स्व आधारित भारत
स्व आधारित भारत यह विषय बहुत व्यापक है, उसको पूरा अगर समझना है तो एक व्याख्यान में बात पूरी नहीं होती है और एक व्यक्ति के बोलने से पूरी नहीं होती| यह तो जानकार और समझदार व्यक्तियों ने जैसे कहते हैं कि कभी नैमिषारण्य में बैठकर ऋषि मुनियों ने बहुत लंबे समय तक विचार किया और कलयुग के प्रारंभ में भारत के समाज के लिए, राष्ट्र के लिए एक दिशा निश्चित की| उस प्रकार एक अंग्रेजी में जिसको कहते हैं कॉन्क्लेव, कम से कम 10-15 दिन का| ऐसा होने पर इसके सभी पहलुओं पर सम्यक विचार हो सकता है परंतु ना आपके पास इतना समय है ना मेरे पास इतना समय है और केवल हम नोएडा में बैठकर इसका विचार करें ऐसा नहीं है| पूरा भारत इसका विचार करे तो पूरे भारत के लोग चाहिए| इसके कुछ मूल बातों पर प्रकाश डालना और सामान्य दिशा का निर्देश करना इतना ही हो सकता है, वही करने का मैं प्रयास करूँगा| स्व आधारित भारत आजकल इसकी चर्चा चल पड़ी है पहले इसको आवश्यक माना नहीं जाता था और ऐसा भी था कि जो जो भारत का है, वह कुछ काम का नहीं है और भारत का था जो, वह हज़ार साल पुराना है, आज के समय में बिल्कुल उपयोगी नहीं है| हमको कुछ लेना चाहिए तो दूसरो से ही लेना चाहिए,नकल करना चाहिए, सब रेडीमेड है उधर से इधर लाना लेकिन यह सामान्य नियम है किसी की उन्नति होनी है चाहे राष्ट्र की हो व्यक्ति की हो या समाज की हो उसकी उन्नति उसके अपने प्रकृति पर आधारित रही तो उन्नति कही जाती है, नहीं तो वह तमाशा तो होता है और तमाशा भी कभी कभी देखने लायक होता है तो सर्कस में बंदर साइकिल चलाते हैं, हाथी फुटबॉल खेलता है| यह मनुष्य के करने के काम है,बन्दर भी करता है हाथी भी करता है तो अजूबा तो है और हम पैसा देते हैं टिकट खरीदकर देखने के लिए भी जाते हैं| परन्तु कोई ऐसा कहे हाथी का विकास हो गया, बन्दर का विकास हो गया, ऐसा नहीं है| हाथी की उन्नति जंगल में है, बंदरों की उन्नति जंगल में है, शहरों में उनकी उन्नति नहीं उनकी मजबूरी हो सकती है| इसी बात पर स्वतंत्रता के पहले स्वतंत्रता के लिए जो 1857 के बाद प्रयास चले, 1857 में एक अखिल भारतीय प्रयास हुआ वह विफल हो गया लेकिन उसने चिंतन को तो गति दी| लोगों ने बहुत चिंतन किया और सब इसी निष्कर्ष पर थे अलग-अलग दिशाओं में सोच रहे थे कदाचित परस्पर विरोधी भी बोल रहे थे लेकिन प्रयोजन एक ही था| स्व को ठीक से पहचानो अपने मूल को पहचानो, एक धारा यह थी| अपने स्व में गड़बड़ हुआ है उसमें सुधार करो, एक धारा यह थी| अपने स्व को राजनीतिक दृष्टि से अभिव्यक्त करने की आवश्यकता है उसके लिए प्रबोधन आवश्यक है, यह तीसरी धारा थी और एक बार प्रयास विफल हुआ तो क्या हुआ बार-बार इसे ऐसे ही प्रयास से हम मुक्त होंगे और स्वतंत्र होंगे यह चौथी धारा थी। सब लोग अपने स्व पर पक्का रहकर ही विचार करना चाहते थे और इसीलिए सभी ने भारत की अपनी प्रकृति के आधार पर भारत कैसा हो इसका चिंतन दिया है, उसमें जो भारत की प्रकृति के अनुसार विश्व से जो अच्छा है लेने लायक है वह लेने से किसी की मनाही नहीं है परंतु उसको अपने प्रकृति में ढालकर लेना है अपनी शर्तों पर लेना है| जो अच्छा है वही लेना है अंधानुकरण नहीं करना है।
यह बात सभी विचारों की सामान्य बात है बाकी विचार तो हर एक के अलग-अलग हो ही सकते हैं। स्व का यह महत्व है भारतवर्ष की उन्नति तब कहीं जाएगी जब भारतवर्ष अपने आधार पर कुछ करके दिखाएगा और हम यह देख रहे हैं स्वतंत्रता के बाद अभी तक हमारा विकास नहीं हुआ है ऐसी बात नहीं है जो भी हुआ उसमें हमने जो बातें आयात की जैसी थी वैसी की वैसी स्वीकारी लागू की, उसके कारण हमारी प्रतिष्ठा नहीं बनी।
चीन ने 1962 में आक्रमण किया| मराठी के प्रसिद्ध लेखक थे पुरुषोत्तम लक्ष्मण देशपांडे, अच्छे व्यंग्यकार थे और अच्छा चिंतन उनके लेखन से मिलता है वह अमेरिका में प्रवास पर गए थे। चीन से लड़ाई हुई थी और भारत ने अमेरिका से उस समय मदद माँगी थी लड़ने के लिए , देश का संरक्षण करना है, हमारे पास मदद नहीं है।
आप दीजिए लेकिन इसकी संभावना अमेरिका में कैसी हुई तो एक नकलची के कार्यक्रम में स्टैंड अप कॉमेडियन जिनको कहा जाता है ऐसे कार्यक्रम में वह कॉमेडियन उसने ऐसा सीन दिखाया कि कैनेडी साहब खड़े हैं और पंडित नेहरू जी की विशिष्ट वेश पहनकर एक व्यक्ति आता है और वह कहता है कैनेडी चाचा कैनेडी चाचा देखो ना चीन मार रहा है आप कुछ करो हमको बचाओ और लोग हँसे।
यह बैठे थे श्रोतावृंद में और यह पानी पानी हो गए लज्जा के कारण। उन्होंने लिखा है अपने प्रवास वर्णन का अनुभव एक अपूरवाई नाम का ग्रंथ है उसमें लिखा है तो यह हमारी प्रतिष्ठा थी उस समय भी हम वीरता पूर्वक लड़े।
एक मर्यादा के बाद अंदर आने की हिम्मत चीन ने भी नहीं की अगर चीन अपने तरफ से युद्ध बंदी नहीं करता और आगे बढ़ने का दुस्साहस करता तो उसको उसके फल चखने लगते ऐसी स्थितियाँ उस समय थी| वो जीत रहा था तब तक उसने युद्ध किया बाद में बंद किया लेकिन हमको पहचाना नहीं गया| उसके बाद शास्त्री जी ने जब जवाब दिया इक्कारपुर में जब इंदिरा जी ने जवाब दिया। 2014 के बाद हमने घुसकर मारा तो , हमारी प्रतिष्ठा सारी दुनिया में बढ़ गई क्योंकि हमने अपने बलबूते कुछ किया हम जब अपने बलबूते कुछ करते हैं तो हमारी प्रतिष्ठा बढ़ती है और जब हम अपने प्रकृति के आधार पर विश्व को कुछ देते हैं तो फिर हमारी कृति बढ़ती है| स्व का आधार बहुत महत्वपूर्ण बात है क्योंकि स्व ही प्रगति की प्रेरणा है| हम कौन हैं यह पहचान गए तो हमारा पराक्रम पुरुषार्थ जागता है और हम चाहते हैं कि जो हम हैं उसको शोभा देने वाले आज बने तो हनुमान जी को जब तक मालूम नहीं था वह कौन है तब तक वह वहाँ बैठ रहे थे बैठ गए थे सागर तल पर घुटने में मुंडी डालकर कोई जा नहीं सकता मैं भी जा नहीं सकता| जामवंत जी ने उनको स्वयं का परिचय दिया तो केवल उस वर्णन को सुनकर स्मृति जागृत होने पर पर्वताकार हो गए और सागर लाँघ कर गए सीता जी का पता लगाया|
अशोक वन का विध्वंस किया लंका को पूरा देख लिया उसके भेद प्राप्त किए| वहाँ विभीषण जैसे अपने दोस्त है यह भी पहचान लिया और रावण के दरबार में खरी खरी राम जी की सुनाई और राक्षसों के मन में राम के सामर्थ्य की धाक जमा कर वापस आए। जब तक वह परिचय नहीं हुआ था तब तक यह कर्तृत्व नहीं प्रकट हुआ था। स्व पुरुषार्थ की प्रेरणा है, स्व प्रगति का कारक है और स्व ही दिशा दिखाता है कैसे प्रगति होना चाहिए क्योंकि दशा हर एक की अलग-अलग रहती है| दशा अलग है तो दिशा अलग होती है प्रगति की , पाश्चात्य राष्टों में लोग कम है तो यंत्रों पर ज्यादा जोर रहेगा, हमारे यहाँ पर प्रचंड जनसंख्या है हर हाथ को काम देना एक समस्या है तो हम जितने भी सरल सीधी टेक्नोलॉजी लेंगे, ज्यादा रोजगार देने वाला तंत्र लेंगे उतना हमारे लिए अच्छा है| अमेरिका की नकल करने से यहांँ नहीं होगा कुछ तो स्व ही प्रगति की नीति की दिशा निर्धारित करता है और इसलिए स्व आधारित भारत यह आवश्यकता है भारत को बढ़ने के लिए, भारत आगे बढ़ेगा तो हम आप सुखी होंगे हमारा अपना जीवन खड़ा करने के लिए हम कुछ भी परिश्रम करें हमको सुख या तो मिलेगा नहीं मिला तो भी वह स्थाई नहीं होगा सदैव एक तलवार टंगी रहेगी यह कब चला जाएगा| कश्मीर के पंडितों ने अपने सुख के लिए कुछ करने की कसर नहीं छोड़ी । अच्छे गुणवान लोग हैं, भले लोग हैं लेकिन समय रहते समाज की चिंता वैसे नहीं हुई उसके फल चखने पड़ते हैं|
तो भारत का बड़ा होना हमारी अपने प्रगति के लिए भी अनिवार्य बात है और दूसरी तरफ भारत का बड़ा होना इसकी आज दुनिया को आवश्यकता प्रतीत हो रही है| विश्व के चिंतक अब प्रगट रूप से कह रहे हैं क्योंकि 2000 साल में बहुत प्रयोग किया सब प्रकार के उपाय कर लिए ईश्वर न मानने वाला स्वीकर्ष विचार स्वीकार करके देखा|
ईश्वर मानने वाला विचार स्वीकार करके देखा , सामुदायिकता को प्रथम स्थान देने वाला विचार स्वीकार किया व्यक्तिगत व्यक्तित्व स्वतंत्रता को पहला स्थान देने वाला विचार स्वीकार किया लेकिन सब करने के बाद कुछ न कुछ तो हुआ लेकिन दुख से मुक्ति नहीं मिली| मन में संतोष समाधान नहीं आया| मनुष्य मनुष्यता को भूलकर और नीचे गिरते चला गया| अब समृद्धि भी नहीं रहेगी पर्यावरण बिगड़ जाएगा तो पृथ्वी पर जीवन रहेगा कि नहीं रहेगा|
यही समस्या है सारे उपाय करके देख लिए फल कुछ निकलता नहीं तो एक भूला बिसरा उपाय भारत के पास था ऐसी इतिहास बताता है जिसके बलबूते भारत ने दस हजार साल खेती की लेकिन जमीन वैसी की वैसी उपजाऊ आज भी है जिसके बलबूते ढाकी की मलमल जैसा वस्त्र जो आज के कंप्यूटर भी वैसा नहीं बना सकते ऐसे भारत ने बनाए। जहाज को सागर में लॉन्च करने की जो टेक्नोलॉजी हमारे पास थी वह दुनिया के पास नहीं है और जब कभी अड़ जाते हैं| एक बार अड़ गए थे विशाखापट्टनम की गोदी में, जहाज जा ही नहीं रहे थे आगे तो पूरी वह पटरी बदलने पड़ेगी, खर्चीला काम है तो कोई था प्राचीन गणित का अध्ययन करने वाला उन्हीं लोगों में से, वहांँ के शास्त्र जन्य लोगों में तो उसने कहा कि पके हुए केले उसे पटरी पर डालो तो पके हुए केले लाकर उस पटरी को घिसे तो वह पटरी ऐसी बन गई कि एक ही प्रयास में जहाज पानी में चला गया| ऐसी कई बातें हैं दुनिया को मालूम हो गया है जब कोरोना चला कि इनकी दादी माँ के बटुए में जो काढ़ा बनता है वह दुनिया को बचा सकता है। अब तक तो आयुर्वेद का नाम नहीं ले रहे थे अब आयुर्वेद का नाम सारी जगह गूँज रहा है।
योग को उपेक्षा से देख रहे थे जादू टोना कहते थे अब सारी दुनिया 21 जून को योग दिवस मनाती है।
यह उनको ध्यान में आ गया है कि भारत के पास है और भारत हमको दे लेकिन भारत देने लायक बने पहले, तो यह होगा, तो भारत के उन्नति की प्रतीक्षा सारी दुनिया कर रही है और भारत की उन्नति यानि भारत के स्व के आधार पर की हुई उन्नति उस स्व का आधार ही भारतीय लोगों का पुरुषार्थ जगाएगा| इसका भी अनुभव हम ले रहे हैं।
जैसे-जैसे अपने तंत्र पर हम लोग आगे बढ़ रहे हैं वैसे-वैसे समाज में भी उद्यम जाग रहा है और इसलिए स्व आधारित भारत यह हमारी अपनी, हमारे देश की और संपूर्ण विश्व की आज की आवश्यकता है लेकिन स्व क्या है भारत का , हरेक राष्ट्र का स्व क्या होता है, हमारे यहा ऐसा माना गया है कि राष्ट्र बनते हैं बनाए नहीं जाते। बनाए हुए राष्ट्र टूट भी जाते हैं। जो प्राकृतिक ढंग से बने हैं वह चलते रहते हैं तो
यूनान मिस्र रोमा सब मिट गए जहाँ से
कुछ बात है कि मिटती नहीं हस्ती हमारी
वह बात क्या है वह बात यही है कि हम बने हैं क्यों बने हैं क्योंकि एक मर्यादित भू भाग में हमारा जीवन सदियों से चला है प्राकृतिक दृष्टि से चारों ओर से सुरक्षित भारत है। जब यह भारत भूमि भरतखण्ड, भारतवर्ष यह सब आ गया तो अब लोग क्या थे इतनी प्रगति नहीं थी विश्व में , खेती करते थे उस पर सब लोग जीते थे हमारे यहाँ प्रचंड विस्तारित भूमि , भरपूर भूमि, जनसंख्या उस समय कितनी रही होगी पता नहीं हमने जितना सुना 35 करोड़ सुना है
वंदे मातरम में त्रयोशत कोटि ऐसा शब्द पहले था आजकल हम कोटि कोटि ऐसा कहते हैं 33 करोड़ उस समय और भी कम रही होगी भू भाग तो इतना ही था बल्कि और ज्यादा था श्रीलंका जुड़ी थी बहुत प्राचीन काल में अफ्रीका भी जुड़ा था तब से हम चल रहे हैं आज की गणना को भी ले ले तो हमारा अपना उदय जो इतिहास ने देखा उसके पीछे इतिहास की आँखें बंद है इतिहास का जन्म हुआ कब और उसने हमको देखा राष्ट्र के रूप में ही देखा इतना प्राचीन हमारा राष्ट्र है जो लोग कहते हैं कि हमको एक राष्ट्र बनना है, बनना नहीं है।
हिंदू राष्ट्र बनाओ ऐसा हमको कहते हैं बनाना क्या है , वह है बस उसको पहचानना है। राष्ट्र हमारा सनातन राष्ट्र है पहले से है और एक राष्ट्र है, ऐसी ही विविधता थी उस समय भी, ऐसी ही अनेक भाषाएँ थी|
ऐसे ही अनेक प्रकार के पंथ, संप्रदाय, खान-पान, रीति रिवाज क्योंकि ऐसा ही भूगोल था। इधर हिंदुकुश से लेकर आरा काल तक हिमालय को बीच में लेते हुए आज के, आज के नाम व्यवस्था ( nomenclature) के अनुसार लेकिन पुराना तो यह पूरा ही हिमालय माना जाता था।
तो हिमालय के दोनों बाहों में समुद्र पर्यंत की जो भूमि थी वह पहले से विविध प्रकार का भूगोल सब प्रकार की आबोहवा ऐसी ही थी और इसलिए यह सब अनेक बन गया और इसलिए अथर्ववेद में कहा गया
जनं विभ्रति बहुधा विवाचसम् नानाधर्माणां पृथिवीमयथौकसम्।।
सहस्रं धारा द्रविणस्य मे दुहां ध्रुवेव धेनुरनप्रस्फुरन्ति
अनेक धर्मों के मानने वाले,अनेक भाषाओं के बोलने वाले ऐसे लोग इस पृथ्वी पर सुख संतोष से रहे, सहस्र धाराओं से दुग्ध प्रदान करने वाली धेनु के समान हे पृथ्वी माता! हम सबको शस्य प्रदान करो। यह प्रार्थना है पृथ्वी सूक्त में उसी पृथ्वी सूक्त में वर्णन भारत का है लेकिन प्रार्थना पूरे विश्व के लिए भी है और हमने कहा है कि पूरा विश्व सुखी हो क्योंकि हम सब लोग कौन है
माता भूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्या:
यह जो भूमि है जो आधार देती है वह धारण करती है इसलिए वह भूमा भूमि है और यह हमारा विस्तार करती है| हमको फैलाती है यह विस्तीर्ण है| उसके पृष्ठ भाग पर हम सब लोग रहते हैं इसलिए वह पृथ्वी है। तो हम पुत्र उसके हैं, यहाँ कोई अलग बाउंड्री सीमा वगैरह का उल्लेख नहीं है क्योंकि इतनी समृद्धि थी तो हमको किसी को अलग मानने की जरूरत ही नहीं पड़ी , झगड़ा करने की जरूरत ही नहीं पड़ी , सब लोग खाते हैं कोई आ गया भूला भटका बाहर से आना संभव ही नहीं था उस समय सुरक्षित थे हम, इसलिए युद्ध भी नहीं करने पड़े।
और कोई आ गया तो आओ भाई आप भी बसो, आप भी खाओ इतने सब लोग खा रहे हैं आप भी खाओ भाषा अलग तो हमारी पहले से ही बहुत-बहुत सारी है। देवी देवता वह भी हमारे यहाँ बहुत सारे हैं| संपूर्ण विविधताओं को स्वीकार कर उसका सम्मान करने वाला, संपूर्ण विश्व के सुख की मंगल कामना करने वाला, सारे विश्व को अपना कुटुंब मानने वाला एक समाज उसे समय से यहाँ अपनी सारी विविधताओं को लेकर खड़ा हुआ और वह विविधता है आज तक चल रही है, वह स्वभाव आज तक चल रहा है। हमारा स्व वह स्वभाव है लेकिन आज तक चल रही है यानी कैसे, समय के कितने उतार-चढ़ाव आए होंगे, कितने हिम प्रताप, हिम प्रलय हमने देखे, कितनी बाढ़ देखी, कितनी नदियाँ सूख गई, यह तो चलते रहता है और पिछले हजार दो हजार वर्षों में आक्रमण भी बहुत हुए। महाभारत काल में कालेवन का उल्लेख मिलता है। यहाँ के राजाओं ने अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए उसको प्रश्रय दिया है देश में, तब से चल रहा है| यह भी हुआ है और शक, हूण, यवन, कुशान, इस्लाम, ब्रिटिश यह सब लोग आए और पुर्तगीस सब आए कौन नहीं आया । सब ने आक्रमण किया लेकिन यह सब पचा कर आज फिर से हम खड़े हैं उस स्व के आधार पर, क्योंकि हमारी शक्ति थी।वह शक्ति क्यों थी क्योंकि हम संगठित थे। विविधताओं को स्वीकार करके एक बनकर चलना अलग-अलग सब है। मत भी, विचार भी अलग-अलग है। फिर भी
समानो मंत्र समिति समानी समान मनः सहज चित्तमेषा।
विनोबा जी कहते हैं कि इस मंत्र में सर्वत्र समय समानो मंत्र समिति समानु समानः मनः लेकिन चित्त जब आता है तब सह कहा है क्योंकि ऋग्वेद कार जानते थे कि चित्त सबके एक नहीं हो सकते। हर एक का अपना चित्त होता है अपनी पृष्ठभूमि है। अपना जीवन है। उसका अपना अनुभव है। उसके अनुसार चित्त मानस बनता है। उसको एक करने की झंझट नहीं करनी चाहिए। वह होने वाला नहीं, क्योंकि वह प्रकृति विरुद्ध है। लेकिन एक बात हो सकती है कि अपने अलग-अलग चित्तों को लेकर हम सब लोग मिलकर चलेंगे। यह हम तय कर सकते हैं।आजकल उसको प्रजातंत्र कहते हैं।
आई डू नॉट एग्री विद यू। बट आई विल डिफेंड यू आर राइट टू डिफर विद माय लाइफ!
तुम्हारे अलग मत को मैं नहीं मानता। मेरा मत अलग है लेकिन अपने अलग मत रखने का तुम्हारा जो अधिकार है उसके बचाव में मैं प्राणपन से लड़ूँगा। यह जो बात है वही सच है, यह होता है। उसको हमने स्वीकार किया और रहें अलग-अलग मत कुछ भी, हम टूट कर नहीं चलेंगे। हम एक होकर भी चलेंगे और इसका आधार क्या है, इसका आधार यह सांस्कृतिक प्रयोजन है। विविधता में एकता नहीं, एकता की ही विविधता, इस सत्य को हमारे पूर्वजों ने पहचाना –
एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति
अलग-अलग रास्ते होते हैं। वह सब एक ही जगह जाते। यह भी उन्होंने पहचाना और इसलिए मिलकर चलो, समन्वय से ही चलो| सारी दुनिया को इस आधार पर जोड़ो क्योंकि सारी दुनिया को पता चलना चाहिए कि अस्तित्व में एकता है, विविधता उसी का आविष्कार है। तो इसलिए हमारे लिए प्रयोजन बन गया। विवेकानंद कहते थे। हर एक राष्ट्र का अपना एक प्रयोजन होता है। उसके लिए उसका उदय होता है। वह प्रयोजन समाप्त होते हैं। वह विलीन हो जाता है। भारत का प्रयोजन अक्षय है। उसकी विश्व जब तक है तब तक आवश्यकता पड़ने वाली है। वह प्रयोजन क्या है, यही जो है सब को जोड़ने वाला, सबका एक संबंधित व्यवहार उत्पन्न करके सब को उन्नत करने वाला, धर्म है धर्म यानि पूजा और खानपान नहीं।
धारणा धर्म इत्याहु अभ्युदय निश्रेयस सिद्धिः स धर्मः ।
कर्तव्य भी धर्म है और स्वभाव भी धर्म है। सबको जोड़ना, सबको उन्नत करना, सर्वे अपि सुखिनः संतु। यह करने के लिए समाज को भौतिक सुख और पारलौकिक सुख दोनों की साधना करनी पडे़गी। वह दोनों की साधना उत्तम रूप से करवाने वाला और जिसका जैसा स्वभाव है, उसको समझते हुए प्रत्येक का विश्व के प्रति, राष्ट्र के प्रति, समाज के प्रति, अपने गाँव के प्रति, अपने परिवार के प्रति व्यक्तिगत रूप से कर्तव्य निर्धारित करने वाला वह धर्म है। भारतवर्ष धर्मप्राण देश है। दुनिया को समय समय पर दुनिया का खोया हुआ संतुलन वापस लाने वाला, दुनिया की अतिवादिता को हटानेवाला, दुनिया को सुखी, सुंदर दुनिया बनाने वाला, सबकी उन्नति करने वाला, तमस से प्रकाश की ओर ले जाने वाला, मर्त्य जीवन से अमरत्व की ओर ले जाने वाला, ऐसा जो होता है तत्व, अनुशासन, वह धर्म है और धर्म सारी दुनिया को देना और इसलिए संविधान सभा में डॉक्टर अंबेडकर साहब ने भी यह कहा। संविधान देते समय उनके दो भाषण हैं। बहुत पढ़ने लायक है। वास्तव में हमारे लिए एक निर्देश है। उसमें उन्होंने कहा कि राजनीतिक स्वतंत्रता और आर्थिक स्वतंत्रता का प्रावधान तो हमने कर दिया और समता का| लेकिन सामाजिक समता जब तक नहीं आती, तब तक यह होता नहीं। लिबर्टी, इक्वालिटी, फैटरनिटी। यह फ्रांस के राज्य क्रांति की तत्वत्व रही है। उससे मैंने स्वातंत्र्य, समता, बंधुता नहीं ली। मैंने तथागत बुद्ध के तत्वज्ञान से इसको लिया है। भारत की मिट्टी में से वह मुझे मिला है।
दुनिया में स्वतंत्रता और समता एक साथ कभी आती नहीं। स्वातंत्र्य रहना है तो समता नहीं रहती और समता लाना है तो स्वतंत्रता को संकुचित करना पड़ता है। दोनों एक साथ मिले, इसका एक ही प्रावधान हो सकता है। बंधुता चाहिए। और बंधु भाव को ही मैं धर्म कहता हूँ। वास्तव में वही है| धर्म एक सत्य पर आधारित है कि सारा विश्व एक है। परमात्मा को, आत्मा को या यह भी न कहो दूसरा कुछ कह़ो, उसको जड़ मानो चेतन मानो लेकिन एक तत्व है। उसी से शब्द आया है आत्मीयता। आत्मीयता यानि अपनापन।
अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम् | उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् |
यह जो अपनापन है, वही धर्म है। वह धर्म सारी दुनिया को आज देखिए आप दुनिया में जो कुछ चल रहा है,उसके मूल में क्या है? अपनापन नहीं है। यही बात है। अपनापन नहीं है। इसलिए मेरा स्वार्थ पूरा होना चाहिए। मेरे स्वार्थों को पूरा करने के लिए तुमको मिट जाना चाहिए। तुम नहीं मिटते तो मैं मिटाऊँगा। तुम अलग दिखते हो इसलिए तुम हमारे नहीं हो। इसलिए हम तुमसे उपयोग करा सकते हैं तुम्हारा उपयोग कर लेंगे। कुछ हमारे काम के नहीं तो उपेक्षा करेंगे। और आड़े आते हो तो मार देंगे। सारे विश्व की अशांति का, कलह का नैतिकवाद का मूल यही पर है स्वार्थ और भेद और दुर्भाग्य से, भारतवर्ष भी पिछले दो हजार वर्षों से कहिए कब से पता नहीं। लेकिन धीरे धीरे इसी से ग्रसित हो गया, उससे बाहर आकर, अपना जो मूल स्वत्व है,परोपकार, सेवा, निस्वार्थ बुद्धि और घट घट में राम है। सब हमारे है कोई हमारे लिए पराया नहीं। इस पर आधारित एक रचना खड़ी करें। स्व आधारित भारत। यह हमारा स्व है , हमको दुनिया को धर्म देना है। इसलिए इस धर्म पर आधारित, वैभव संपन्न और बल संपन्न भारत क्योंकि बिना शक्ति के सत्य को पैर नहीं होते। सत्य स्थापित करना है तो शक्ति चाहिए और इसलिए हमारी यह जो संस्कृति है, जो धर्म के मूल्यों के आधार पर धर्म के मूल्य चार है सत्य, करुणा, शुचिता, तपस यह शाश्वत है। यह नहीं बदलता। उसके आधार पर जो आचरण है, वह देश, काल, परिस्थिति के अनुसार बदलता है। स्मृतियाँ, शास्त्र उस आचरण के बनते हैं, वह भी देश, काल, परिस्थिति के अनुसार बदलने चाहिए लेकिन धर्म के चार पैर शाश्वत है, उस पर पक्का रहकर इसकी चौखट में जो आता है, वह करना हमारा आचरण है। उस धर्म को देना है, तो उस धर्म को पहले हमें जागरूक करना पडे़गा। लेकिन सारे विश्व को उसके आधारित तंत्र का बोध देने के लिए भारतवर्ष को उसके आधार पर खड़ा होना पडे़गा। यह हमारा स्व है और उस पर आधारित भारत यानि क्या, तो भारत एक समाज, एक राष्ट्र है। देश तो है ही लेकिन देश केवल जमीन नहीं होता। देश यानि भूमि वह तो है ही लेकिन उसके साथ जल, जन, जंगल, जानवर, यानि वहाँ की मानवता, वहाँ का बाकी जगत। आज की भाषा में, अंग्रेजी में कहें तो ह्यूमैनिटी, बायोडायवर्सिटी और इकोलॉजी पूरा मिलकर जीवन बनता है। जीवन मेरा अकेले का नहीं होता। जीवन मेरे परिवार का भी होता है। मेरे जीवन का अटूट हिस्सा है। मेरे जीवन को बनाने वाला वही है। परिवार जिस प्रदेश में, गाँव में, जनपद में है, वहाँ का परिणाम लेकर बनता है। वह जनपद अपने देश का परिणाम लेकर बनता है और इसलिए जन , जन यानि लोगों का जमावड़ा नहीं है। जब अनेक लोग, अनेक प्रकार के लोग, एक समान गंतव्य लेकर इकट्ठा आते है और उसके लिए जीते है, तब वह समाज कहलाता है। हमारे सामने समान गंतव्य है क्या? है आज की हमारी स्थिति में भी सुप्त है या प्रकट है? वह बात अलग है। कृति में है या केवल मन में है? वह बात अलग है। लेकिन वह है। वह गया नहीं है। वह जीवित है। अनुकूल परिस्थिति में फूट पड़ता है। वह क्या है? वह वही है।
कैसे जीना? भारतवर्ष में सबका एकमत है। अब बड़े से बड़े धनवान व्यक्ति को मिलो और किसी रिक्शा वाले को शहर में मिलो या खेत में मजदूरी करने वाले की बुढ़िया माता को जाकर देहात में पूछो। जीना क्यों है तो भाई, उसको मिलना है, भगवान पाना है, इसके लिए जीना है| कमाना पड़ता है, जीवन चलाने के लिए| कमाई साथ जाती है। क्या? पैसा वैसे की क्या बात है? पैसा तो मुर्गी भी नहीं खाती है। अपने यहाँ वाक्य चलते हैं बाहर नहीं सुनने को मिलेंगे। इसके बारे में सारे भारतवर्ष में सबका एकमत है। कुछ ने ग्रंथ पढ़े नहीं हैं। किसी ने प्रवचन सुने नहीं है। यह सदियों से स्वभाव बना है और वो अभी भी चल रहा है, क्योंकि समय की कसौटी पर हर बार खरा उतरा है।
तो यह जो अपना स्वभाव है, उसको लेकर हमको एक वैभव संपन्न राष्ट्र खड़ा करना है, तो राष्ट्र के इस घटक को ठीक करना पडे़गा। चाणक्य ने बताया है राष्ट्र के घटक क्या क्या होते हैं। पहला और मुख्य जो अपने यहाँ मानते जनपदवती भूमि। समाज जब किसी भूमि में उसको अपना सम्बन्धी मानकर रहता है, माता मानकर रहता है, उसके भाव विश्व का, वह भूमि अविभाज्य भाग हो जाती है। गीत आपने सुना। इस देश के बिना तो जीवित नहीं रहेंगे, ऐसी भावना रही थी। हम रहे या न रहे भारत यह चलना चाहिए। यह जब रहता है, तब वह मनुष्य समुदाय, जो समाज है, वह जनपद बन जाता है। जिस भूमि में ऐसा जनपद है, उस भूमि में उन लोगों का राष्ट्र है, उसके आधार पर बनता है। यह आत्मा है। उस आत्मा की अभिव्यक्ति राष्ट्र के बाकी सारे अंगों में होनी चाहिए। बाकी सारे अंग कौन से भूमि, भूमि कहने के बाद जल, जंगल, जानवर आ गए। इसकी भक्ति करने वाला जनपद यानि समाज है। इस आत्मा को शरीर, मन, बुद्धि के रूप में प्रकट होना है। समुच्चय बनाकर एक जीवंत शरीर, कर्म करने वाला, पुरुषार्थ करने वाला, वह बनना है। तो उसके अंग है राज्य, बल, दुर्ग, कोश, अमात्य और श्रुत।
इसकी एक व्यवस्था है। वह व्यवस्था करनी चाहिए। उस व्यवस्था को चलना चाहिए। उस व्यवस्था ने ही सारे को व्यवस्थित चलाना चाहिए। उसका नाम उस व्यवस्था का नाम है राज्य। पहले राजा थे। आज प्रजातंत्र है। लेकिन राज्य शासन, प्रशासन, कार्यपालिका, न्यायपालिका, और भी समय समय पर दूसरे स्तंभ आते हैं। यह सब जो है, वह राज्य है। उस राज्य को चलाने की दंड शक्ति देनेवाला उसका बल है। सारे फोर्सेस होमगार्ड से लेकर तो सीमा पर खड़े अपने सैनिक तक, गुप्तचरी करने वाले एजेंसियों तक, सब इस देश को सुरक्षित रखने के लिए, इस देश में व्यवस्था बना कर रखने के लिए जो कुछ चलता है वो है बल और इस बल के आधार पर सब प्रकार की सुरक्षा निर्माण करने के लिए जो कुछ हुआ है वो है दुर्ग। दुर्ग यानि किला। पहले किले बनते थे अब किले तो बनते ही है, तारबंदी होती है, फोर्टिफिकेशन होता है, बंकर बनते है ये सब होता है। लेकिन उसके साथ साथ हर एक जीवन के पहलू का तंत्र है जिसे हम कहते हैं खाद्य सुरक्षा, खाद्यान्न सुरक्षा, हम कहते हैं आर्थिक सुरक्षा, सीमा सुरक्षा, सब प्रकार की सुरक्षा अंतर्गत और बाह्य, यह बल है, दुर्ग है।फिर समाज का भौतिक जीवन तो चलता है, अर्थ काम के चारों ओर, समाज का पेट भरना चाहिए, समाज को काम मिलना चाहिए। समाज को रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य, शिक्षा, अतिथि सत्कार मूलभूत गृहस्थ की आवश्यकताएँ पूर्ण होनी चाहिए। उसके आधार पर चलता है, तो उसके लिए काम पुरुषार्थ है और यह चल सके इसलिए साधन संपन्नता देने वाला अर्थ पुरुषार्थ है। ये दोनों आते हैं कोष में, तो देश की अर्थ नीति, दंडनीति और वार्ता आती है राज्य, बल, दुर्ग में और अर्थनीति आती है यह दोनों अर्थ, पुरुषार्थ सिद्ध करने वाली और इसको अच्छा चलाने वाले आमात्य चाहिए। समाज अगर ठीक है तो आमात्य भी ठीक रहते हैं और विश्व में अपनी मित्रता चाहिए। अधिकाधिक मित्र जोड़ो , श्रुत इस सारे तंत्र को यह सब जगह ऐसा ही है, परन्तु इसको अपनी दृष्टि से खड़ा करना, जैसे एक उदाहरण देता हूँ, एक अमेरिका के एंबेसेडर हमको मिले, आकर मिले, आँखें मिली। इसलिए बाद में उनको बहुत झेलना पड़ा और छोड़ भी दिया उन्होंने। लेकिन मिले तो वह हमको बताने लगे कि अमेरिका और भारत नेचुरल फ्रेंड है। बिल्कुल है भारत तो सबको अपना फ्रेंड मानता ही है।
उन्होंने कहा कि बहुत सारे मिलकर काम हम कर सकते हैं। सिक्योरिटी कंसर्न हमारे बहुत है। आप तो बिल्कुल बीच में है, हम दूर है, लेकिन हमारे भी वही कंसर्न है तो उसमें हम मिलकर चल सकते, मैंने कहा बिल्कुल चल सकते है। उनका कहा ‘प्रोवाइडेड द अमेरिकन इंटरेस्ट आर प्रोटेक्टेड।’ मैंने कहा आपके लिए स्वाभाविक है ऐसा सोचना। फ़िर उनका आर्थिक तो बहुत बड़ा सहयोग हो सकता है। भारत में टैलेंट है, ऊपर आ रहा है, पुरुषार्थ हो रहा है। बहुत फायदा हो सकता है। अमेरिका के पास तंत्र है सारा, मिलकर चलना चाहिए। बिल्कुल चलना चाहिए। फिर उन्होंने कहा, प्रोवाइडर द अमेरिकन इंटरेस्ट आर प्रोटेक्टेड। हर बात में सहयोग की बात करते थे और आगे कहते थे, प्रोवाइडर अमेरिकन इंटरेस्ट आर प्रोटेक्टेड लेकिन हमारी दृष्टि बिल्कुल अलग, है ना? हम लीबिया में जाते हैं, अपने लोगों को निकालते हैं, बाकी सब देशों के लोगों को निकालते हैं। हम किसी के पक्ष में नहीं जाते। शांति, समाधान, युद्ध छोड़ो इस पक्ष में, दोनों को, दोनों से बात करते है और जो सहयोग करना है, दोनों को इस दृष्टि से, वह हम करते हैं। मध्यपूर्व में जू, यहूदी और बाकी इनका कोई झगड़ा होगा। हमारी दोनों से दोस्ती है और प्रामाणिकता से दोनों का अनुभव है। हम प्रामाणिक है। श्रीलंका से फायदा लेने के लिए चाइना बहुत मदद करता है, बाद में उनकी भूमि हड़प लेता है लेकिन संकट में आने पर हमारी बहुत अच्छी पट रही है। ऐसा नहीं होने के बाद भी उसको सारी मदद कौन करता है? दुनिया में अकेला भारत करता है।
यह हम करते हैं। यह हमारे स्व की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। उसके आधार पर यह सब कर रहा तो कैसे होगा? बड़ा लंबा प्रबंध होगा। एक एक प्रकरण एक एक ग्रंथ हो सकता है, और जैसा मैंने कहा कि एक एक कॉन्क्लेव हो सकता है लेकिन हम क्रमशः थोड़ा थोड़ा देख रहे कि दिशा क्या होगी। तो जनपदवती भूमि, तो यह पक्का है कि स्व आधारित भारत खड़ा करने के लिए भारत भक्ति यह अनिवार्य बात है। आपकी कोई भी पूजा हो, आपकी कोई भी भाषा हो, आपका कोई भी प्रांत हो, कोई भी जाति हो, कुछ भी हो आप,और ऐसे होने के कारण ये छोटे छोटे इंटरेस्ट भी बनते हैं, स्वार्थ भी बनते हैं, स्वार्थ शब्द बुरा लगता है लेकिन इस स्वार्थ में यह भी है कि आवश्यकता नहीं, वे बनते हैं लेकिन इस सबसे ऊपर भारत है। इस सबसे ऊपर भारत का हित, सबसे ऊपर भारत माता, भारत की भौगोलिक एकात्मता, अखंडता, सुरक्षा। हम कटते चले गए, पिटते चले गए, लुटते चले गए। इसको पूर्णविराम देकर अब हमको बढ़ना और जो वास्तविक भारतवर्ष है जिसमें इस संस्कृति का आज भी प्रभाव है, जो वास्तविक भारतवर्ष है जिसमें इसको भूलकर उल्टा चलने के प्रयास के कारण लोग दुख भोग रहे हैं, उसको फिर से रिक्लेम करना।अपना राष्ट्रीय विजन होना चाहिए लेकिन राष्ट्रीय विजन होगा, तब होगा। उसके लायक अपना समाज चाहिए तो समाज में भी भारत सर्वोपरि, बाकी सब हमारी जो है विविधताएँ हैं, भेद नहीं है। हम एक समाज है। एक राष्ट्र है। हमारी एक मातृभूमि एक मातृभूमि की संतान है। हम सब भाई है। भाई जैसा व्यवहार करेंगे। छुआछूत नहीं चलेगी। ऊपर नीचे, ऊँचनीच नहीं रहेगा। रहेगा, आंदोलन रहेंगे। हमको यह मिलना चाहिए वह मिलना चाहिए यह चलते समाज का झगड़ा, दो फाड़ होकर एक दूसरे के सामने खडे़ रहना, यह नहीं होगा।
यह भाव बनना चाहिए समाज का, जनपदवती भूमि में यह सबसे पहली महत्व की बात है इसको करना और यह समाज में करना है, तो सरकार इतना कर सकती है। शासन, प्रशासन, कार्यपालिका, न्यायपालिका इसके विपरीत न जाए, बने उतना इसके अनुकूल अपना हाथ लगाए लेकिन यह करना तो समाज को ही करना पडे़गा और हमारे जैसे प्रबुद्धजनों को करना पडे़गा। हमको इस प्रकाश में आज की सारी अपनी समस्याओं को देखना पडे़गा और उसके बारे में जनमत उसी प्रकाश में बनाना पडे़गा क्योंकि हमारी सारी समस्याओं का फिर से वही इलाज है, सद्भावना, दूसरा नहीं है। व्यवस्था कुछ समस्याओं का इलाज नहीं कर सकती, अनुकूल हो सकती है, वह बनानी भी चाहिए परंतु व्यवस्था बनने के बाद भी स्वार्थ, अगर है भेद अगर है, तो व्यवस्था को बिगाड़ने वाले लोगों की कमी नहीं रहती। यह स्वार्थ और भेद हमारे मन से चला जाए और हम लोग सद्भावना से ही एक दूसरे का विचार करें। यह जब करेंगे, तब ये सारी समस्याएँ अंतर्धान हो जाएँगी। उस सद्भावना के आधार पर सबके लिए अच्छा लगे, ऐसा रास्ता हम ढूँढेंगे। इतने ही हमारी समृद्धि है। इतना हमारा पुरुषार्थ है। यह हम कर सकते हैं लेकिन सद्भावना को लाना पडे़गा। देशभक्ति ही सर्वोपरि, एक माता के पुत्र हम सहोदर भाई है वो भाईचारा। सद्भाव बंद हुआ और सामाजिक जीवन का एक अनुशासन है। वह अनुशासन उसको हमारे संविधान कानून में भी बनाया है, उसमें भी बताया और कुछ हमारे संस्कारों से चलता आ रहा है, उसका पूर्ण पालन करना, ऐसा जब समाज बनता है, तो उसको कहते हैं स्वतंत्र देश का देशभक्ति वाला समाज। भगिनी निवेदिता ने कहा है कि नागरिक और सामाजिक अनुशासन पालन करना यह स्वतंत्र देश में रोज प्रकट होने वाली देशभक्ति है।
जब हम स्वतंत्र नहीं थे, तो परकियों के विरुद्ध आंदोलन कर रहा हर मार्ग से उनको निकाल देने का प्रयास करना। यह देशभक्ति थी। आवश्यक नहीं थी। हमने की, अब स्वतंत्र हो गया। अब क्या करना? अब तो कोई शत्रु नहीं। सब अपने है, तो अपनत्व के आधार पर, परस्पर व्यवहार में और स्वतंत्र देश के तंत्र के अधीन। तंत्र ने बताया वह अनुशासन, उसका पालन करना, उसमें आंदोलन करना मान्य है, तो आंदोलन करेंगे, लेकिन सार्वजनिक संपत्ति का विध्वंस नहीं करेंगे। यह सब संस्कारों की बात है। सरकारें इसके अनुकूल हो सकती है, अनुकूल नियम बना सकती है, लेकिन पालन करना, करवाना और स्वभाव बनाना, यह हम लोगों का काम है। समाज के प्रबुद्ध वर्ग का काम है। महाजनों का काम है। लोग यह सब विद्वत्ता नहीं जानते हैं।
महाजनो येन गतस्य पंथा ऐसा है। यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः। स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥
नेताओं सहित सबका यह काम है। समाज में इस आचरण का पुरस्कार करें। इसके विपरीत आचरण को शब्द से, कृति से, विचार से बिल्कुल प्रोत्साहन न दे। करना पडे़गा। फिर दूसरी बात आती है। राज्य, बल , दुर्ग, शासन, प्रशासन, न्यायपालिका, कार्यपालिका। भारत के इस वर्ग को समझकर नियम बने, आचरण बने। तंत्र रूखा नहीं होता है। रूखा होना नहीं चाहिए। समाज से अपनेपन का व्यवहार होना चाहिए। लेकिन जो तंत्र बना अपने देश में, स्वतंत्रता के पहले अंग्रेजों ने बनाया, आज का तंत्र, पहली बार आधुनिक तंत्र वही था। उन्होंने बनाया लेकिन वह तंत्र उन्होंने क्यों बनाया? भारतवर्ष को चलाने के लिए बनाया। भारतवर्ष को विकसित करने के लिए नहीं बनाया। उनको रेवेन्यू चाहिए था। उनको यहाँ का माल चाहिए था। माल चाहिए तो जनता सामान्य अवस्था में नीचे या संतुष्ट नहीं रहनी चाहिए। कानून व्यवस्था बनी रहनी चाहिए और कुछ यातायात के साधन आदि विकास होना चाहिए। उनके रेवेन्यू भारत की संपत्ति को प्राप्त करने के लिए, भारत पर वर्चस्व बनाए रखने के लिए जितना आवश्यक था, उतना उन्होंने किया और इसके लिए भारत की जनता बँटी रहे, ताकि एक होकर कुछ कर न सके। इसके भी प्रावधान उस तंत्र में है। वो हमने अभी तक बदले नहीं, न हमने यह प्रजा को चलाने वाला तंत्र बदलकर प्रजा के पालन करने वाला तंत्र खड़ा किया। पूरी तरह नहीं हुआ। अभी प्रयास चल रहे हैं। होगा, लेकिन यह करना पडे़गा, नहीं तो, हमारे साथी थे, अभी कुछ महीने पहले गुजर गए, जाने के पहले एक बार मैं उनके घर गया था, यानी बीमार नहीं थे, अचानक चले गए। तो सामान्य रूप से चाय पीने के लिए गपशप चली। तो कहाँ से आ रहे हैं? तो बोले मैं मेरी पेंशन का चेक लेकर आया। इस महीने की पेंशन मुझे प्राप्त हो गई। अच्छा है। इसमें बड़ी बात कौनसी? आप तो हर महीने लेते होंगे। बोले पिछले महीने नहीं मिली। क्यों नहीं मिली? तो बोले, मुझे ये क्वेरी आई है आफिस की ओर से, इस महीने आप जीवित है, इसका सर्टिफिकेट आपने दिया है। आपको हमने इस महीने की पेंशन भेजी है। पिछले महीने आप जीवित थे। इसका सर्टिफिकेट नहीं है। प्रत्यक्ष, मैंने सुना है वह अतिश्योक्ति तो नहीं करेंगे। अब यह अगर बेरूखी हो तो कैसे वह जन अभिमुख बनेगा? सब जगह ऐसा नहीं है। बहुत से प्रशासकीय अधिकारी आज घुल मिलकर और वास्तव में जनहित का काम कर रहे हैं लेकिन तंत्र में कुछ गड़बड़ है। ऐसा सुनता हूँ। बहुत साल पहले की बात है। वह अभी चल रहा होगा तो बड़ी मुश्किल है। एक सज्जन आए केरल से, अटल बिहारी वाजपेयी को मिलने। अटल जी तब थे, राज्य में बीजेपी नहीं थी। कोई बीजेपी थी ही नहीं। जनसंघ को भी सत्ता में आ गए, इसका सपना भी कोई देख नहीं सकता था। लेकिन अटल जी एक जुझारू सांसद के रूप में प्रसिद्ध थे। तो जनसंघ के ऑफिस में गए। उन्होंने उसको हमारे ऑफिस में भेज दिया। क्यों भेजा? पता नहीं। मैं नागपुर में प्रचारक था। वह आए दोपहर में, मैं पुलिस ऑफिसर हूँ केरल का, यहाँ पर इनकम टैक्स ट्रेनिंग कॉलेज है। उसमें डेपुटेशन के लिए ट्रेनिंग के लिए आया हूँ। मुझे अटल जी से मिलना है। मैंने कहा यह वह ऑफिस नहीं है। उसने कहा, गया था। उन्होंने कहा कि इधर से जाओ। मैंने पूछा क्या काम है आपको? उसने कहा देखो, मैं केरल से हूँ, केरल में हम सब लोग लुंगी पहनते है।ऑफिस में वगैरह भी। मैंने पहले तो ऐसा भी होता था। कोट, टाई पहनकर, नीचे लुंगी। ऐसा होता है सामान्य और भद्र सभी में। वैसे वहाँ की हवा में वही अनुकूल है। अब मैं वहाँ से नागपुर आया तो कोई ज्यादा फर्क नहीं गर्मी में। लेकिन मैं क्लास में बैठा पहले दिन तो इंस्ट्रक्टर ने मुझे कहा अंत में कि आपका यह ड्रेस यहाँ नहीं चलेगा। आप कोड के अनुसार ड्रेस पहनकर आइए। मुझे लगा, यहाँ ठीक है। नागपुर में लुंगी पहनना आम बात नहीं है। वह तो घर में पहनते, बाहर नहीं पहनते। तो मैं खादी भंडार में गया, कुर्ता, पैजामा, वगैरह सब लेकर आ गया, वह पहनकर गया, तो उसने कहा, आपने सुना नहीं, सुना आज बदलकर पहनकर आया हूँ? उन्होंने कहा अपने कोड में जो है, वह कोड क्या है? कोड है, सूट, बूट, टाई। अब नागपुर की गर्मी में, इस वेश में, अगर आप बैठेंगे, तो आपका वैसे ही उबल उबलकर आलू बन जाएगा। लेकिन यह लागू है। अभी इंग्लैंड में ठीक है वहाँ ठंडी रहती है। जाड़ा ऐसे रहता है कि ये सब पहनना पड़ता है। हम लोग भी जाड़े में यहाँ पहनते ही है ना? लेकिन गर्मी में यह भारत का वेश भारत की हवा के अनुकूल है। हमारे अधिकारियों को यह नहीं हो सकता। मैंने ऐसा भी सुना कि ड्रिंकिंग एडिकशन सिखाते हैं। ठीक है, विदेशों में जिनको जाना पड़ता है, उनको आपने ट्रेंड किया। आप लो मत। लेकिन आप समझो कि ऐसे ऐसे रिवाज है लेकिन कोई एक चंद्रपुर, गडचिरोली जैसा डिस्ट्रिक्ट संभालने वाला उसको क्या आवश्यकता है? हमारे यहाँ यह भद्र नहीं माना जाता? तो तंत्र जो है, उसको भारत के स्व के आधार पर पुनर्रचना की आवश्यकता है। इतना ही उसमें करना पडे़गा। बाकी सब है जो हमारे शासक है। प्रशासन में व्यक्ति है, कार्यपालिका, न्यायपालिका अन्य व्यक्ति है। उनको थोड़ा जानना है बस, भारत क्या है, भारत का स्व क्या है, हर एक विषय पर हमारी दृष्टि क्या है, यह जानकर उनको करना है। मन उनका ऐसा ही है। जानकारी में कम ज्यादा है, उसके परिणाम होते हैं। वह जानकारी बढ़ जाए तो काम हो जाएगा। लेकिन तंत्र जो बना बनाया है, उसको धीरे धीरे बदलना होगा, जो हो रहा है। करना पडे़गा पूरा। फिर दूसरी बात आती है कि समाज की व्यवस्था, अर्थ का, तो उसकी नीति भी हमको अपना मॉडल अपनी दृष्टि से बनाना पडे़गा। हमारी दृष्टि कैसे है अर्थ के बारे में? डिमांड क्रिएट करो। उसके लिए सप्लाई को नियंत्रित करो। डिमांड बढे़गी, सप्लाई कम होगा, तो ज्यादा मूल्य बनेगा। महँगाई होगी, लेकिन प्राप्ति ज्यादा होगी। अभी ऐसा चल रहे हैं। इसके आधार पर ही चलता है लेकिन हमारा अर्थतंत्र इससे बिल्कुल उल्टा चलता है। हम कहते हैं, भरपूर उत्पादन करो। उत्पादन को एक हाथ में केंद्रित मत करो। मास प्रोडक्शन नहीं करना। प्रोडक्शन बाय मासेस करो। विकेंद्रित करो। इसको ले जाओ छोटे छोटे जगह। ये काम बने। भरपूर उत्पादन करो। उत्पादन से मुनाफा होता है, उसका न्यायी वितरण होना चाहिए और उपभोग पर संयम करें, नियंत्रित उपभोग। तो इससे क्या होगा? कि सस्ताई होगी और सस्ताई होने के कारण फिर महंँगे मूल्यों की प्रतिस्पर्धा नहीं होगी। प्रतिस्पर्धा होगी उत्कृष्टता की। सब सस्ता है, तो जो अच्छे से अच्छा है, वह टिकेगा। इसलिए हमारे यहाँ आज की तकनीकी को भी दाँतों तले ऊँगली दबाने वाले उत्पादन हुए। आज भी होता है झारखंड में लोहा । आठ लोग भट्टी उठाकर चलते हैं और आपके घर के आँगन में आपको लोहा तैयार करके देते हैं वह जंग नहीं खाता। बहुतेरे स्तम्भ बने अपने यहाँ, वह लोहा वहाँ बनता है। आज भी वहाँ के आदिवासी लोग यह बनाते हैं। उसके नागपुर में ले आए सैंपल और उसके 37 पैरामीटर्स निश्चित किए, वह लोहा किसी फैक्टरी में, किसी मशीन में, कंप्यूटर से नहीं बनता। उनके टेक्निक से बनाने का प्रयास किया। वह वहाँ आया नहीं। इसलिए वहाँ से दो आदिवासियों को लेकर आए और वह लोहा बनवा लिया। उन्होंने उन्हें बनाकर दिया भी है, आज भी है वहाँ पर, रिसर्च हुआ। मैं था तब नागपुर में। मैंने देखा है तो हमारे पास अपना तंत्र है। हमारे पास अपना टैलेंट है। आज के टेक्नोलॉजी में भी हमारे युवा कितने ही उपक्रम कर रहे हैं, चमत्कार कर रहे हैं। इन सबको अवसर देने वाला चाहिए। विकेंद्रित उत्पादन, न्यायी वितरण, संयमित उपभोग। तकनीकी, तकनीकी उपयोग करो लेकिन तकनीकी मानवीय होनी चाहिए और तकनीकी नैतिक होनी चाहिए। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आ रहा है। उस पर नियंत्रण की कोई व्यवस्था नहीं। इसलिए लोग डर रहे हैं, ऐसी तकनीकी आएगी, वह तकनीकी मनुष्य की मनुष्यता को समाप्त करेगी, अथवा मनुष्य पर तकनीक हावी हो जाएगी। वह किस काम की है? हमारे देश में काम करने वाले हाथ ज्यादा है, तो रोजगार को मारने वाली तकनीकी हमको नहीं चलेगी। विश्व से प्रतिस्पर्धा करनी है। अब इस से रास्ता निकालना पडे़गा और मानवीय नैतिक तकनीकी हम स्वीकार करते हैं। सबकी परीक्षा करेंगे, जो हमारे लिए उपयुक्त है, लेंगे। हमारा जो स्वदेशी है, हमारे पास भी ज्ञान भंडार है। प्राचीन समय से हमारे पास भी है। आजकल सिद्ध भी हो रहा है। हम देखेंगे, उसको युगानुकूल बनाकर लेंगे और बाहर से जो भी लेंगे, उसको देशानुकूल बना कर लेंगे। यह हमारा आर्थिक तंत्र इस प्रकार हम नया खड़ा करेंगे। इसी से चलकर, धीरे धीरे। काम पुरुषार्थ है। लोगों की आवश्यकता है। ठीक है, आवश्यकताएँ पूर्ण करेंगे। न्यूनतम आवश्यकता सबके लिए मिलनी चाहिए। उसके लिए स्पर्धा नहीं होनी चाहिए। वह दी जानी चाहिए। अगर लोग खरीद नहीं सकते तो वैसे दी जानी चाहिए। रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य, शिक्षा, अतिथि सत्कार गृहस्थ धर्म के छह कर्तव्य है। इसको पूरा कर सकने वाले घर गृहस्थी हरेक की होनी चाहिए। फिर इस संपत्ति का न्यायी वितरण इसके लिए करना पडेगा लेकिन हर बात सरकार करे, ऐसा नहीं होगा। हमारे यहांँ आर्थिक दृष्टि में कमाने पर कोई प्रतिबंध नहीं, खूब कमाओ दोनों हाथों से, लेकिन बांँटो। दान का महत्व है। तो समृद्ध लोग दान करें और जो असमृद्ध है उनको समृद्ध बना लें। देने की आदत लगा देते, देते देते, वह भी देने वाले बन जाए। ऐसा मैकेनिज्म हो तो सर्वदूर समृद्धि। हम लक्ष्मी के पुजारी है। हम गरीबी के पूजक नहीं है। गरीबी के पूजक नहीं है। लक्ष्मीजी के पुजारी है, लेकिन त्याग पर विश्वास रखनेवाले। हमारे यहाँ प्रतिष्ठा त्याग की है, भोग की नहीं है तो सब कुछ हमारा भोग को प्रोत्साहन न देनेवाला, त्याग को प्रोत्साहन देने वाला लेकिन भौतिक समृद्धि , भौतिक जीवन आवश्यक है केवल अध्यात्म या केवल भौतिक जीवन काम नहीं आता। यह दोनों का समन्वय चाहिए। आदर्श है अपनी परंपरा का|
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते
इस प्रकार का जीवन खड़ा होगा समाज का। ऐसे प्रावधान हम करेंगे, ऐसे संशोधन करेंगे और समाज में शासन के द्वारा धर्माचरण हो रहा है, देखा जाएगा और समाज देखेगा कि धर्माचरण करना है तो आचार धर्म की बात आती है, जो चार मूल्य मैंने बताया श्रीमद्भागवत भागवत में बताए हैं, वह शाश्वत है। वह नहीं बदलते लेकिन आचार धर्म युगानुकूल बदलता है। इसीलिए समाज को यह सोचना पडे़गा कि हमारे इस प्राचीन धर्म के मूल्यों पर युगानुकूल आचरण क्या है? उसको स्वीकार करना पडे़गा। कई बातें काल के अनुसार आई हैं उसको जाना पडे़गा और यह संशोधन करना धर्म आरक्षण का पहला आयाम यह है धर्म एवं समाज की धारा। दूसरा आयाम है कि जो आप कह रहे हो वह आपके आचरण में चाहिए। धर्म पोथियों में नहीं रहता। धर्म वाणी में नहीं रहता। धर्म आचरण में रहता है।
आचारात् प्रभो धर्मः| धर्मो रक्षति रक्षितः|
आचार आचरण में, उसका रक्षण करो, धर्म का, धर्म का रक्षण हो जाता है। धर्म आपको सुरक्षित करता है। तो आचरण करना चाहिए और समाज का प्रबोधन करना चाहिए। क्या धर्म है? क्या अधर्म है, इसका निर्णय कैसे करना? आज के युग में क्या है? दकियानूसी बातें। रूढ़ी के रूप में चल रही , बदलो। समाज का प्रबोधन करना पडे़गा। थोपकर नहीं चलेगा। समाज का मन बदलेगा। तो सब होगा। तो आचरण, संशोधन, आचरण, प्रबोधन। और फिर इस धर्म पर आघात करने वाली शक्तियाँ हैं, उसका ठीक से प्रतिकार भी करना पडे़गा तो धर्म का यह चतुर्विद आचरण करने वाला समाज हमको खड़ा करना पडे़गा। प्रतिकार करने वाले योद्धा भी खड़े करने पड़ेंगे। संशोधन करने वाले सुधारक भी खड़े करने पड़ेंगे। आचरण का उदाहरण सबको रखना पडे़गा और प्रबोधन का काम करने वाले प्रबोधनकार भी खड़े करने पड़ेंगे। हमारे आचार्य, संन्यासी, मुनि, ऋषि ,श्रमण, सब है, कथावाचक भी है। बहुत बड़ी संस्थाएँ हैं। इनको उस दिशा में सक्रिय होना पडे़गा। ऐसा भारत खड़ा होता है और वह इस धर्म से चलता है, तो भूमि के साथ साथ जल, जंगल, जानवर, इनका भी रक्षण होता है। क्योंकि जिस अर्थतंत्र का पुरस्कार करते हैं, वह कम से कम ऊर्जा खाने वाला और पर्यावरण मित्र ही होना चाहिए, नहीं तो तात्कालिक विकास को बहुत बड़ा बनेगा लेकिन एक प्रकृति की थप्पड़ लगेगी, सब कुछ ढह जाएगा। हम इसका अनुभव ले रहे हैं। दुनिया भर में ले रहे हैं। अपने देश में भी ले रहे हैं। अपनी शाश्वत दृष्टि के आधार पर चलते हैं, तो ये सारी बातें टाल सकते हैं और सारी दुनिया को एक नया रास्ता दिखाने की हमारी ताकत है| स्व आधारित भारत के पीछे, ये सारे दिशा सूत्र हैं, हमारे अपने अनुभव के आधार पर, आज की समस्याओं का उत्तर देते हुए
आ नो भद्राः क्रतवोयन्तु विश्वतः
इस नीति से, विश्व में जो जो अच्छा है, वह सब स्वीकार करते हुए, स्वीकार करते समय, उसको दिशा अनुकूल बनाते हुए, और हमारे पास जो जो है, उसको युगानुकूल बनाते हुए हम प्रयोग में लाएँगे, अपने देश का एक अपना विशिष्ट तंत्र खड़ा करेंगे। तो ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का हमारा तो स्वभाव है। हम वैसे ही चल रहे हैं। धर्म के आधार पर चलना ही हमारा स्वभाव है। हमारा संविधान जैसा बना है, उसका कारण यही है। बहुत साल पहले, डॉक्टर प्रणव मुखर्जी राष्ट्रपति थे, उनको मिलने गया था और चर्चा में उन्होंने कहा कि दुनिया हमको सेक्युलरिज्म बता रही है, दुनिया को क्या अधिकार है हमको सेक्युलरिज्म बताने का? पंद्रह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालीस में हम स्वतंत्र हुए। छब्बीस जनवरी हमको बाद में पचास में संविधान मिला। संविधान सेक्युलर है। फिर एक मिनट रुके और फिर उनका ये नहीं कि हम संविधान के कारण सेक्युलर है। हमारे संविधान बनाने वाले पूर्वज स्वयं सेकुलर माइंडसेट के थे। इसलिए ऐसा हुआ। फिर आधा मिनट रुके। फिर उनका उन पूर्वजों से हमारा सेक्युलरिज्म ऐसा भी नहीं है। हमारी पाँच हजार साल पूर्व की प्राचीन परंपरा हमको यही सिखाती है तो विश्व में जो कुछ अभिप्रेत है, अच्छा माना जाता है, कम से कम बोलने में लोग उसको अच्छा कहते हैं। उसका प्रामाणिक आचरण भारत करके दिखाता है, भारत का स्वभाव है और इसलिए इस तंत्र को खड़ा करके हम जब अपना देश खड़ा करेंगे, उसको बल सम्पन्न, शक्ति संपन्न बनाएँगे, तो हम किसी पर थोपेंगे नहीं हम सबके सामने उदाहरण रखेंगे और अपना मार्ग को चूक गई लड़खड़ाती दुनिया हमको देखकर अपना वैसा तंत्र अपने प्रकृति के आधार पर बनाएँगी और सम्पूर्ण विश्व में बंधुभाव रूपी धर्म सर्वव्याप्त हो जाएगा, तब अपने अपने वैशिष्ट्य पर खड़ा होकर सब राष्ट्र आपस में लड़ाई झगड़ा नहीं करेंगे। सारे विश्व के जीवन को समृद्ध बनाने वाला अपना अपना योगदान अर्पित करेंगे। उस विश्व का स्वप्न देखने वाला भारत खड़ा करने का दायित्व आज के हम लोगों के सामने और हमारे बाद आने वाली दो पीढ़ियों के सामने है। उसके लिए हम तैयार हो जाए। यह सारा अध्ययन चिंतन करके भारत अपना विशिष्ट रास्ता बने, बनाएँ और समय समय पर लड़खड़ाती दुनिया को संतुलन देने वाला, नई सुखद, सुंदर, शांत, युक्त दुनिया ऐसी उत्पन्न करने वाला विश्वगुरू भारत खड़ा करे। यह अपना कर्तव्य है। इसीलिए बहुत थोड़े में, बहुत व्यापक विषय का कुछ दिशानिर्देश करने का बुद्धि के अनुसार प्रयत्न किया है।