॉक्टर कितनी अधिक फीस लेते हैं, इससे होता है। यह अत्यन्त विपरीत दिशा का विकास है।
भारत में यह भौतिकता अनेक रूपों में फैल रही है। परन्तु अपनी संस्कृति को छोड़ना हमारे लिए सम्भव नहीं हो रहा है। हम इतने अधिक ‘व्यावसायिक’ नहीं हो पाते, इसलिए भौतिक विकास में पीछे रह जाते हैं। हमें वास्तव में इसे अपना सौभाग्य मानना चाहिए कि भौतिकता के बढ़ते प्रभाव में हम तो अपनी संस्कृति छोड़ने को तैयार हैं, परन्तु संस्कृति हमें नहीं छोड़ रही है।
भौतिक बातों को भौतिक बनाना
आश्चर्य तो इस बात का है कि भौतिकवादी दृष्टि और अधिक गहराई में जाकर अभौतिक बातों को भी भौतिक बना देती है। इसका एक मुखर उदाहरण हमारा ‘योग’ है। योग अध्यात्म विद्या है, योग का सार समाधि है, योग का परिणाम आत्म साक्षात्कार है। परन्तु हम योग के अत्यन्त स्थूल अंगों को ही स्वीकार करते हैं। अष्टांग में से केवल दो अंग आसन व प्राणायाम को ही लेते हैं, जिनका सम्बन्ध शरीर व प्राण के साथ है। अर्थात् वे अंग जिनका सम्बन्ध व्यक्तित्व के भौतिक आयाम के साथ है, वे ही हमें योग लगते हैं। हम उनकी प्रतियोगिता आयोजित करते हैं, जबकि ये भौतिक आयाम होते हुए भी प्रतियोगिता के विषय नहीं हैं। और योग के शेष अंग यम, नियम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि की प्रतियोगिता नहीं हो
सकती, इसलिए उनकी बात ही नहीं करते, क्योंकि ये स्थूल नहीं आन्तरिक व सूक्ष्म विषय हैं। अतः हमने योग को अन्त:करण का विषय न मानकर शारीरिक का विषय बना दिया है। इस अर्थ में शरीर का व्यायाम और चिकित्सा ही योग के विषय हैं। इस प्रकार एक आध्यात्मिक विषय को भौतिक विषय बना देने की क्षमता इस भौतिकवादी दृष्टि में है।
यही दशा मनोविज्ञान की है
मनोविज्ञान का अर्थ ही है, मन का विज्ञान। मन का लक्ष्य है, कामनाओं की पूर्ति करना। परन्तु कामनाएँ अनन्त होने के कारण उनकी पूर्ति होना सम्भव नहीं है, यह हम जानते हैं। जब कामनाओं की पूर्ति नहीं होती तो मन छटपटाने लगता है। मन को हमेशा चाहिए और चाहिए तो होता है, परन्तु जब कोई वस्तु बहुत अधिक मात्रा में बार-बार मिलती ही रहती है तो मन उस वस्तु से ऊबने लगता है। मन को नित्य नई वस्तु चाहिए और नई वस्तु की तृष्णा में वह पागल हो जाता है। उस पागलपन की स्थिति में उसकी चंचलता गति में, उसकी उत्तेजना उन्माद में और उसका असन्तोष हिंसा में बदल जाता है। सभी प्रकार के अनाचार इसमें से ही पैदा होते हैं। इसलिए भारतीय आध्यात्मिक दृष्टि मन को वश में रखने की, उसे शिक्षित करने की है, किन्तु पश्चिमी भौतिकवादी विचार मन के रंजन की बात करता है जो कभी होने वाला नहीं।
पश्चिम में मनोविज्ञान के सारे परीक्षण भौतिकता पर आधारित हैं। कला, संस्कृति, साहित्य व संगीत जैसे सांस्कृतिक विषयों को भी भौतिक दृष्टि से ही देखा जाता हैं। टीवी के सभी कार्यक्रम साज-सज्जा, वेशभूषा, ध्वनि और प्रकाश के द्वारा ही प्रभावी बनाए जाते हैं। उन कार्यक्रमों में कला पक्ष का महत्व तो गौण ही होता है। आज विकास के सभी मापदंड भौतिक हैं। सड़कों की चौड़ाई बढ़ना, एक लेन से फोर लेन होना विकास है। वाहनों की संख्या में वृद्धि होना विकास है, दो वर्ष पहले तक उसके पास केवल मोटरसाइकिल थी अब तो घर में चार-चार कारें हैं, देखो उसने कितना विकास कर लिया। इसी प्रकार कम्प्यूटर व मोबाइल की वृद्धि भी विकास की सूचक है। अब तो सुख का सूचकांक भी भौतिक मापदंडो से मापा जायेगा। जबकि हमारी दृढ़ मान्यता है कि सुख भौतिक वस्तुओं में नहीं है, आत्मिक आनन्द में है। इसलिए सुख का मापन भौतिक मापदंड़ों से हो ही नहीं सकता। अर्थात् पश्चिम का भौतिक आधार अपूर्ण है।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।
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मेरी पहली पाठशाला
श्रीमती चंद्रकला शर्मा
बच्चों की पहली पाठशाला उनके माता पिता का घर होता है और उनकी माताजी ही उनकी प्रथम शिक्षिका होती हैं। हमारा इतिहास तो हमें यह भी बताता है कि जब बच्चा माँ की कोख़ में होता है वह उसी समय से सीखना शुरू कर देता है। महाभारत में अभिमन्यु का वृतान्त आता है कि उसने युद्ध में चक्रव्यू को तोड़ने की कला अपनी माँ के पेट में ही सीख ली थी । बालक की शिक्षा माँ के पेट से ही प्रारम्भ हो जाती है ।जैसे सब घर में ही प्रारम्भिक शिक्षा अपनी माताजी से सीखते हैं वैसे ही मेरी भी प्रथम शिक्षिका मेरी माताजी रही हैं। मैं आज जो कुछ भी हूँ , यह सब उनकी शिक्षा, प्रेरणा और आशीर्वाद से ही हूँ। मेरी इस प्रथम शिक्षिका की शैक्षणिक दक्षता की हम पहले ही चर्चा करलें तो अच्छा रहेगा। क्योंकि यह बहुत महत्वपूर्ण है। मेरी माताजी को बचपन से ही किसी स्कूल में नहीं भेजा गया। हमारे नानाजी एकबड़े जागीरदार और एक वकील भी थे। पुराने समय में एक जागीरदार की बेटी नापढ़े माना जा सकता है, पर एक वकील की बेटी स्कूल में ना पढ़े ; यह बात थोड़ी कम समझ में आती है।नाना का परिवार बहुत बड़ा और सम्पन्न परिवार था। गॉव की चारों ओर की दूर – दूर तक की जमीन नाना के परिवार की ही थी। गाँव
में एक ही बहुत बड़ी स्लेट- पत्थर की बनी एक ही विशाल हवेली है वह मेरे नाना जी की है। माँ की बड़ी बहन कलावती बहुत ही सुन्दर थी। उसे ही सबसे पहले गांव की स्कूल में भेजा गया था। दुर्भाग्य से उनकी बचपन में जल्दी ही मृत्यु हो गई। किन कारणों से हुई इसका तो निश्चित रूप से कहना कठिन है ; क्योकि उस समय गाँवों में डॉक्टर लोग और उपचार की सुविधा नहीं हुआ करती थीं। हक़ीम ; वैद्य और झाड़ पूँछ से ही इलाज होता था। बेटी कलावती की मृत्युके बाद नानी ने निश्चय करलिया कि अब वह कोई लड़की को स्कूल पढ़ने के लिए नहीं भेजेंगी।। लड़कियों को स्कूल – पाठशाला में पढ़ाना शुभ नहीं है। इसलिए मुझे स्कूल की पढ़ाई से वंचित रखा गया। पुराने समय में यह सब सम्भव था।
पढ़ना लिखना कितना मह्त्वपूर्ण है और पढ़ लिख कर ज्ञान प्राप्त करना और उसका समाज की भलाई के लिए इस्तेमाल करना हमारे भगवान और धर्म गुरुओं ने बताया और सिखलाया भी है। हमारे पूर्वजों ने कौनसा धर्म या भगवान अच्छा है यह उन्होंने कभी नहीं बतलाया लेकिन ज्ञान बड़ा है और ज्ञानी का स्थान समाज में बड़ा है। हमारे किसी भी भगवान या गुरु ने कभी भी यह शिक्षा नहीं दी कि हमें कौन से विद्यालय में या विषय में ज्ञान प्राप्त करना है। उन्होंने ज्ञान को महत्व दिया है न कि श्रोत को। कबीरजी ने तो यहां तक भी कहा है कि ” जाति न पूछो साधु की पूछ लीजियो ज्ञान,मोल करो तलवार का पड़ी रहन दो म्यान।”
एकलव्य ने धनुर्विद्या प्राप्त करने के लिए आचार्य द्रोणाचार्य जी से प्रार्थना की तो उसे आचार्य ने अनुमति नहीं दी। एकलव्य ने गुरुजी का मिटटी का पुतला बना कर,उनको गुरु मानकर गुरु के प्रति पूरी आस्था ,श्रद्धा और विश्वास के साथ अकेले ही धनुर्विद्या सीखी। अर्जुन ने गुरूजी के आश्रम में गुरूजी की निगरानी में धनुष बाण चलाना सीखा। उस समय गुरूजी का आश्रम एक ” रेकोग्नाइज़्ड ” “मान्य ” सँस्था थी। शिक्षा पूर्ण करने पर और गुरूजी का आशीर्वाद लेने के बाद सभी शिक्षार्थी अपने नए जीवन में कदम रखते थे। आश्रम में गुरु दक्षिणा दे कर , अपना आश्रम का हिसाब -किताब साफ़ करने के बाद अपना नया जीवन प्रारम्भ करते हैं। गुरूजी का आशीर्वाद ही शायद डिग्री पाने का प्रमाण पत्र रहा होगा। शिक्षा – संस्थान का नाम तो गुरूजी का नाम ही पर्याप्त रहता था।एकलव्य के पास शिक्षा – संस्थान का नाम और डिग्री के नाम से गुरूजी का आशीर्वाद नहीं था। अतः एकलव्य की धनुर विद्या ” रिकॉग्नाइज़्ड ” यानी कि मान्य नहीं थी। लेकिन एकलव्य में गुरु भक्ति , श्रध्दा ,और विश्वास था। इसीलिए एकलव्य ने गुरुजी के गुरु दक्षिणा में उसका दाहिने हाथ का अंगूठा काट कर देने को कहा तो, एकलव्य ने एक क्षण की भी देरी नहीं की और सहर्ष अपना अंगूठा काटकर गुरुजी के चरणों में भेंट कर इतिहास में गुरु भक्ति का उदाहरण पेश किया और अमर हो गया। कटा अँगूठा ही उसकी डिग्री बनी।
मुझे मेरी माताजी ने स्कूल भेजा। घर की प्रारम्भिक शिक्षा के साथ – साथ मुझे स्कूल की शिक्षा भी मिलने लगी। नया – नया स्कूल का विद्यार्थी – जीवन एक – दो – तीन – चार शुरू हो गया। कैट, बैट, बॉल के छक्के लगने लगे। घर में मेरी माताजी के अतिरिक्त मेरी स्कूल के किस्से कौन सुनता ? अब मैं अपने ज्ञान की चर्चा माँ से प्रश्न पूछ कर करती तो स्वाभाविक है माताजी को कोई उत्तर नहीं आता था या माँ अपने बच्चे की ख़ुशी के लिए इतना दिखावा तो कर ही सकती हैं। मुझे तो पक्का समझ में आगया कि मेरी माताजी अनपढ़ है और मैं पढ़ – लिख सकती हूँ। माताजी मेरे होमवर्क करने में मेरी कोई मदद नहीं कर पाती थीं। मुझे पिताजी की मदद डाँट खाकर मिलती थी। अगर माताजी को यह सब आता होता तो मुझे पिताजी से कुछ पूछना नहीं पड़ता और डाँट भी नहीं खानी पड़ती। बड़े भाई – बहिन बड़े मतलबी होते हैं। अपना काम तो मुझसे करवा लेते थे पर मेरी पढ़ाई में कभी भी कोई मदद नहीं करते थे। मैं छोटी थी इसलिये।
आगे चल कर देखा माताजी को गिनती भी नहीं आती थी। उनको बस बीस तक गिनती आती थी। उसके बाद वो बुदबुताती थीं ; एक बीसी ,दो बीसी तीन बीसी, पांच बीसी तक। मुझे उनकी यह गिनती नहीं समझ आती थी। उन्होंने कुछ पढ़ा ही नहीं था।वह कभी स्कूल गई ही नहीं थी। इसका उन्हें बहुत मलाल था। वास्तव में उस समय रुपये – पैसे इतने चलते ही कहाँ थे। बार्टर सिस्टम था। घर में खेती से अनाज बहुत होता था। सब्जी – फल बेचने वाले घर पर आजाते थे और उनसे जो खरीदना होता था , उसे तराजू में एक पलड़े में रखते और दुसरे पलड़े में अनाज। अनाज आधा ,दुगना या बराबर का देना है वह मोलभाव में तय करलिया जाता था। टका ; पैसे , आना, अधन्ना ,पाई , धेला , दमड़ी , कौड़ी आदि अनेक प्रयोग की मुद्राऐं थीं । उन दिनों सस्ता जमाना था और कम पैसों में ही घर का काम चल जाता था। पाँच ,दस , पंद्रह , बीस रुपयों में भरे पूरे परिवार का महीने भर का काम चल जाता था।माँ का बीस तक की गिनती में आसानी से घर का हिसाब – किताब का काम हो जाता था।कोई कैलक्युलेटर की आवश्यकता नहीं होती थी। उनकी हाथ की दस उँगलियाँ ही पर्याप्त होती थीं। लेकिन मेरी पढ़ाई पर उनका पूरा जोर था। ऐ छोरी ! मन लगा कर पढ़। बिना पढ़े का कोई मान नहीं करता। शायद यह वह अपने जीवन कटु अनुभव से बोलती थीं।
घर में सब कुशल – मँगल रहे, सुख – शाँति आये ; इस सोच के साथ हमारी माताजी सुबह – सुबह चार – पॉँच बजे मौसम के अनुसार उठ जातीं। बहिनों को उठने को कहतीं। सुबह – सुबह घर की झाडू – पोंचा करने के बाद जल्दी स्नान करके सभी को पढ़ाई के लिए कहतीं। कहतीं सुबह का पढ़ा और याद किया पाठ कभी भूलता नहीं है। रोज दिन की यही दिनचरीया रहती। उनका मानना था कि सुबह – तड़के ही
उठ कर घर की साफ़ – सफाई कर लेना जरुरी है।देवता लोग घर में सुबह – सुबह ही आते हैं। घर गन्दा होगा तो वह किसी को भी अच्छा नहीं लगता। सूर्य देवता को झाड़ू नहीं दिखानी चाहिए। हम माताजी से मजाक में हाथ में झाड़ू पकड़ कर आकाश की ओर करके कहते ; माँ ! ऐसे सूर्य को झाड़ू नहीं दिखानी चाहिए ? माँ हमें डांटते हुए कहतीं ; बात को समझा करो। कहने का अर्थ तो बस यही होता था कि सूर्योदय से पहले की घर की साफ़ – सफाई का काम , नहाने – धोने का काम सुबह तड़के ही हो जाये तो आपके पास और काम करने के लिए बहुत समय बच जाता है।
” Early To Bed ; Early To Rise ; Makes A Man Healthy And Wise “,इस कथन को बोलने की या किसी को याद करवाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी। यह तो हमारे परिवारों में हम बचपन से ही देखते आरहे हैं। पुराने समय में श्याम को जल्दी खाना खा लेना और अपने पढ़ाई के बाद जल्दी सोजाना हमारी आदत में शामिल था। जलदी सो गए तो जलदी उठ भी जाते थे। सुबह के शाँत वातावरण में पढ़ा हुआ याद भी रहजाता था। १३ फरवरी २००७ के ” टाइम्स ऑफ़ इंडिया ” अख़बार में ” हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के ” नेचर न्यूरो साइन्सेज़ ” के आविष्कारकों की एक अध्यन की रेपोर्ट छपी थी। उसमें बताया गया था कि जो बच्चे रात देर से सोते हैं , देर तक पढ़ते रहते हैं, वह स्कूलों में अच्छा नहीं कर पाते। उस समय यह पढ़ कर मुझे मेरी माताजी की 60 -70 वर्ष पूर्व की कही बात याद आई थी । हमारी माँ तो अनपढ़ – अज्ञानी थीं ; कभी स्कूल – कॉलेज नहीं गई , उनको इस प्रकार की बातों का ज्ञान कैसे हो जाता था ? घर – समाज की सारी बातें, ऊँच – नीच की बातें , घर के रीति – रिवाज ,अच्छे सत – संस्कार – सीख गए। मैं तो एम० ए० पास एक ज्ञानी या अज्ञानी हूँ। घर की पहली पाठशाला में बहुत कुछ सीखा। धन्य हैं वो लोग जिन्हें घर में आदर्श माता – पिता मिले।
पंचक विचार सितंबर – 2023
पंचक विचार -(धनिष्ठा नक्षत्र के तृतीय चरण से रेवती नक्षत्र तक) पंचको में दक्षिण दिशा की ओर यात्रा करना मकान दुकान आदि की छत डालना चारपाई पलंग आदि बुनना,दाह संस्कार,बांस की चटाई दीवार प्रारंभ करना आदि स्तंभ रोपण तांबा पीतल तृण काष्ट आदि का संचय करना आदि कार्यों का निषेध माना जाता है समुचित उपाय एवं पंचक शांति करवा कर ही उक्त कार्यों का संपादन करना कल्याणकारी होगा ध्यान रहेगा पंचर नक्षत्रों का विचार मात्र उपरोक्त विशेष कृतियों के लिए ही किया जाता है विवाह मंडल आरंभ गृह प्रवेश प्रवेश उपनयन आदि मुद्दों से तो पंचक नक्षत्रका प्रयोग शुभ माना जाता है पंचक विचार- दिनांक 03 को 10 -38 तक दिनांक 26 को 20 -27 से दिनांक 30 को 21-07 बजे तक पंचक है |
अधिक जानकारी के लिए संपर्क करे शर्मा जी – 9312002527,9560518227
समावेशी नेतृत्व
संगठन व नेतृत्व , प्रक्रिया बनाम शक्ति, कौन सच्चे नेतृत्व को परिभाषित करता है
जब श्री राम सोने के मृग को खोजने के लिए जंगल में गए और काफी देर तक वापस नहीं लौटे, तो लक्ष्मण जी ने बाहर जाकर उसे खोजने का फैसला किया क्योंकि वह श्री राम के बारे में चिंतित थे। माँ सीता को अकेला छोड़ते समय, वह माँ सीता को सुरक्षित करने के लिए घर के चारों ओर एक रेखा खींचते हैं। लक्ष्मण रेखा | एक बार जब श्री राम और लक्ष्मण जी दोनों जंगल में थे, रावण को पता था कि यह माँ सीता को लेने का सबसे अच्छा समय है और वह कुटी (घर) गया और साधु के रूप में अपना रूप बदल लिया, लेकिन लक्ष्मण रेखा को पार करने से इनकार कर दिया, जिससे वह जल जाता। अब सोचिए, रावण इतना शक्तिशाली था लेकिन लक्ष्मण रेखा नहीं लांघ सका। इसका मतलब है कि रावण को खत्म करने के लिए, लक्ष्मण जी उससे लड़ने और युद्ध खत्म करने के लिए काफी थे, लेकिन फिर भी, श्री राम ने केवट से लेकर निषाद राज, हनुमान जी, नल और नील, अंगद और फिर अपनी टीम बनाने के लिए हर संभव प्रयास किया। और भी बहुत से लोग सामूहिक रूप से लड़े और जीते,अब बताओ कौन जीतता है? शक्ति या प्रक्रिया?
जब आप किसी उद्देश्य में एक टीम को शामिल करते हैं, तो सफलता मधुर और लंबे समय तक चलने वाली होती है, जबकि अपनी एकमात्र शक्ति का उपयोग करना शक्ति का दुरुपयोग है |
भय-आधारित नेतृत्व या प्रबंधन काम नहीं करता; यह अल्पावधि में हो सकता है, लेकिन कार्य की गुणवत्ता सर्वोत्तम रूप से औसत रहेगी और दीर्घावधि में कभी टिकाऊ नहीं होगी। यह काफी आश्चर्यजनक है कि प्रबंधन और नेतृत्व पदों पर बैठे कई लोग अपने लोगों से काम करवाने के लिए डर का माहौल पैदा करेंगे।
“निरंतर परिवर्तन”? क्या हमें अग्रणी परिवर्तनों के लिए अपना दृष्टिकोण बदलने की आवश्यकता है?
उद्देश्य के माध्यम से प्रेरित करें सभी अंदर जाओ सफल होने के लिए क्षमताओं को सक्षम करें निरंतर सीखने की संस्कृति विकसित करें -तपन जी की पोस्ट से
सुर्य उदय- सुर्य अस्त सितंबर-2023
दिनांक | उदय | दिनांक | अस्त |
1 | 06-01 | 1 | 18-40 |
5 | 06-05 | 5 | 18-36 |
10 | 06-07 | 10 | 18-30 |
15 | 06-11 | 15 | 18-24 |
20 | 06-12 | 20 | 18-18 |
25 | 06-14 | 25 | 18-12 |
30 | 06-17 | 30 | 18-06 |
राहू काल
राहुकाल -राहुकाल दक्षिण भारत की देन है,दक्षिण भारत में राहु काल में कृत्य करना अच्छा नहीं माना जाता, राहु काल में शुभ कृतियों में वर्जित करने की परंपरा अब हमारे उत्तरी भारत में भी अपनाने लगे हैं राहुकाल प्रतिदिन सूर्यादि वारों में भिन्न-भिन्न समय पर केवल डेढ़ डेढ़ घंटे के लिए घटित होता है |
अधिक जानकारी के लिए संपर्क करे शर्मा जी – 9312002527,9560518227
ज्योतिष व वर्तमान
संगीता पुरी
हर काम को करने मे समय लगता है! जाहिर है, फलित करने के लिए कुंडली के अध्ययन मे भी समय लगता होगा! गत्यात्मक ज्योतिष के जनक हमारे पिताजी ने मेरी पुस्तक के प्राक्कथन मे लिखा था, उनकी काफ़ी दिनों से लेखन करने की इच्छा थी, पर प्रतिदिन एक जन्मकुंडली देखने का लोभ उनके ज्ञान और अनुभव की वृद्धि तो करता रहा, पर पुस्तक-लेखन का समय नहीं दे पाया!
एक कुंडली को देखने मे वे दिनभर डूब जाते थे, तभी ऐसा फलित निकलकर आता था, जो ज्योतिष पर विश्वास दिलाने के लिए पर्याप्त था! आज की तरह उस वक्त न फ़ोन था न कंप्यूटर, न एक कमांड पर कुंडली सामने लाने वाले एप्प और न ही पूरे जीवन के उतार-चढ़ाव का ग्राफ खींचने वाला मेरे द्वारा उनके फॉर्मूले पर विकसित किया गया सॉफ्टवेयर! रजिस्टर के एक एक पन्ने पर उन्होंने एक एक व्यक्ति की कुंडली बनाकर, ग्राफ खिंचकर आवश्यक गणना कर रखी थी !
गत्यात्मक ज्योतिष दो प्रकार से भविष्य कथन करता है – पहला, जन्मकालीन ग्रहो के हिसाब से आपके चरित्र, आपको जीवन भर मिलने वाला सुख दुख और आपकी जीवन यात्रा निश्चित हो जाती है! दूसरा,
जनमकालीन ग्रहों से गोचर के ग्रहों के तालमेल या उसकी कमी से आपको समय समय पर कुछ सुख दुख महसूस होते रहते है, वो दो-तीन दिन से लेकर दो तीन वर्षो तक के हो सकते है!
समय समय पर रजिस्टर को उलटते हुए उनको गोचर के हिसाब से भी खास समयान्तराल मे किसी का कुछ अच्छा या बुरा दिख जाता तो फ़ौरन उसे पत्र लिखते, आप इस समय कोशिश कर सकते हैँ, काम बन जायेगा! आप इस समय रिस्क न ले, कुछ गड़बड़ हो सकता है! फिर उनका जवाबी पत्र आता, अधिकांश जगह उनकी बाते सही होती! धनबाद मे रहनेवाले पिताजी के कई मित्र कहा करते थे, हम सब इनकी प्रयोगशाला मे तपकर खड़े हैँ!
हमारे पापाजी 84 वर्ष की उम्र पुरे कर चुके, उनके साथ के या उनसे बड़े लोगो मे से काफ़ी अब इस दुनिया मे नहीं हैँ, लेकिन उनके जीवन मे हुई घटनाओं के साथ के पापाजी के ज्योतिषीय अनुभव आनेवाली पीढ़ी के लिए बहुत मददगार हो सकते हैँ! ईश्वर हमें शक्ति दें कि उनके इस सैद्धांतिक ज्ञान का हम दुनिया को व्यावहारिक उपयोग सीखला पाएँ!
आज टीवी मे आनेवाले ज्योतिषीयों ने कंप्यूटर से कुंडली निकालकर एक मिनट मे फलित करने की परंपरा शुरू कर सच्चे ज्योतिषीयों और ज्योतिषप्रेमियों दोनों को गुमराह किया है! टीवी देखने वालों की इतनी बड़ी आबादी है, 100 मे 10 फलित भी सही हों और 10 प्रचारक मिलते चले जाएँ तो इनका बाजार चलता रहेगा! लेकिन 90 लोगों की ज्योतिष के प्रति श्रद्धा समाप्त होती है, उसे ये नहीं समझ पाते! समाज मे ज्योतिष के प्रति भ्रम पैदा होता है!
मांगलिक दोष विचार परिहार
वर अथवा कन्या दोनों में से किसी की भी कुंडली में 1,4,7,8 व 12 भाव में मंगल होने से ये मांगलिक माने जाते हैं,मंगली से मंगली के विवाह में दोष न होते हुए भी जन्म पत्रिका के अनुसार गुणों को मिलाना ही चाहिए यदि मंगल के साथ शनि अथवा राहु केतु भी हो तो प्रबल मंगली डबल मंगली योग होता है | इसी प्रकार गुरु अथवा चंद्रमा केंद्र हो तो दोष का परिहार भी हो जाता है |इसके अतिरिक्त मेष वृश्चिक मकर का मंगल होने से भी दोष नष्ट हो जाता है | इसी प्रकार यदि वर या कन्या किसी भी कुंडली में 1,4,7,9,12 स्थानों में शनि हो केंद्र त्रिकोण भावो में शुभ ग्रह, 3,6,11 भावो में पाप ग्रह हों तो भी मंगलीक दोष का आंशिक परिहार होता है, सप्तम ग्रह में यदि सप्तमेश हो तो भी दोष निवृत्त होता है |
BIRSA MUDA
Dr madhu ved,Director JPS,Manager SBM Delhi
Birsa munda is an Indian Freedom fighter and hero of tribal areas.
He was a superhero behind the Millenarian movement that arose in Bengal Presidency (Jharkhand)
He was born on nov 15,1875 in Jharkhand .He was surrounded by Christian missionaries whose main role was to convert the tribals into Christians.Moreover he spent a large amount of his time among Sardars ,that impacted his childhood innocent mind and he ended up as a part of anti missionary programme.Then onwards he started studying our great scriptures The Ramayana and The Mahabharata .He guided the masses against witches ,superstitions and also to stay away from alcohol and having faith in God.
He introduced the slogan -Abua Raj Seter Jana ,Maharani Raj Tundu Jana -for his rebel movements .The meaning is that Queen Kingdom must end and Hindu Raj must be established .
He was known as a tribal reformer,religious leader and freedom fighter belonging to the Munda Tribe .He gathered the people and formed guerrilla -style rebel forces against British Rule .
He urged people not to pay taxes ,due to his this anti govt statement he was arrested for two long years .He was against the land policies ,also against the faith in Church .He fought against British Government‘s Feudal Zamindari system in chhota Nagpur plateau area.He fought against the contractors called DIKUS as feudal landlords for the Adivasi areas.
He and his groups attacked so many British loyal places like police stations,commissioners offices.
I consider him as an Oak tree of Bharat who fought and believed “it is better to light candle one than to curse darkness ‘.
The British Government could not tolerate his rebellious attitude and imprisoned him in Ranchi Jail,where this brave freedom fighter kept fighting against Cholera and left the world crying on June 9,1900.ULGULAN Zindabad Abua Dishoom ,Abua Raj Our state ,our rule) Vande Mataram
ईश्वर चन्द्र विद्यासागर उन्नीसवीं शताब्दी के बंगाल के प्रसिद्ध दार्शनिक, शिक्षाविद, समाज सुधारक, लेखक, अनुवादक, मुद्रक, प्रकाशक, उद्यमी और परोपकारी व्यक्ति थे। वे बंगाल के पुनर्जागरण के स्तम्भों में से एक थे। उनके बचपन का नाम ईश्वर चन्द्र बन्द्योपाध्याय था।
सितंबर में महत्वपूर्ण दिवस
1 सितंबर से 7 सितंबर – राष्ट्रीय पोषण सप्ताह
1 सितंबर से 7 सितंबर तक प्रत्येक वर्ष राष्ट्रीय पोषण सप्ताह के रूप में मनाया जाता है। यह लोगों को उनके स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए पोषण और स्वस्थ भोजन के विषय में जागरूकता फैलाने के लिए मनाया जाता है। इसके उद्देश्य को पूरा करने के लिए पूरे देश में इस दिन का आयोजन बड़े स्तर पर किया जाता है।
2 सितंबर – विश्व नारियल दिवस
विश्व नारियल दिवस 2009 के बाद से विश्व भर में प्रत्येक वर्ष 2 सितंबर को मनाया जाता है। यह नारियल के संरक्षण के है।
5 सितंबर – शिक्षक दिवस
देश में प्रत्येक वर्ष 5 सितंबर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह भारत रत्न और महान शिक्षक डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जयंती पर मनाया जाता है, उनका जन्म 1962 में हुआ था। वे भारत के पहले उपराष्ट्रपति बने और स्वतंत्र भारत के पहले राष्ट्रपति भी बने।
6 सितम्बर – शरत चंद्र बोस जयंती
7 सितंबर – ब्राजील का स्वतंत्रता दिवस
ब्राजील प्रत्येक वर्ष 7 सितंबर को अपना स्वतंत्रता दिवस मनाता है। इसे सेटे डे सेटेम्ब्रो के नाम से भी जाना
जाता है। आजादी से पहले यह पुर्तगालियों के अधीन था। पुर्तगाल से स्वतंत्रता की घोषणा 7 सितंबर 1822 को पुर्तगाली राजा के पुत्र पेड्रो डी अलकांतारा द्वारा की गई थी। इसलिए ब्राजील ने 7 सितंबर को अपना निष्कर्ष दिवस भव्य स्तर पर मनाया।
8 सितंबर – विश्व साक्षरता दिवस
विश्व साक्षरता दिवस प्रत्येक वर्ष 8 सितंबर को मनाया जाता है। इसका उद्देश्य विश्व भर में लोगों को साक्षर बनाना है। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में साक्षरता के प्रति जागरूकता और महत्व को फैलाने के लिए 1966 में यूनेस्को द्वारा विश्व साक्षरता दिवस घोषित किया गया था। यूनेस्को की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2060 तक भारत सार्वभौमिक साक्षरता हासिल कर लेगा।
10 सितंबर – विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस
10 सितंबर का दिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसका प्रमुख उद्देश्य आत्महत्या करने वाले लोगों की जान बचाना है।
10 सितम्बर – जी बी पंत जयंती
10 सितम्बर – जतीन्द्र नाथ मुखर्जी बलिदान दिवस
11 सितम्बर – सुब्रमण्यम भारती बलिदान दिवस सुब्रह्मण्य भारती एक तमिल कवि थे। उनको ‘महाकवि भारतियार’ के नाम से भी जाना जाता है। उनकी कविताओं में राष्ट्रभक्ति कूट-कूट कर भरी हुई है।
11 सितम्बर – विनोभा भावे समाज सुधारक, स्वतंत्रता सेनानी
11 सितंबर के हमले – जिन्हें 9/11 हमला भी कहा जाता है, 2001 में संयुक्त राज्य अमेरिका में लक्ष्यों के खिलाफ इस्लामी चरमपंथी समूह अल-कायदा से जुड़े 19 आतंकवादियों द्वारा किए गए एयरलाइन अपहरण और आत्मघाती हमलों की श्रृंखला, अमेरिकी इतिहास में अमेरिकी धरती पर सबसे घातक आतंकवादी हमले
12 सितंबर – 12 सितंबर को भारत में दादा-दादी दिवस मनाया जाता है।
14 सितंबर – हिंदी दिवस
भारत में 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाता है। इस दिन का बहुत महत्व है, इसी दिन 1949 में संविधान सभा ने देवनागरी में लिखी गई हिंदी को भारत की राजभाषा के रूप में अपनाया था। हिंदी अब विश्व में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा के अंतर्गत आती है। यह भारत या विदेशों में भी रहने वाले 40% लोगों की पहली भाषा है।
15 सितंबर – इंजीनियर्स दिवस
प्रत्येक वर्ष 15 सितंबर को इंजीनियर्स दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह प्रत्येक वर्ष इंजीनियरिंग की खोज करने वाले और भारत रत्न पुरस्कार विजेता सर मोक्षगुण्डम विश्वेश्वरय्या की जयंती मनाने के लिए मनाया जाता है। देश के विकास में इंजीनियरों के योगदान को मान्यता देने के लिए 1968 से यह दिवस मनाया जाता है। इसका उद्देश्य इंजीनियरों को अपने क्षेत्र में कुशल बनाना और राष्ट्र को मजबूत बनाने के लिए अपने ज्ञान का योगदान देना है।
16 सितंबर – विश्व ओजोन दिवस
ओजोन परत को सुरक्षित बनाने और लोगों को हानिकारक यूवी किरणों से सुरक्षित बनाने के लिए प्रत्येक वर्ष 16 सितंबर को विश्व ओजोन दिवस मनाया जाता है। इस दिन का उद्देश्य ओजोन परत के क्षरण के बारे में लोगों में जागरूकता फैलाना और इसे संरक्षित करने के संभावित तरीकों की खोज करना है।
17 सितंबर – विश्व रोगी सुरक्षा दिवस
विश्व रोगी सुरक्षा दिवस हर साल 17 सितंबर को मनाया जाता है। यह मई 2019 में 72वीं विश्व स्वास्थ्य सभा द्वारा ‘रोगी सुरक्षा पर वैश्विक कार्रवाई’ पर प्रस्ताव WHA72.6 को अपनाने के बाद स्थापित किया गया था।
17 – हनुमान प्रसाद पोधार जयंती
18 सितंबर – विश्व बांस दिवस
विश्व स्तर पर बांस के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए 18 सितंबर को विश्व बांस दिवस मनाया जाता है।
21 सितंबर – अंतर्राष्ट्रीय शांति दिवस
अंतर्राष्ट्रीय शांति दिवस (यूएन) 21 सितंबर को दुनिया भर में मनाया जाता है। पहली बार इसे सितंबर 1982 में मनाया गया और 2001 में, महासभा ने एक प्रस्ताव 55/282 को अपनाया, जिसने 21 सितंबर को अहिंसा और संघर्ष विराम के अंतर्राष्ट्रीय शांति दिवस के रूप में स्थापित किया।
21 सितंबर – विश्व अल्जाइमर दिवस
मनोभ्रंश के कारण रोगी के सामने आने वाली चुनौतियों के बारे में लोगों में जागरूकता बढ़ाने के लिए 21 सितंबर को विश्व अल्जाइमर दिवस मनाया जाता है।
26 सितंबर – विश्व पर्यावरण स्वास्थ्य दिवस
इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ एनवायर्नमेंटल हेल्थ द्वारा विश्व पर्यावरण स्वास्थ्य दिवस घोषित किया गया है।
26 सितम्बर 1820 – ईश्वर चंद विधासागर समाज सुधारक, स्वतंत्रता सेनानी
27 सितंबर – विश्व पर्यटन दिवस
विश्व पर्यटन दिवस 27 सितंबर को पर्यटन के महत्व को प्रोत्साहित करने के लिए मनाया जाता है जो दुनिया भर में लाखों लोगों के लिए रोजगार पैदा करने और भविष्य के निर्माण में मदद करता है।
28 – सरदार भगत सिंह जयंती
29 सितंबर – विश्व हृदय दिवस
विश्व हृदय दिवस प्रतिवर्ष 29 सितंबर को मनाया जाता है। वर्ल्ड हार्ट फेडरेशन ने इस दिन को हृदय रोग (CVD) के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए बनाया है।
भद्रा विचार सितंबर – 2023
भद्रा काल का शुभ अशुभ विचार – भद्रा काल में विवाह मुंडन, गृह प्रवेश, रक्षाबंधन आदि मांगलिक कृत्य का निषेध माना जाता है परंतु भद्रा काल में शत्रु का उच्चाटन करना,स्त्री प्रसंग में,यज्ञ करना,स्नान करना,अस्त्र शस्त्र का प्रयोग,ऑपरेशन कराना, मुकदमा करना,अग्नि लगाना,किसी वस्तु को काटना,भैस,घोड़ा व ऊंट संबंधी कार्य प्रशस्त माने जाते हैं सामान्य परिस्थिति में विवाह आदि शुभ मुहूर्त में भद्रा का त्याग करना चाहिए परंतु आवश्यक परिस्थितिवश अति आवश्यक कार्य भूलोक की भद्रा ,भद्रा मुख छोड़कर कर भद्रा पुच्छ में शुभ कार्य कर सकते है |
अधिक जानकारी के लिए संपर्क करे शर्मा जी – 9312002527,9560518227
दिनांक | शुरू | दिनांक | समाप्त |
02 | 10-16 | 02 | 20-49 |
05 | 15-46 | 06 | 03-41 |
09 | 06-21 | 09 | 19-19 |
13 | 02-21 | 13 | 15-36 |
19 | 01-11 | 19 | 13-42 |
22 | 13-35 | 23 | 00-56 |
25 | 18-28 | 26 | 05-01 |
28 | 18-49 | 29 | 05-08 |
भीष्म कृष्ण संवाद
बात तब की है जब महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था और दुर्योधन एवं दुःशासन मारे जा चुके थे। तथा, भीष्म पितामह बाणों की शैय्या पर उसी कुरुक्षेत्र के मैदान में सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा कर रहे थे…! तभी उनके कानों में शहद घोलती हुई एक सुपरिचित ध्वनि पड़ी… प्रणाम पितामह…!! ये परिचित ध्वनि सुनते ही भीष्म पितामह के सूख चुके होठों पर एक फीकी सी मुस्कान आ गई। और, उन्होंने धीरे आवाज से कहा: आओ देवकी नंदन कृष्ण…! स्वागत है तुम्हारा…!! मैं बहुत समय से तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा था…!! इस पर श्री कृष्ण बोले: क्या कहूँ पितामह…? अब मैं ये भी नहीं पूछ सकता कि आप कैसे हैं? इस पर भीष्म पितामह थोड़ी देर चुप रहे…और, कुछ क्षण बाद श्री कृष्ण से कहा: कुछ पूछूँ केशव? वास्तव में तुम काफी अच्छे समय पर आए हो… संभवतः ये शरीर छोड़ने से पहले मेरे बहुत सारे भ्रम समाप्त हो जाएंगे | इस पर श्री कृष्ण ने कहा: कहिए न पितामह…! इस पर भीष्म पितामह ने कहा: एक बात बताओ कृष्ण… तुम तो ईश्वर हो न? इस पर श्री कृष्ण ने उन्हें बीच में ही टोक कर कहा: नहीं
पितामह…! मैं ईश्वर नहीं बल्कि सिर्फ आपका पौत्र हूँ…!
श्री कृष्ण की ये बातें सुनकर भीष्म पितामह अपने उस घोर पीड़ा में भी ठहाके लगाकर हँस पड़े और कहा: मैं अपने जीवन का खुद मूल्यांकन नहीं कर पाया। मैं नहीं जानता कि मेरा ये जीवन अच्छा रहा या बुरा?
परंतु, अब मैं इस धरा को छोड़कर जा रहा हूँ, इसीलिए, मैं तुमसे कुछ पूछना चाह रहा था… अतः… अब तो मुझे छलना छोड़ दो…इस पर श्री कृष्ण… भीष्म के निकट आकर उनका हाथ अपने हाथों में लेकर कहा… पूछें न पितामह… आप क्या पूछना चाहते हैं?
तब भीष्म ने कहा: एक बात बताओ कन्हैया… इस युद्ध में जो हुआ वो ठीक था क्या?
इस पर श्री कृष्ण ने प्रतिप्रश्न किया: किसकी ओर से पितामह? पांडवों की ओर से… या, कौरवों की ओर से? भीष्म ने कहा: कौरवों के कृत्य पर तो चर्चा का कोई अर्थ ही नहीं रहा कन्हैया… लेकिन, पांडवों की ओर से जो हुआ क्या वो सही था? आचार्य द्रोण का वध, दुर्योधन के जंघा के नीचे प्रहार, दुःशासन का छाती का चीरा जाना, जयद्रथ के साथ हुआ छल, निहत्थे कर्ण का वध आदि… उचित था क्या?
इस पर श्री कृष्ण ने कहा: इसका उत्तर मैं कैसे दे सकता हूँ पितामह… इसका उत्तर तो उन्हें देना चाहिए जिन्होंने ऐसा किया है… उत्तर दे दुर्योधन का वध करने वाले भीम और उत्तर दे कर्ण एवं जयद्रथ का वध करने वाले अर्जुन… इस पर भीष्म ने कहा: अभी भी छलना नहीं छोड़ोगे कृष्ण? अरे, विश्व भले कहता रहे कि ये महाभारत भीम और अर्जुन ने जीता है… लेकिन, मैं जानता हूँ कन्हैया कि… ये तुम्हारी और सिर्फ तुम्हारी विजय है…इसीलिए, इसका उत्तर तो मैं तुमसे ही पूछूंगा कन्हैया…भीष्म पितामह के इतना कहते ही श्री कृष्ण थोड़ा गंभीर हो गए… और कहा: तो सुनिए पितामह… कुछ बुरा नहीं हुआ.. न ही कुछ अनैतिक हुआ… वही हुआ जो होना चाहिए था…इस पर भीष्म ने कहा: यह तुम कह रहे हो केशव? मर्यादा पुरुषोत्तम राम का अवतार कृष्ण कह रहा है? ये छल तो किसी भी युग में हमारे सनातन संस्कारों का अंग नहीं रहा? फिर, ये उचित कैसे हुआ? तब श्री कृष्ण ने कहा: इतिहास से शिक्षा ली जाती है पितामह… लेकिन, निर्णय वर्तमान की परिस्थितियों के अनुसार लिया जाता है… हर युग अपने तर्कों और आवश्यकता के अनुसार अपना नायक चुनता है…भगवान राम में भाग्य में त्रेतायुग आया था जबकि मेरे भाग्य में द्वापर आया इसीलिए, हमदोनो का निर्णय एक सा नहीं हो सकता न पितामह…! इस पर भीष्म ने कहा: मैं कुछ समझ नहीं पाया केशव ? तब श्री कृष्ण ने उन्हें समझाते हुए कहा: राम और कृष्ण की परिस्थितियों में अंतर है पितामह…राम त्रेतायुग के नायक थे…राम के युग में खलनायक भी रावण जैसा शिवभक्त होता था… तब रावण जैसी नकारात्मक शक्ति के घर में भी विभीषण जैसे संत होते थे | तब बाली जैसे नकारात्मक लोगों की पत्नियां भी तारा जैसी विदुषी और अंगद जैसे सज्जन पुत्र होते थे | उस युग में तो खलनायक भी धर्म का ज्ञान रखता था | इसीलिए, राम ने उनके साथ कहीं छल नहीं किया…! लेकिन, मेरे युग के भाग्य में कंस,
दुर्योधन, दुःशासन, कर्ण, जयद्रथ जैसे घोर पापी आये इसीलिए, उनकी समाप्ति के लिए हर छल उचित था पितामह! क्योंकि, पाप का अंत आवश्यक है पितामह… चाहे वो जिस भी विधि से हो…इस पर पितामह ने फिर प्रश्न किया: तो क्या… तुम्हारे इन निर्णयों से एक गलत परंपरा का आरंभ नहीं हो जायेगा केशव? क्या भविष्य तुम्हारे इन छलों का अनुसरण नहीं करेगा? और, यदि करेगा तो क्या वो उचित होगा? इस पर श्री कृष्ण कहते हैं: कलयुग में तो और भी ज्यादा नकारात्मकता आ रही है पितामह…! इसीलिए, कलयुग में तो इतने से भी काम नहीं चलेगा… अब मनुष्य को कृष्ण से भी अधिक कठोर होना होगा… क्योंकि, जब क्रूर और अनैतिक शक्तियाँ धर्म के समूल नाश करने हेतु आक्रमण कर रही हो तो उस समय नैतिकता अर्थहीन हो जाती है पितामह…और, उस समय जरूरी हो जाती है विजय और केवल विजय,इस पर पितामह ने पूछा: क्या वास्तव में धर्म का नाश हो सकता है केशव ? इस पर कृष्ण ने कहा: सब कुछ ईश्वर के भरोसे छोड़कर बैठना मूर्खता होती है क्योंकि, ईश्वर खुद से कुछ नहीं करते बल्कि, वे सिर्फ राह दिखाते हैं आप खुद मुझे भी ईश्वर ही कहते हैं न तो, मैने ही इस युद्ध में कुछ किया क्या ? सब कुछ तो पांडवों को ही करना पड़ा न ? श्रीकृष्ण के इस जबाब को सुनकर भीष्म संतुष्ट दिखने लगे और, धीरे धीरे उनकी आंखें बंद होने लगी परन्तु कुरुक्षेत्र की उस अंधेरी और भयावह रात्रि में जीवन का मूलमंत्र मिल चुका था कि जब क्रूर और अनैतिक शक्तियाँ धर्म के समूल नाश हेतु चारों तरफ से आक्रमण कर रही हो तो उस समय नैतिकता का पाठ आत्मघाती होता है क्योंकि, हमारा अंतिम लक्ष्य विजय होना चाहिए चाहे वो जैसे भी हो ! और, इसका कारण बिल्कुल स्पष्ट है कि जब सामने से अनैतिक और क्रूर शक्तियाँ धर्म के विनाश हेतु चारों तरफ से हर तरह का जुगत लगाकर हमला कर रही हो तो ऐसी स्थिति में नैतिकता और सुचिता का पाठ मूर्खतापूर्ण एवं आत्मघाती होता है |
शिक्षक जीवन का सार्थक सार्थी
किशन लाल शर्मा
बच्चे की प्रथम पाठशाला उसका अपना घर और उसकी प्रथम शिक्षक उसकी माँ ही होती है ,इसमें कोई संदेह नहीं है। बच्चा जो प्रारम्भिक ज्ञान , संस्कार , रीति – रिवाज और उसके जीवन की सुढ़ृड़ नींव उसके घर में ही पड़ती है और उसका असली राज मिस्त्री उसकी माँ होती है। मेरे जीवन के अनंत ,असीमित अवर्णनीय उपकारों का वर्णन करना तो कठिन है , लेकिन उनमें से कुछ का उल्लेख मैं यहां अवश्य करना चाहूंगा। सुबह जल्दी उठना और पूजा -पाठ करना घर का एक नित्य कर्म है। माता जी सप्ताह के सोमवार को श्री गणेश जी ,मंगलवार को हनुमान जी , बृहस्पतिवार को बृहस्पति भगवान , शनिवार को शनि – देव और रविवार को सूर्य देवता की कहानियां नियमित रूप से सुनाती और सुनने के लिए घर में
सबसे छोटा होने के कारण मैं ही उपलब्ध होता था और वह क्रम मेरे अपने घर में आज भी मेरे अस्सी वर्ष
पार करने के पश्चात भी चालू है। सुबह पक्षियों को दाना डालना और उनके पानी के बर्तन को साफ़ करके ताजा पानी डालना। पानी के बर्तन में कौवा कुछ गंद – फंद दाल देता है ; उसकी सफाई आवश्यक है। राजस्थान में मोर – कबूतरों को रोज दाना डालना एक रोज का काम है। नोएडा में आज भी होता ही है। वर्षों पूर्व जब हम कनाडा बच्चों के पास गए तो उनको भी इसकी आदत डाल दी है। कुकी ( बिस्कुट ) खाते समय यदि टुकड़ा जमीन पर गिर जावे तो उस टुकड़े को कूड़ेदान की जगह गिलहरी के खाने के लिए लकड़ी की दीवार पर रख दिया जाता है। साल में मुख्य माता के दो नवरात्र आते हैं। चौथी – पांचवीं कक्षा के दिनों से ही माताजी मुझे सुबह – सुबह उठ कर स्नान के पश्च्यात बगीचे के ताजा पुष्प तोड़ कर पास के दुर्गा माता के मंदिर में चढ़ाने को कहती थीं। मैं घर में सबसे छोटा था तो पकड़ में आजाता था। बाकी तीन बड़े भाई बच जाते थे। मैं आज तिरासी वर्ष की उम्र में यह सत्य कहता हूँ कि मेरे ऊपर दोनों माताओं की असीम कृपा रही है। मैं जीवन में सफल रहा हूँ। यह सब तो घर की प्रारम्भिक शिक्षा के कुछ पाठ हैं,सबका यहां वर्णन करना कठिन होगा। बचपन में बिड़ला मॉन्टेसरी स्कूल मेरी पहली स्कूल थी।अभी देश स्वतंत्र नहीं हुआ था।अंग्रेजी वातावरण था। एक बार इंग्लैंड से मैडम मॉन्टेसरी हमारी स्कूल देखने भी आईं थीं। हमारा स्कूल बहुत अच्छा था और शिक्षा का स्टार भी बहुत अच्छा था। हमारी क्लास टीचर शकुंतला मैडम थीं जो हम बच्चों को बहुत प्यार करती थीं । मेरी क्लास में एक पेशावर की होस्टलर लड़की थी और वह मेरी पक्की दोस्त थी। क्लास में साथ बैठना , खेलना , पढ़ना ये सब हम एक साथ करते। जब भी मैं स्कूल में घर से देर से आता तो वह क्लास के बाहर मेरी प्रतीक्षा करती। जब मैं आ जाता तो हम दोनों एक दूसरे के हाथ पकड़ कर क्लास के दरवाजे पर खड़े हो जाते। जब भी मैडम हमें देखतीं तो मुझे डांटते हुए हमें अंदर बुलाती और मुझ से पूछती मैं स्कूल में देर से क्यों आता हूँ ? जब तक तुम नहीं आजाते ये लड़की क्लास में नहीं आती है। मैडम उसको डांट भी नहीं सकती थी। छोटी बच्ची थी और घर से दूर हॉस्टल में रहती थी। मैंने अपने देर से आने का कारण मेरी माताजी मुझे देर से नाश्ता देती थीं। सुबह – सुबह माता जी के लिए चार – पांच बच्चों का टिफ़िन पैक करना और गर्म नाश्ता भी खिलाना , उसमें मुझे देर हो जाती थी। उस दिन मैडम को ज्यादा गुस्सा आ रहा था। मैडम ने मुझे सजा सुना दी; किशन कल से तुम रोज स्कूल में एक घंटे पहले आएगा और तुम नाश्ता मेरे साथ मेरे रूम में करोगे। लो मेरी तो मौज हो गई। मैडम मुझे हीटर पर सेक कर गर्म – गर्म बटर- ब्रेड- टोस्ट और एक गिलास दूध पीने को देतीं थीं। मेरी क्लास टीचर मैडम के हाथ का नाश्ता मुझे रोज खाने को मिलता था। उस नाश्ते का स्वाद मैं कभी भी नहीं भूल सकता। उसका स्वाद मेरे मुंह में आज तक । कारण ? उस नास्ते के कारण
मुझे समय से पहले स्कूल आने की आदत पड गई। स्कूल – कॉलेज के सालाना फंक्शन में मेरी एक प्राइज तो पक्की होती थी, मोस्ट रेगुलर स्टूडेंट इन क्लास मुझे समय पर पहुंचने की एक अच्छी आदत पड गई। मेरे बच्चों में भी यह आदत है और इसका परिणाम यह है कि हमारी ट्रेन या प्लेन आजतक कभी मिस नहीं हुई। बच्चों को किस प्रकार उनको अच्छा बनने के लिए प्रोत्साहित किया जाए और उनमें कुछ करने का उत्साह जागृत हो; इसमें उनके टीचर का बहुत बड़ा योग दान होता है। एक दिन रविवार के दिन पास की दुकान से हम दोस्तों ने कुछ चॉकलेट – टॉफ़ी खरीदीं। हमारे दो टीचर भी उस दुकान पर उसी समय पहुँच गये। उन्होंने हमसे पूछा इतनी सारी चॉकलेट – टॉफ़ी का क्या करोगे ? हमने कहा हम दुकान लगाएंगे और इन्हें बेचेंगे । हॉस्टल में आकर हमने अपनी दुकान लगा ली और दुकान – दुकान खेलने लगे । थोड़ी देर में घूमते -घामते वोही टीचर हमारी दूकान पर आये और हमारी ख़ुशी के लिए उन्होंने चौगने दामों में हमारी सारी चॉकलेट – टॉफ़ी ख़रीदली। हम खुश। इन पैसों से हम सब कैंटीन से समोसे खरीद कर खाएंगे अब हम टीचर – टीचर खेलने लगे। दूर से हॉस्टल वार्डन सुंदर लाल जी शर्मा हमें देख रहे थे। सर हमारे पास आए. क्योंकि हम अधिक शोर कर रहे थे। हमारी इस टीम का मैं लीडर था तो मुझसे सर कहने लगे , तुम अच्छा भाषण बोल लेते हो। स्कूल में अगले सप्ताह कविता – पाठ की प्रतियोगिता है ; उसमें हिस्सा क्यों नहीं लेते। उन्होंने मेरा
उत्साह बढ़ाया और मैंने पहली बार कविता – पाठ में हिस्सा लिया। कविता थी ; हूँ मैं कितना बड़ा शिकारी; देखो मैंने मख्खी मारी;और मुझे उसमें सांत्वना पुरुष्कार मिला। उस दिन के पश्चात कितने भी बड़े से बड़े फंक्शन में , बड़ी से बड़ी ऑडियंस के सामने स्टेज पर खड़े हो कर बोलने में मुझे कभी भी हिचकिचाहट नहीं हुई। यह एक अच्छे टीचर ,मूर्तिकार , स्वर्णकार की भांति मेरे हुनर को पहचान कर उन्होंने मेरा मार्गदर्शन किया । टीचर को अपने विद्यार्थियों के उस समय के उनके स्तर की तुलना अपने अर्जित उच्च स्तर से नहीं करनी चाहिए। आप ; आप थे ,उस समय। ये ; ये हैं इस समय । ये शिक्षार्थी हैं; ये सीख रहे हैं। इनको पढ़ाओ , सिखाओ ,शिक्षा दो ताक़ीह ये जीवन में कुछ बन सकें; कुछ कर सकें। इनका मार्ग प्रशस्त करो । उन्हें कभी हतोत्साहित न करें। मैंने बी० ए० में हिंदी साहित्य ले लिया। मैं हिंदी को सरल समझ रहा था। बचपन से अंग्रेजी माध्यम से शुरू किया था। हिंदी साहित्य कठिन लगने लगा। कक्षा में लॉस्ट सा लगता था। एक बार दी की क्लास में सर ने एक कठिन शब्द का अर्थ पूछा। हिंदी की क्लास में चार लड़कियां और हम तीन लड़के ही थे। कोई भी उसका उत्तर नहीं दे पाया । जब मेरा टर्न आया तो मैंने उस शब्द का एप्रोप्रियेट अंग्रेजी शब्द बोल दिया। यही क्रम दुबारा चला और फिर कोई भी उसका उत्तर नहीं दे पाया तो मैंने उस शब्द का समानान्तर अंग्रेजी का शब्द बोल पड़ा । थोड़ी देर बाद
जब तीसरी बार मैंने अपने उत्तर में अंग्रेजी का शब्द बोल दिया तो आकाश टूट पड़ा। हमारे प्रोफेसर साहब , डॉक्टर मूल चंद सेठिया , राजस्थान विश्वविद्यालय के हिंदी में गोल्ड मेडलिस्ट को अच्छा नहीं लगा। अपने मोटे काले फ्रेम के चश्मे को उतार कर टेबल पर रखते हुए नाराजगी दिखाते हुए बोले, हिंदी का तो एक शब्द आता नहीं और अंग्रेजी के प्रकांड पंडित बन गए। मुझे बहुत बुरा लगा। मैंने कोई जानबूझकर कक्षा की कन्याओं को प्रभावित करने के लिए अंग्रेजी का शब्द नहीं बोला था । शुरू से मेरा अंग्रेजी माध्यम रहा था
इसलिए अंग्रेजी का शब्द स्वाभाविक तौर पर मुंह से निकल जाता था। क्लास की लड़कियों के सामने मेरी इंसल्ट हो गई थी । उस दिन के बाद मैंने सेठिया जी की क्लास में बोलना ही बंद कर दिया। मनुष्य अगर कुछ करना चाहे तो बहुत कुछ कर सकता है। अब मैंने भी पूरी तरह से ठानली की हिंदी साहित्य को तो अब पूरी तरह से अच्छे से सीखना होगा । बचपन से अंग्रेजी माध्यम से पढ़ कर अब मैं हिंदी साहित्य पढ़ने आया हूँ ; अतः बहुत कठिन लग रहा था। दूसरे प्रोफेसर साहब से मदद मांगी तो वह सहर्ष मेरी मदद के लिए तैयार हो गए। नोट्स आदि लेने के लिए उन्होंने ही मेरी क्लास की हिंदी में सबसे ज्यादा होंशियार एक लड़की से सहायता लेने को कहा। उस लड़की ने मेरी पूरी – पूरी सहायता की और वह तो आज तक भी कर ही रही है। स्वर्ण – पदक प्राप्त सेठिया जी से तो कोई मदद की आशा नहीं की जा सकती थी। उनका स्वर्ण पदक उनकी बैठक की शोभा बढ़ाने के लिए ही था ।
मेरी मेहनत और सबके सहयोग से बोर्ड परीक्षा में मेरे हिंदी में बहत्तर प्रतिशत नंबर आये। परीक्षा परिणाम के पश्चात कैफेटेरिया के पास सेठिया जी मिले। पूछने लगे , किशन लाल !परीक्षा में कितने नंबर आये। मैंने कहा बहत्तर प्रतिशत। उन्होंने पूछा , क्या बियालिस प्रतिशत ? वह मुझे बियालिस प्रतिशत तक ही मापते थे। मैंने दोहराया , नहीं सर ! बहत्तर प्रतिशत। खुश हो कर बोले, अरे वाह किशन लाल तुमने तो कमाल ही कर दिया। वैसे देखा जाए तो मेरे इस कमाल में उनका भी थोड़ा हाथ रहा ही है। यदि वह कक्षा में मेरे ऊपर लड़कियों के समक्ष कटाक्ष नहीं करते तो मैं हिंदी से पन्गा नहीं लेता। टीचर तो आखिर टीचर ही होते है। जीवन भर हम सदैव – सदैव के लिए उनके आभारी रहेंगे। उन्हें कोटि – कोटि प्रणाम।
ग्रह स्थिति सितंबर -2023
ग्रह स्थिति – दिनांक 04 को गुरु वक्री,शुक्र मार्गी,दिनांक 12 को बुध उदय,दिनांक 15 को मंगल अस्त दिनांक 17 को सूर्य कन्या मे
Professor Harvindar Singh ji,professor and vocalist Hindustani classical music,member of RAC at indian council for cultural relation,air classical singer
हिन्दी भाषा के प्रचार प्रसार में शास्त्रीय एवं सरल संगीत की भूमिका
सुनील अग्रहरी
सुनिल – गुरु जी आप पुरे विश्व में हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के प्रचार प्रसार के लिए आते जाते रहते है, मैं आप से समझना चाहता हूँ की हिंदी भाषा के प्रचार प्रसार में शास्त्रीय एवं सरल संगीत की क्या भूमिका है ?
गुरु जी -जिस तरह साहित्य और समाज का आपस में गहरा सम्बन्ध होता है ठीक उसी तरह भाषा और सभ्याचार का आपसी सम्बन्ध होता है , जैसे जैसे जीवन सभ्याचारक होता गया वैसे वैसे भाषा विकास करती गई।
भाषा मनुष्य के बौद्धिक विकास तथा उनके कलात्मक शिखर का प्रतीक है ,हम मनुष्य के विचारों तथा
अनुभवों को भाषा द्वारा ही समझ सकते है।भाषा की अमीरी या प्रफुल्लता से किसी जाति की सभ्यता एवं संस्कृति के उच्च या निम्न स्तर का पता लगता है , जिस देश की भाषा जितनी अमीर होगी उस देश की सभ्यता उतनी ही उच्च स्तर की होगी।
संगीत तथा भाषा का साहित्य परस्पर पूरक है ,दोनों का प्रधान लक्ष्य भाव अभिव्यक्ति है एवं दोनों का आधार स्वर तथा भाषा है, जिन भावों को संगीत द्वारा प्रकट नहीं किया जा सकता वो भाषा द्वारा संभव होते है और जिन भावों को व्यक्त करने में भाषा असमर्थ होती है उन्हें संगीत द्वारा प्रकट किया जा सकता है !
इसी लिए कहा जा सकता है काव्य संगीत का अलंकार है ,संगीत रचना के सम्बन्ध में मान कौतुहल ग्रन्थ में कहा गया है कि श्रेष्ठ गायक तथा रचयिता को व्याकरण, पिंगल , अलंकार , रस , भाव , देशाचार , लोकाचार के साथ शब्द ज्ञान में भी प्रवीण होना चाहिये !
इस दृष्टि से भारतीय शास्त्रीय संगीत का हिन्दी भाषा के प्रचार प्रसार में विशेष योगदान रहा है, भारतीय शास्त्रीय संगीत की एक लम्बी परम्परा रही है ,भारत वर्ष में मूल रूप से संगीत की दो पद्धतियां प्रचलित है , एक तो कर्नाटक या दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति और दूसरी उतर भारतीय संगीत ,दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति का प्रचलन कर्णाटक,तमिलनाडु,तेलंगाना ,आंध्रा ,तथा केरल राज्यों में ही है लेकिन आज सम्पूर्ण भारत के साथ साथ दक्षिण भारत में भी हिंदी गायन की सभी विधाएँ बहुत प्रचलित हो रही है , यहाँ पर भी देखा जाय तो हिन्दी भाषा के प्रचार प्रसार में संगीत का योगदान प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देता है।
सुनील- गुरु जी, कृपया हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति में प्रमुख रूप से गई जाने वाली गायन शैलियों के बारे कुछ बताएं।
गुरु जी -आज सम्पूर्ण भारत वर्ष में हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति में प्रमुख रूप से गई जाने वाली गायन शैलीया ,ध्रुपद ,धमार, ख्याल, टप्पा ,तराना, सादरा ,ठुमरी, दादरा ,सरल संगीत , फिल्म संगीत इत्यादि हिन्दी भाषा को अपने में समाहित किये हुए देश विदेश में सम्मान के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रही है। हिन्दुस्तानी संगीत में ध्रुपद धमार एवं ख्याल के विभिन्न घरानो और उससे सम्बंधित संगीतज्ञों ने अपनी अमूल्य रचनाओं , बन्दिशों द्वारा हिन्दी भाषा तथा भारतीय शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में बहुमूल्य योगदान दिया है , हिन्दुस्तानी संगीत में शास्त्रीय गायन की भिन्न भिन्न रचनाओं बंदिशों की भाषा ,हिन्दी ,उर्दू ,संस्कृत ,राजस्थानी , ब्रज , पंजाबी तथा कुछ क्षेत्रीय भाषाओँ से सम्बंधित रही है लेकिन इन सब में हिन्दी भाषा की रचनाये प्रमुख स्थान रखती है। इन हिन्दी रचनाओं को केवल हिन्दी भाषी संगीतकार ही नहीं अपितु दूसरी भाषा के विभिन्न संगीत गायको में सीना-बा-सीना गाई तथा सिखाई जाती है।ख्याल गायन से
पहले जब ध्रुपद , धमार गायन शैली का बोलबाला था तब भी उसकी समस्त रचनाये हिन्दी भाषा में ही
प्राप्ति होती है तथा आज भी ध्रुपद तथा धमार गायको द्वारा गई जाती है। १८वी शताब्दी के पूर्वार्ध में मुग़ल सम्राट मुहम्मद शाह रंगीले के दरबारी गायको सदारंग तथा अदारंग आदि के सन्दर्भ में विशेषरूप से मिलता है जिन्होंने हज़ारो की संख्या में हिन्दी, ब्रजभाषा , पंजाबी भाषा
में ख्याल की बंदिशों की रचना कर भारतीय शास्त्रीय संगीत विधा द्वारा हिन्दी भाषा की उन्नति में श्रेष्ठ योगदान दिया।
हिन्दी भाषाई रचनाओं को भारतीय साहित्य के प्रसंग में देखे तो इनमे हिंदी काव्य धारा की अमीर परंपरा स्पस्ट रूप से झलकती है। भाषा के पक्ष में ये रचनाये हिन्दी काव्य की महत्वपूर्ण कृतियां है तथा ये हिन्दी भाषायी शास्त्रीय गायन रचनाएँ विभिन्न संगीतकारो द्वारा सदियों का सफर तय करते हुए परम्परा के रूप में आज हमारे तक पहुंची है।
सुनील – गुरु जी ,हिन्दी भाषा के प्रचार प्रसार में फिल्म संगीत एक बड़ा माध्यम बन कर उभरा है , आप इसको किस तरह से देखते है ?
गुरु जी -आज संगीत कलाकारों के परस्पर आदान प्रदान से हिन्दी भाषा में गाये जाने वाले ख्याल जहाँ पर क्षेत्रीय भाषाओं का बोलबाला है वहां तथा अन्य सभी देशों में भी सुनने को मिलने लगे है ।
अगर हम विदेशो में हिन्दी की बात करे तो पकिस्तान ,अफगानिस्तान , बांगला देश , भूटान,नेपाल, मॉरीशस , सूरीनाम त्रिनिदाद, अमरीका ,रूस ,जापान ,चीन, फिजी ,कनाडा , सिंगापोर जैसे देशों में हिन्दी सिखने और बोलने की प्रवृति बढ़ रही है और इन सब के पीछे हिन्दी संगीत का बहुत बड़ा योगदान है , फिल्म संगीत पिछले ८ दशकों से हिन्दी प्रचार प्रसार में एक बड़ा माध्यम बन कर उभरा है , हिन्दी फिल्म के संवाद एवं गीत सारी दुनिया में हिन्दी सिखने में मदद कर रहे है ,लोग जाने अनजाने हिन्दी रूचि अनुसार गीत गुनगुनाते है फिल्म देखते है और कब संगीत के माध्यम से हिन्दी उनके जीवन में प्रवेश कर जाती है उन्हें पता ही नहीं चलता। ये वो लोग हैं जिनको हिन्दी भाषा नहीं आती लेकिन वो हिन्दी गीत आनंद पूर्वक गाते है क्यों की उनको तो उस गीत का संगीत अच्छा लगता है और वो व्यक्ति संगीत के माध्यम से हिन्दी गीत शब्द साथ साथ बोलता है परिणाम,स्वरूप कुछ दिन बाद वो हिन्दी बोलने भी लगता है , ये संगीत का प्रभाव है, महत्वपूर्ण और सर्वसिद्ध बात ये है की हिन्दी भाषा पूर्ण रूप से वैज्ञानिक भाषा है क्यों की हम जो बोलते है वही लिखते है और अगर ये हिन्दी संगीत के साथ होता है तो व्यक्ति चमत्कारिक रूप से संगीत के साथ साथ हिन्दी भी बहुत आसनी से बोलने ,समझने लग जाता है।
ये सारी बाते किताबी नहीं है अपितु ये मेरे संगीत जीवन के सफर के सत्य अनुभव हैं , इस लिए मैं ये कह सकता हूँ की हिन्दी भाषा के प्रचार प्रसार में भारतीय शास्त्रीय एवं सरल संगीत का बहुत महान योगदान
है। अंत में मैं अपने पूर्ण अनुभव से हिन्दी साहित्य संगीत के बारे में एक बात कहना चाहूंगा , उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत की ख्याल शैली जिसका स्वरुप १८वी शताब्दी के पूर्वार्ध में स्पष्ट हुआ, वो आज के समय में संगीत की सभी विधाओं पर छाई हुई है तथा यह शैली भारतीय संगीत की आधुनिकतम शैली है जिसकी भाषा हिन्दी है , ख्याल का शाब्दिक अर्थ है – विचार , ध्यान , कल्पना , भावना , अनुमान आदि जो की मनुष्य को सीधे तौर से उसकी वास्तविकता से जोड़ती है और मेरा विश्वास है जो जोड़ता है वही बढ़ता , इसी लिए हिन्दी भाषा में संगीत का योगदान प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से था , है और अनवरत रहेगा।
सुनील – गुरु जी हमारा ज्ञान वर्धन करने के लिए आप का बहुत बहुत आभार एवं धन्यवाद।
सर्वार्थ सिद्धि योग सितंबर -2023
दैनिक जीवन में आने वाले महत्वपूर्ण कार्यों के लिए शीघ्र ही किसी शुभ मुहूर्त का अभाव हो,किंतु शुभ मुहर्त के लिए अधिक दिनों तक रुका ना जा सकता हो तो इन सुयोग्य वाले मुहर्तु को सफलता से ग्रहण किया जा सकता है | इन से प्राप्त होने वाले अभीष्ट फल के विषय में संशय नहीं करना चाहिए यह योग हैं सर्वार्थ सिद्धि,अमृत सिद्धि योग एवं रवियोग | योग्यता नाम तथा गुण अनुसार सर्वांगीण सिद्ध कारक है|
अधिक जानकारी के लिए संपर्क करे शर्मा जी – 9312002527,9560518227
दिनांक | प्रारंभ | दिनांक | समाप्त |
03 | 10-38 | 04 | 06-04 |
05 | 08-59 | 07 | 06-06 |
10 | 17-06 | 11 | 20-00 |
12 | 06-08 | 12 | 23-01 |
17 | 06-11 | 17 | 10-01 |
21 | 06-13 | 21 | 15-34 |
24 | 13-41 | 25 | 06-14 |
29 | 23-17 | 30 | 21-07 |
ईमानदारी
–राहुल देव सिंह
बात 2003 की है। मेरा होस्टल रूममेट संजीव गुप्ता नाम का एक लड़का था। मैं उसे कुछ खास पसंद नहीं करता था। जैसा कि होता है कि कई बार किसी को पसंद करने या ना करने की कोई वजह नही होती वैसा ही कुछ था। और ये सिर्फ मेरा ही नही बल्कि लगभग हर उस इंसान की कहानी थी जो संजीव को जानता था। शायद इस वजह से भी कभी मेहनत नही की उसे समझने की जब की हम लगभग 1 साल से रूममेट थे।
एक दिन रोज की तरह शाम को मैं कॉलेज से बाहर घूमने निकला तो देखा संजीव सड़क पर अपनी साईकल लिए टहल रहा था। मैंने शिष्टाचार में उससे पूंछा गुप्ता क्या हुआ साईकल लिए पैदल क्यों चल रहा है। उसने भी अपनी बनारस की टोन में बोला बस टहलने का मन था साईकल ले के निकला तो इसे अब कहा छोड़ दू! मैं भी अच्छा बोल के आगे बढ़ गया। कॉलेज के सामने वाली सड़क लगभग खाली ही रहती थी और उसके बगल में एक गाँव था। और दूसरी तरफ खाली जमीन जिस पर सिर्फ झाड़ियां थी। 300 मीटर जा के मुख्य सड़क आती थी। मैं जब मुख्य सड़क पर गया वहाँ कुछ सीनियर मिल गए जो किसी पार्टी में जा रहे थे, मुझे भी पकड़ ले गए। लगभग दो या ढाई घंटे बाद जब में वापस कॉलेज की तरफ आया तो देखा संजीव अभी भी टहल रहा था। मुझे अब लगा कि कुछ तो गड़बड़ है मैंने अपने सीनियर्स से विदा ली और गुप्ता के पास गया और फिर पूंछा कोई दिक्कत है? बोला नहीं यार बस आज
घूमने का मन हैं। गुस्सा तो बहुत तेज आया उसके बोलने के तरीके से पर मेरा रूममेट था वो और उसका कोई दोस्त नही था तब हमारे बैच में, तो अपना अहंकार एक तरफ रख मैंने उसके साथ टहलना शुरु किया। और शायद एक साल में पहली बार हम बिना किसी कारण, काम या स्वार्थ के बात कर रहे थे। हम करीब आधा घंटा सड़क पर टहलते रहे। अचानक से संजीव बोला, यार ये बूढ़ा बहुत देर से इधर उधर भटक रहा हैं चल पूंछते हैं क्या हुआ। मैंने मन ही मन सोचा, सनकी है ये (संजीव) तो यार। वो बुजुर्ग आदमी ने गंदे से कपड़े पहने हुए थे पर उम्रदराज होने के वाबजूद मजबूत शरीर था उनका।
मुझे अजीब लग रहा था पर गुप्ता एक दम से उन बुजुर्ग के पास गया और बोलता क्या हुआ कोई दिक्कत है क्या चाचा? वो आदमी बोला नही बेटा कुछ नही। पर उसकी शक्ल पर लिखा था कि वो बस रोने वाला हैं। संजीव फिर बोला अरे चाचा कोई दिक्कत हो तो बताओ? उस आदमी ने टाल दिया। कुछ खो गया क्या चाचा? बुजुर्ग ने पहली बार सर उठा के हमारी तरफ देखा और बोला बेटा हफ्ते भर की मजदूरी थी। वो एक कारीगर था और घर बनाता था।
कितने थे चाचा? बुजुर्ग बोला क्या फायदा बेटा, अब तक कोई ले गया होगा। पता भी नही कहाँ गिरे। …फिर भी? … (मुझे अच्छे से याद नही पर शायद 1500 रुपये के आसपास थे।)
संजीव ने झट से जेब से पैसे निकाले और बुजुर्ग को दे दिए और वही अपनी गंदी सी टोन में बोला संभाल के रक्खा करो। वहाँ सड़क पे थे, पूरी शाम खराब कर दी मेरी। बुजुर्ग का चेहरा ऐसा था की जैसे जन्नत मिल गयी। और मैं? मुझे तो पहले पहल समझ ही नहीं आया कि ये एक दम से क्या हुआ। बुजुर्ग ने तुरंत पैसे गिने और उनके भाव तो मैं लिख के बया नही कर सकता। बार बार धन्यवाद बोल रहे थे, 100 रुपये निकाल के संजीव को देने लगे वो फिर वही अपने अड़ियल तरीके से बोला, धर लो, और संभाल के रक्खा करो, बहुत मुश्किल से आते है पैसे। और मुझे नही तुम्हारे पैसे, चाहिए होते तो सारे धर लेता।
बुजुर्ग के जाने के बाद मैंने पूंछा तू 3 घंटे से इन पैसों की वजह से सड़क पर टहल रहा था। बोलता है, इस सड़क पर या तो किसी छात्र के पैसे हो सकते थे या फिर किसी गरीब के। मुझे लगा उसे जरूरत हुई तो। पर किसी से पूंछ नही सकता था इसलिए इन्तज़ार कर रहा था कि कोई सही आदमी दिखे!
उस दिन से अपने रूममेट के लिए पहली बार इज़्ज़त आयी। बाद में जब उसके साथ बाते करना शुरू किया तब पता चला वो कितना अच्छा लड़का था बस बिचारे को प्यार से बोलना नही आता था और ना ही दुनियादारी वाली बातें। एक और बात: संजीव गुप्ता हमारी आज की परिभाषा में एक विकलांग था। चलने के लिए पैर में वो स्टील का कैलिपर पहनता था। उसके लिए साईकल ले कर वो 3 घंटे पैदल किसी का सड़क पर चलते हुए इन्तज़ार मैं कभी भूल नही पाया।
चौबारा
मीनाक्षी गर्ग
रविवार का दिन है , सोचा था आज आराम से नीद पूरी करूँगी , पर सो भी नही सकती । सयुंक्त परिवार मे मेरी शादी हो गयी । चारो ओर दरवाजे , सासु मां के कमरे से सुबह सुबह भजनो की आवाज आ रही होती है , जेठानी जी मौहल्ले की बाते जेठ जी को बता रही होती है , देवरानी जी को मायके वालो से हर समय बात करनी होती है ।
पूरे दिन बच्चे शोर करते है , मेरे राघव की पढाई भी खराब हो रही है ।
कितनी बार कहा है कि एक अलग किराये का घर ढूंढ लो । हमारी सारी प्राइवेसी खत्म हो गयी है । कोई भी मुह उठाए कमरे मे चला आता है , हर कोई मुझ पर निगाहे रखता है । तुम सुन रहे हो , मुझे ।
शादी के सात साल से तुम्हे ही तो सुन रहा हूं। अतिन मै रोज रोज की ऐसी जिन्दगी से तंग आ गयी हूं। मुझे कही और मकान लेकर रहना है । मै इस तरह घुट घुट कर नही रह सकती । सीमा अलग रहना आसान नही है । बाबूजी और मां राघव को कितना प्यार करते है । परिवार मे छोटी छोटी बाते होती रहती है । जब सयुंक्त परिवार मे है तो क्या मेरा , क्या तेरा । अतिन,अभी एक हफ्ताह पहले ही समझाया था , फिर अतिन,मै अबकी बार बहुत सीरियस हूं । मेरे बचपन की सहेली पहली बार मुझसे मिलने आयी थी । पूरे घर
को बच्चो ने कुरूक्षेत्र का मैदान बना रखा था । मांजी पुरानी साडी पहने ही मिलने चली आयी उससे ,
जेठानी जी और रेखा की बाते तो खत्म होने का नाम ही नही ले रही थी । कितना खराब इम्प्रेशन पडा मेरी
दोस्त हेमा पर ।
उसका भी परिवार होगा , जहाँ सदस्य होगे वहा शोर तो होता ही है ।
मै इस बार तुम्हारी एक नही सुनूगी , मुझे बस अलग रहना है ।
जो जी मे आये वो करो , मै थक गया हूं , तुम्हे समझा – समझाकर।
(आज आफिस से आते समय किराये का मकान देखती आऊगी , मुझे इस घर मे नही रहना है ।)
(मकान तो बहुत अच्छा है , परन्तु किराया बहुत है , कह रहे थे , बिजली पानी अलग से । बिजली – पानी ? क्या इसका भी खर्चा होता है । मुझे तो पता नही , मैने तो कभी सुना नही , यहां भी कुछ कागज आते तो है , पिता जी जाते भी है कही कुछ जमा करने ।
किराये का कमरा भी तीसरी मंजिल पर है , पर क्या फर्क पडता है , घरवालो की टोका टाकी से तो बचूगी । मेन सडक से बहुत अन्दर जाकर है ,,,,गडडे ही गडडे है , बारीश का पानी इन मे अभी तक भरा है ।
अरे राघव वो तो आज स्कूल से जल्दी आ गया होगा । अतिन की मीटिंग थी , तो आज उन्हे देर ही होनी थी । फोन मे बैटरी भी नही , कैसे पता लगाऊ । आज बारिश भी है , आटो भी कोई नही आ रहे , क्या होगा , मेरा छोटा सा बच्चा घर मे??????)
सीमा बेटा कहां रह गयी थी ?
कुछ नही मां आज कोई आटो नही मिला , इसलिए आने मे देर हो गयी ।
वो राघव।।।।।।।।।
आज राघव बिना बताये घर के बाहर बारिश मे निकल गया । वो तो रेखा ने देख लिया , नही तो भीग कर बीमार हो जाता । थोडी सी हरारत तो लग भी रही है ।
पूरे दिन पहले बडी बहू ने संभाला, फिर रेखा ने । मेरे अकेले के बस मे कहां।
( मै आज ये क्या करने चली थी ,,,,,अलग मकान,,,, आज परिवार मे हूं तो बच्चे को भी छोड जौब कर लेती हूं , सब कितना ध्यान रखते है । कभी कमरे के बाहर ,,,,,,,बिजली- पानी का बिल भी होता होगा , ऐसा ख्याल ही नही आया ।
आज भीगी सडको के साथ-साथ , मेरा अलग रहने का विचार भी भीग गया । अब ऐसा विचार मै कभी मन मे न लाऊगी । दीदी और रेखा मेरे बच्चे का कितना ख्याल रखती है , मै तो सारे दिन ओफिस मे ही रही , मालूम ही नही चला कि कब वह इतना बडा हो गया । अतिन सही कहते है घर चौबारा ही सही घर होता है , घर सदस्यो से होता है ,जहां रौनक होती है । अकेले तो सिर्फ मकान ही होते है ।
भीगी सडको पर आज चलते चलते जीवन का कितना सच समझ आ गया )
स्त्री कीर्ति या वासना
कृष्ण कहते हैं स्त्रियों में मैं “कीर्ति” हूँ…
अगर स्त्री में भी परमात्मा की झलक पानी हो तो वो कहाँ पायी जा सकेगी, “कीर्ति” में, और “कीर्ति” का स्त्री से क्या सम्बन्ध है और “कीर्ति” क्या है?
स्त्री को हम जब भी देखते हैं, खासकर आज के युग में जब भी स्त्री को हम देखते हैं तो स्त्री दिखाई नहीं पड़ती, सिर्फ वासना दिखाई पड़ती है, स्त्री को हम देखते ही एक वासना के विषय की तरह, एक वस्तु की तरह, स्त्री को हम देखते ही ऐसे हैं जैसे बस भोग्य है… जैसे उसका अपना कोई अर्थ अपना कोई अस्तित्व नहीं, और स्त्री को भी निरंतर एक ही ख्याल बना रहता है, वो भोग्य होने का उसका चलना, उसका उठना, उसका बैठना, उसके वस्त्र सब जैसे पुरुष की वासना को उद्दिपीत करने के लिए चुने जाते हैं।
चाहे स्त्री को इस बात की सचेतनता भी न हो चेतना भी न हो के वो जिन कपड़ो को पहन कर रास्ते पर निकली है वो धक्के खाने का आमन्त्रण भी है, शायद धक्का खाके, छेड़े जाने पर वो नाराज भी हो, शायद वो चीख पुकार भी मचाये, शायद रोष भी जाहिर करे, लेकिन उसे ख्याल न आये कि इसमें उसका भी इतना ही हाथ है जितना धक्का मारने वाले का है।
उसके वस्त्र उसका ढंग, उसके शरीर को सजाने और श्रृंगार की व्यवस्था अपने लिए नहीं मालूम पड़ती
किसी और के लिए मालूम पड़ती है, इसलिए उसी स्त्री को घर में देखें उसके पति के सामने तब उसे देखकर विराग पैदा होगा, उसी स्त्री को भीड़ में देखें, तब उसे देखकर राग पैदा होगा, पति इसीलिए तो विरक्त हो जाते हैं, स्त्रियाँ उनको जिस रूप में दिखाई देती हैं, कम से कम उनकी स्त्रियाँ… पड़ोसी की ियों में आकर्षण बना रहता है…
लेकिन जब स्त्री भीड़ में निकलती है तब उसका दृष्टिकोण स्वयं को कामवासना का विषय मानकर चलने का होता है और दूसरे पुरुष भी उसको यही मानकर चलते हैं।
“कीर्ति” का अर्थ है जिस स्त्री में ऐसी दृष्टि न हो, जिसको अंग्रेजी में कहते हैं “ऑनर”, जिसे उर्दू में कहते हैं “इज्जत”, “कीर्ति” का अर्थ है ऐसी स्त्री जो अपने को वासना का विषय मानकर नहीं जीती, जिसके व्यक्तित्व से वासना की झंकार नहीं निकलती तब स्त्री को एक अनूठा सौन्दर्य उपलब्ध होता है वो सौंदर्य उसकी “कीर्ति” है उसका यश है। आज वैसी स्त्री को खोजना बहुत मुश्किल पड़ेगा।
कीर्ति एक आंतरिक गुण है, एक भीतरी सौन्दर्य, उस सौन्दर्य का नाम कीर्ति है जिसे देखकर वासना शांत हो उभरे नहीं, ये थोड़ा कठिन मामला है, लेकिन एक बात हम समझ सकते हैं अगर स्त्री वासना को उभार सकती है तो शांत क्यों नहीं कर सकती!… जो भी उभार करने वाला बन सकता है, वो शांत करने वाला शामक भी बन सकता है।
अगर स्त्री अपने ढंगों से वासना को उत्तेजित करती है, प्रज्वलित करती है, तो अपने ढंगों से उसे शांत भी कर दे सकती है, वो जो शांत कर देने वाला सौन्दर्य है कि दूसरा व्यक्ति वासनातुर हो कर भी आ रहा हो, विक्षिप्त होकर भी आ रहा हो तो स्त्री की आँखों से उस सौन्दर्य का जो दर्शन है, उसके व्यक्तित्व से उसकी जो छाया और झलक है जो उसकी वासना पर पानी डाल दे, और आग बुझ जाए उसका नाम “कीर्ति” है!
“कीर्ति” स्त्री के भीतर उस गुणवत्ता का नाम है जहाँ वासना पर पानी गिर जाता है, कीर्ति का अर्थ हुआ कि जिस स्त्री के पास बैठकर आपकी वासना तिरोहित हो जाए, इसलिए हमने माँ को इतना मूल्य दिया, कीर्ति के कारण माँ को हमने इतना मूल्य दिया, मातृत्व को इतना मूल्य दिया, पुराने ऋषियो ने आशीर्वाद दिए हैं… बड़े अजीब आशीर्वाद कि दस तेरे पुत्र हों और अंत में तेरा पति तेरा ग्यारहवां पुत्र हो जाए और जब तक पति ही तेरा पुत्र न हो जाए तू जानना कि तूने स्त्री की परम गरिमा प्राप्त नहीं की, पति पुत्र हो जाए जिस आंतरिक गुण से जिस धर्म से उसका नाम “कीर्ति” है।
कृष्ण कहते है स्त्रियों में मैं “कीर्ति”… निश्चित ही बहुत दुर्लभ गुण है खोजना बहुत मुश्किल है, अभिनेताओं और अभिनेत्रियों के जगत में “कीर्ति” को खोजना बिलकुल मुश्किल है और मंच पर जो अभिनय कर रहे हैं वो तो कम अभिनेता हैं… उनकी नक़ल करने वाला जो बड़ा समाज है, इमीटेशन का… वो सड़क पर
चौराहों पर अभिनय कर रहे हैं…
इस सदी में अगर सर्वाधिक किसी के गुणों को चोट पहुँची है तो वो स्त्री है क्योंकि उसके किन गुणों का मूल्य है उसकी धारणा ही खो गयी है।
“कीर्ति” का हम कभी सोचते भी नहीं होगे… आप बाप होगे… आपके घर में लड़की होगी… आप ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि इस लड़की के जीवन में कभी कीर्ति का जन्म हो, आपने लड़की को जन्म दे दिया और आप उसमें अगर कीर्ति का जन्म नहीं दे पाए तो आप बाप नहीं हैं सिर्फ एक मशीन हैं उत्पादन की, लेकिन कीर्ति बड़ी कठिन बात है और गहरी साधना से ही उपलब्ध हो सकती है…
जब किसी पुरुष में वासना तिरोहित होती है तो ब्रह्मचर्य फलित होता है और जब किसी स्त्री में वासना तिरोहित होती है तो “कीर्ति” फलित होती है, “कीर्ति” प्रतिरूप है, स्त्री में कीर्ति का फूल लगता है फल लगता है जैसे पुरुष में ब्रह्मचर्य का फूल लगता है। -ओशो
मूल नक्षत्र विचार- सितंबर 2023
दिनांक | शुरू | दिनांक | समाप्त |
02 | 12-30 | 04 | 09-26 |
11 | 20-00 | 14 | 02-00 |
21 | 15-34 | 23 | 14-56 |
29 | 23-17 | 01 | 19-27 |
अधिक जानकारी के लिए संपर्क करे शर्मा जी – 9312002527,9560518227
स्वयं सिद्ध मुहूर्त
स्वयं सिद्ध मुहूर्त चैत्र शुक्ल प्रतिपदा वैशाख शुक्ल तृतीया अक्षय तृतीया आश्विन शुक्ल दशमी विजयदशमी दीपावली के प्रदोष काल का आधा भाग भारत में से इसके अतिरिक्त लोकाचार और देश आचार्य के अनुसार निम्नलिखित कृतियों को भी स्वयं सिद्ध मुहूर्त माना जाता है बडावली नामी देव प्रबोधिनी एकादशी बसंत पंचमी फुलेरा दूज इन में से किसी भी कार्य को करने के लिए पंचांग शुद्धि देखने की आवश्यकता नहीं है परंतु विवाह आदि में तो पंचांग में दिए गए मुहूर्त व कार्य करना श्रेष्ठ रहता है।
अजा ( प्रबोधिनी ) एकादशी
अजा ( प्रबोधिनी ) एकादशी – अजा (प्रबोधिनी) एकादशी भाद्रपद मास में पक्ष की एकादशी को कहते हैं। इस एकादशी को और भी कई नामों से पुकारा जाता है जैसे प्रबोधिनी, जया, दामिनी अजा, इस दिन विष्णु भगवान की उपासना कर रात में जागरण करना चाहिए व्रत के करने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।
अजा एकादशी की कथा – एक बार सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र के सपने में ऋषि विश्वामित्र को अपना राज्य दान कर दिया। अगले दिन ऋषि विश्वामित्र दरबार में गए तो राजा ने सचमुच में अपना सारा राजपाट सौंप दिया। ऋषि ने अपनी दक्षिणा की 500 स्वर्ण मुद्राएं और मांगी दक्षिणा चुकाने के लिए राजा को अपनी पत्नी पुत्र और खुद को बेचना पड़ा। राजा हरिश्चंद्र को डोम ने खरीदा था। उसने हरिश्चंद्र को श्मशान में नियुक्त किया और उन्हें यह कार्य सौंपा कि वह मृतकों के संबंधियों से कर ले कर अंतिम संस्कार करने दे। उन्हें यह कार्य करते हुए जब अधिक वर्ष बीत गए तब अचानक ही उनकी भेंट गौतम ऋषि से हुई राजा ने गौतम ऋषि को अपनी सारी आपबीती सुनाई तब उन्हें इसी अजा एकादशी का व्रत करने की सलाह दी। राजा ने यह व्रत कथा करना आरंभ कर दिया इसी बीच उसके पुत्र रोहतास को सर्प के डसने के कारण स्वर्गवास हो गया। जब उनकी पत्नी अपने पुत्र का अंतिम संस्कार करने हेतु शमशान पर अपने पुत्र कि लाश का वहाँ लेकर आई तो राजा हरिश्चंद्र ने उसे श्मशान का कर मांगा। परंतु उसके पास शमशान का कर्ज चुकाने के लिए कुछ भी नहीं था। उसने अपनी चुनरी का आधा भाग देकर शमशान का कर्ज चुकाया। तत्काल आकाश में बिजली चमकी प्रभु ने प्रकट होकर बोले “महाराज! तुमने सत्य को जीवन में धारण करके उच्चतम आदर्श प्रस्तुत किया है। अतः तुम्हारी कर्तव्यनिष्ठा धन्य है। तुम इतिहास में सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र के नाम से अमर रहोगे। भागवत कृपा से रोहित जीवित हो गया। तीनों प्राणी चिरकाल तक सुख भोगकर अन्त मे स्वर्ग को चले गए।
परिवर्तन एकादशी ( पदमा एकादशी )
परिवर्तन एकादशी को पदमा एकादशी के नाम से भी जाना जाता है | यह लक्ष्मी जी का उत्तम व्रत है | इसे करने से धन की कमी दूर होती है | पदमा एकादशी का व्रत भाद्रपद शुक्ल पक्ष की एकादशी को किया जाता है | भगवान विष्णु छीरसागर में शेष शैया पर लेटे हुए करवट बदलते हैं इसलिए इसे परिवर्तनी एकादशी कहा जाता है | इस दिन लक्ष्मी जी की पूजा करना उत्तम माना जाता है | देवताओं ने अपने राज्य को फिर से पाने के लिए महालक्ष्मी का पूजन किया व अर्चना की थी की हमारा राज्य वापस मिल जाए |
परिवर्तनी ( पदमा ) एकादशी की कथा – त्रेता युग में पहलाद पौत्र बलि राजा था वह ब्राह्मणों का सेवक तथा भगवान विष्णु का उपासक था | इंद्र आदि देवताओं का शत्रु था | देवताओ के साध युद्ध कर उसने देवताओं पर विजय प्राप्त कर ली | इंद्र से इंद्रासन छीन कर देवताओं को स्वर्ग से निकाल दिया | देवताओं को दुखी देखकर व उनकी प्रार्धना भगवान ने वहां वामन भेष धारण करके बलि के द्वार पर आकर भिक्षा मांगते हुए कहा- ‘हे राजन मुझे केवल तीन पग भूमि का दान चाहिए |” राजा बलि ने उत्तर दिया- “मैं आपको तीन लोक दान दे सकता हूं | भगवान ने विराट रूप धारण करके दो पग में पूरी पृथ्वी को नाप लिया जब उन्होंने तीसरा पग उठाया तो राजा बाली ने सर नीचे धर दिया प्रभु ने चरण धर कर दबाया तो बलि पताल लोक में जा पहुंचा | जब भगवान चरण उठाने लगे तो राजा बलि ने हाथ से चरण पकड़ कर कहा- “मैं इन्हें मंदिर में रखूंगा |” भगवान बोले “यदि तुम वामन एकादशी का विधि पूर्वक व्रत करो तो मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूंगा और मैं तुम्हारे द्वार पर कुटिया बना कर रहूंगा |” आज्ञा अनुसार राजा बलि ने वामन एकादशी का व्रत किया और तभी से भगवान की प्रतिमा द्वारपाल बनकर पताल में और क्षीरसागर में भगवान चर्तुमास में निवास करने लगे |
गौमुखासन
गौमुख का अर्थ होता है गाय का मुख अपने शरीर को गाय के मुख के समान बना लेने के कारण ही इस आसन को गौमुखासन कहा जाता है।
गौमुखासन के लाभ – यह आसन साइटिका को ठीक करता है,हाई ब्लड प्रेशर को नियमित रखने मे मदद करता है। नियमित अभ्यास से प्रजनन तंत्र अंगों को सुडौल और मजबूत हो जाते है।,कंधों की जकड़न को ठीक करता है व लचीलापन आता है ।,रीढ़ को लम्बा करता है।,खराब मुद्रा वाले लोगों के लिए फायदेमंद होता है।,तनाव और चिंता कम करता है। पीठ की मसल्स को मजबूत बनाता है।यह पैर में ऐंठन को कम करता है और पैर की मांसपेशियों को मज़बूत बनाता है।
गौमुखासन विधि – एक स्वच्छ और समतल जगह पर चटाई या योगा मैट बिछा लें । सुखासन या दण्डासन में बैठ जाये। अब बायें पैर की एडी को दाहिने नितम्ब के पास रखिए। दाहिने पैर को बाई जांघ के ऊपर से लेकर जाते हुए इस प्रकार स्थिर करे की घुटने एक दुसरे के ऊपर हो जाए । अगर आप इसका नियमित अभ्यास करें, तो यह थकान, तनाव और चिंता को कम करेगा। अभ्यास की अवधि हमे धीरे-धीरे बढ़नी चाहिए ।
बिना टिकट यात्री
जोगी राम नाईक
एक भाई को ट्रेन में बिना टिकट चढ़ने की आदत थी। कभी पकड़े नही गये इसलिये हौंसला भी बढ़ता गया। अब वो किसी की भी सीट पर जाकर जबरदर्स्ती बैठ भी जाता था।
टोकने पर हाथापाई पर उतर जाता था।
ऐसे ही दिन दिन भाई का हौंसला बुलंद होता गया।
एक दिन एयर कंडीशन बोगी में चढ़ गया बिना टिकट।
और जाकर एक सज्जन की सीट पर बैठ गया।
सज्जन ने मना किया तो आदतन शुरु हो गया,पहले भला बुरा कहा,फिर धमकी देने लगा,उससे भी काम नही चला तो हाथापाई पर उतारु हो गया।
उस सज्जन ने फोन कर पुलिस को बुला दिया।
पुलिस के सामने भी हेकड़ी बघार रहा था।
तब तक टीटी भी आ गया।
उन्होने आते के साथ सबसे पहले उनसे टिकट मांगा।
अब टिकट तो उनके पास था नही तो आँय बांय बकने लगा।
टीटी ने फ़ाइन की बात की, पुलिस ने अरेस्ट करने की बात की तो कहने लगा,
“जब मै स्टेशन में घुसा तब आप लोग कहाँ थे?
जब मै ट्रेन में चढ़ा तब क्यों नही रोका?
जब यहाँ आकर बैठा तब तो आप लोगों ने मना नही किया।
अब ये आदमी हमसे झगड़ा करने लगा तो आप लोग टिकट के बहाने इसकी तरफदारी में लग गये?
अब मेरे पास पैसा नही है और जाना इसी ट्रेन में है तो क्या आप हमको ट्रेन में से फेंक दिजियेगा?
कहाँ का न्याय है ये।
*हमें पहले नोटिस दीजिए।*
हम वर्षों से बिना टिकट चल रहे थे तब आपको क्यों नही दिखा?
अब आप खाली इस आदमी का पक्ष लेने के लिये फ़ाइन लगाने लगे?”
अब उसकी हिम्मत देख,
दो चार बिना टिकट यात्री और आ गये और उसके पक्ष में पूरा हंगामा शुरु कर दिया।
ये क्या तरीका है?
यह ट्रेन हमारी है,हम वर्षो से इसमे़ बिना टिकट सफर कर रहे हैं,इसमें सफर करने में हमने पसीना बहाया है।
हमारे पुरखों ने इसे खून से सींचा है।
आप लोग बेटिकट यात्रियों से भेदभाव करते हो।
अगर सीट देनी तो सबको देनी होगी,पर तुम भेदभाव करके केवल टिकट वालों को सीट देते हो।
आप लोग तानाशाही कर रहे हैं।
ये आदमी झगड़ा नही करता तो आप आते क्या?
आप खाली इस आदमी के सपोर्ट में ये सब कर रहे हैं। घोर अन्याय है ये।
गरीबों को तो कोई देखने वाला नही है।
यह गरीबों के साथ अंन्याय है।
तभी कुछ छुटभैये राजनीति बाज भी वहां आ गये।
वे कहने लगे रेल की सीटों पर पहला हक बिना टिकट यात्रियों का है।
रेलवे जानबूझ कर टिकट वाले और बिना टिकट यात्रियों के बीच नफरत फैलाने के लिए यह सब कर रहा है।
हम यह नफरत का खेल नहीं होने देंगे।
हम रेलवे से ऐसा नियम बनवाऐंगे कि पहले बिना टिकट यात्रियों को सब सीटे दी जाऐंगी,अगर कोई सीट खाली रही तो वही सीट टिकट लिये यात्री को मिलेगी।
टीटी और पुलिस की समझ में नही आ रहा था कि बिना टिकट यात्री को फ़ाइन और अरेस्ट करने की बात करके उन्होने गलत किया या सही? “आज देश में यही नैरेटिव सैट करने की कोशिश की जा रही है।”
हनुमान प्रसाद पोद्दार का नाम गीता प्रेस स्थापित करने के लिये भारत व विश्व में प्रसिद्ध है। गीता प्रेस उत्तर प्रदेश के गोरखपुर नगर में स्थित है। उनको प्यार से भाई जी कहकर भी बुलाते हैं।
स्क्वायर डायमंड क्रासिंग
रेलवे में नागपुर को पहचान दिलाई है डबल डायमंड क्रॉसिंग
दिवेश रईकवार
नागपुर को आम जनमानस संतरा नगरी के नाम से जानता है और बचे कुचे लोग हल्दीराम के नमकीन के नाम से …लेकिन रेलवे में नागपुर को पहचान दिलाई है डबल डायमंड क्रॉसिंग ने जिसको देखने विदेशी अभियंता भी खिंचे चले आते हैं।अगर आप रेलवे में हैं और रेलवे के इस धाम के दर्शन नहीं किए तो आपकी रेलसेवा अधूरी समझी जाएगी।यह देश के लिए सेंटर प्वाइंट है।आइए संक्षिप्त परिचय में जाने की क्या है यह विश्व प्रसिद्ध डबल डायमंड क्रॉसिंग……
डायमंड क्रासिंग:जब एक रेल लाइन दूसरे रेल लाइन को क्रास करते हुए निकल जाती है। भले ही वह समान प्रकार गेज वाली हो अथवा किसी दूसरे प्रकार का गेज वाली हो। यदि 90 डिग्री पर क्रास करते हैं तो गणितीय रूप से उसे स्क्वायर डायमंड क्रासिंग की परिभाषा दी जाती है। वर्तमान के चारों डायमंड क्रासिंग का निर्माण 1924 में हुआ था। वर्ष 1989 में इसका विद्युतीकरण सम्पन्न हुआ। इसके क्रासिंग के ऊपर बिजली तारों(OHE) को विशेष रूप से बनाया गया है। जिससे की ये आपस में टकराकर शार्ट न
करें। उत्तर की ओर दिल्ली से आने वाली और साउथ में चेन्नई जाने वाली डबल लाईन को नागपुर स्टेशन पर प्रवेश करने से एक किलोमीटर पूर्व दो दिशाओं में बांटा गया है। जिसमें से डबल लाईन वाला एक भाग नागपुर स्टेशन चला जाता है जबकि दूसरा डबल लाईन वाला दूसरा भाग नागपुर गुड्स यार्ड में चला जाता है। इस पर केवल मालगाड़ी का परिचालन होता है। यही मालगाड़ी वाली डबल लाईन, मुम्बई से हावड़ा जाने वाली ट्रंक रुट वाली डबल लाईन को क्रास करती है। जिसके कारण यहाँ एक साथ 4 डायमंड क्रासिंग बनते हैं। हावड़ा वाली मेन लाईन हावड़ा के तरफ चली जाती है। जबकि मालगाड़ी वाली दोनों लाईन नागपुर गुड्स यार्ड होते हुए अजनी “ए केबिन”में जाकर में मेन लाईन में जुड़ जाती है।जो अब आटोमैटिक सेक्शन बन चुका है।आगे की कहानी के लिए हमें चमन पिरास के पूरे दो डब्बे खाने होंगे क्योंकि हम इंजन के नियर हैं न कि इंजीनियर पटरी काट कर क्रॉसिंग बनाना समझ आता है लेकिन ऊपर हाय वोल्टेज बिजली के तारों को कैसे क्रॉस में समायोजित किया यह बात रहस्य से कम नहीं।
कृष्ण जन्माष्टमी, जिसे जन्माष्टमी वा गोकुलाष्टमी के रूप में भी जाना जाता है, एक वार्षिक हिंदू त्योहार है जो विष्णुजी के दशावतारों में से आठवें और चौबीस अवतारों में से बाईसवें अवतार श्रीकृष्ण के जन्म के आनन्दोत्सव के लिये मनाया जाता है।
दिनांक | भारतीय व्रत उत्सव सितंबर – 2023 |
2 | कजजली तीज |
3 | श्री गणेश चतुर्थी व्रत |
5 | चंद्र छठ , हल छठ |
6 | श्री कृष्ण जन्माष्टमी स्मार्त,कालाष्टमी |
7 | श्री कृष्ण जन्माष्टमी वै |
8 | गोगा नवमी ,नन्द महोत्सव ,मंगला गौरी पूजन |
10 | अजा एकादशी व्रत |
11 | वत्स द्वादशी |
12 | भीम प्रदोष व्रत |
13 | मास शिव रात्री |
14 | कुसहोटपानी अमावस्या |
17 | संक्रांति पुन्य |
18 | वाराह जयंती,हरी तालिका तीज |
19 | सिद्धि विनायक व्रत, श्री गणेश जन्मोत्सव ,कलंक चतुर्थी ,चंद्र दर्शन निषेध |
21 | सूर्य 6,बलदेव 6,मेला ब्रज मण्डल |
22 | ज्येष्ठा गौरी आवाहन ,राधा अष्टमी,महालक्ष्मी व्रत प्रारंभ |
23 | दुर्गा अष्टमी ,भागवत सप्ताह प्रारंभ |
24 | रामदेव मेला नवलदुर्ग |
25 | पद्मा एकादशी व्रत स्मार्त |
26 | पद्मा एकादशी वै ,वामन जयंती |
27 | प्रदोष व्रत |
28 | सत्य व्रत, अनन्त चतुर्दशी |
29 | पूर्णिमा श्राद्ध,भागवत सप्ताह समाप्त |
चौघड़िया मुहूर्त
चौघड़िया मुहूर्त देखकर कार्य या यात्रा करना उत्तम होता है। एक तिथि के लिये दिवस और रात्रि के आठ-आठ भाग का एक चौघड़िया निश्चित है। इस प्रकार से 12 घंटे का दिन और 12 घंटे की रात मानें तो प्रत्येक में 90 मिनट यानि 1.30 घण्टे का एक चौघड़िया होता है जो सूर्योदय से प्रारंभ होता है|
तात तीनि अति प्रबल खल काम क्रोध अरु लोभ।
मुनि बिग्यान धाम मन करहिं निमिष महुँ छोभ॥ भावार्थ:- हे तात! काम, क्रोध और लोभ- ये तीन अत्यंत दुष्ट हैं। ये विज्ञान के धाम मुनियों के भी मनों को पलभर में क्षुब्ध कर देते हैं॥ |
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