वर्तमान राजनीति ओर बिहार,बंगाल व तमिलनाडु
तेजस्वी मुख्यमंत्री बनने का ख़्वाब देख रहे थे और लालू नीतीश को प्रधानमंत्री बनाने का ख़्वाब दिखा रहे थे। नीतीश भी वह ख़्वाब देखने की अच्छी एक्टिंग कर रहे थे। जैसे नीतीश पार्टी के बाहर कभी राजद तो कभी भाजपा की तरफ़ गुलाटी मारते रहते हैं, वैसे ही अपने पार्टी के भीतर भी दो गुटों के बीच कभी इधर कभी उधर गुलाटी मारते रहते हैं। ललन सिंह और आर सी पी सिंह, यह दो धड़े हैं जिनका जदयू संगठन पर बिना कहे होल्ड है। जब ललन सिंह हावी होते हैं तो नीतीश लालु की तरफ़ झुकते हैं और जब आर सी पी सिंह हावी होते हैं तो भाजपा की तरह झुकते हैं।
वास्तविकता यह है कि यह सब नीतीश कुमार की अपनी महिमा ही है। वह अपने फ़ायदा के अनुसार कभी ललन सिंह के धड़े को समर्थन देते हैं तो कभी आर सी पी सिंह के धड़े को। सबको लगता है कि वह नीतीश कुमार को चला रहे हैं, चरा रहे हैं लेकिन असल में नीतीश कुमार ही सबको चलाते चराते हैं। उनको जब इच्छा होती है तेजस्वी को मुख्यमंत्री का सपना दिखाते हैं, उनको जब इच्छा होती है भावी प्रधानमंत्री की भी शानदार एक्टिंग कर लेते हैं, उनकी जब इच्छा होती है ललन सिंह के करीबी हो जाते हैं, उनकी जब इच्छा होती है आर सी पी सिंह के करीबी हो जाते हैं। अंततः उनके पास विधानसभा और लोकसभा दोनों में अधिक से अधिक सीट कैसे हो, राजद भाजपा दोनों को कैसे एक साथ दबाव में डालकर चला जाय, इसको साध कर वह चलते हैं। नीतीश कुमार के बारे में सबसे अच्छी टिप्पणी अब तक लालु यादव ने ही किया है कि नीतीश कुमार के पेट में दांत है। जब वह तेजस्वी को मुख्यमंत्री बना रहे थे तब वह पेट वाले दाँत से ही काम ले रहे थे।
भाजपा के तमाम कार्यकर्ता और समर्थक भी इस बात से चिढ़ते हैं कि आख़िर भाजपा क्यूँ नीतीश को लेकर चलती है? कोई भी पार्टी कभी भी शौक़ से गठबंधन की सरकार नहीं बनाती। जैसी राजनीतिक परिस्थिति होती है, उसके अनुसार आपको अच्छे से अच्छा रास्ता निकालना होता है। कई बार आपको किसी निर्णय से एक जगह घाटा दिखाई पड़ता है लेकिन कई जगह आपको ऐसा फ़ायदा हो रहा होता है कि आपको वह स्वीकार करना होता है। जैसे इस बार नीतीश कुमार के अलग होते इंडी गठबंधन सैद्धांतिक तौर पर देश से समाप्त हो गया। विपक्ष चुनाव से पूर्व ही हार चुका है। वोट कितना बढ़ेगा, नहीं बढ़ेगा से इतर परसेप्शन की लड़ाई में ही हार हो गई कांग्रेस की।
बिहार, बंगाल, तमिलनाडु आदि भाजपा के लिए हमेशा से कठिन रहा है इसका कारण यह नहीं है कि भाजपा ने इन राज्यों में मेहनत नहीं की बल्कि इसका कारण है इन राज्यों में लोगों की एक भिन्न प्रकार की मानसिकता होना। बंगाल में एक समय तक बहुसंख्यक आबादी ख़ुद को शेष भारत से श्रेष्ठ मानती थी, आज भी काफ़ी हद तक यह मानसिकता ज़िंदा है। भाजपा भारतीयता की राजनीति करती है और इस कारण अपने आप ही बंगाल के लिए मिसफ़िट हो जाती थी लेकिन धीरे धीरे इस्लामिक कट्टरपंथ ने बंगालियों को पीट पीटकर दिमाग़ ठिकाने लगाया है, अब वहाँ एक परिवर्तन की आस दिख रही है। इसी तरह बिहार में चाहे जो भी जाति हो, उसकी बहुसंख्यक आबादी घनघोर जातिवादी है, अधिकांश बिहारी आवश्यकता से अधिक चालाक हैं, उसी का रिफ्लेक्शन राजनीति में भी दिखता है। भाजपा हिंदुत्व और समरसता की राजनीति करती है जबकि बिहार की राजनीति जातीय प्रभुत्व की राजनीति है। भाजपा अपने आप वहाँ पर मिसफिट हो जाती है।धीरे धीरे लोगों की मानसिकता में बदलाव होगा और जब वह बदलाव निर्णायक होगा तो वह चुनावों में भी परिलक्षित होगा। जब तक आप उस पॉइंट पर नहीं पहुँच जाते तब तक आपको दूसरों की शर्तों का पालन करना होता है। कभी उत्तर प्रदेश में भाजपा बसपा के शर्तों पर चलती थी लेकिन समय बदला, लोग बदले तो चुनावी राजनीति भी भाजपा के लिए स्वतंत्र हुई। तमिलनाडु में भाजपा जी तोड़ मेहनत कर रही है लेकिन कभी भी भाजपा भिन्न तमिल राष्ट्रवाद का समर्थन नहीं कर सकती। जब वह ये नहीं कर सकती तो वह बाक़ी पार्टियों से इस भीड़तंत्र में अपने आप पीछे हो जाती है। वहाँ पर नेता लगातार लोगों से मिल रहे हैं उन्हें भारतीय पहचान में समाहित करने के लिए प्रयास कर रहे हैं लेकिन एक सदी से बनाये इस परसेप्शन को तोड़ने में बहुत वक्त लगेगा। असंभव नहीं है लेकिन फिर भी मुश्किल काम है और जब तक नहीं होता आपके पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं है कि उन पार्टियों के साथ कदम ताल करके चलना जो भिन्न पहचान को स्वीकार करती हैं। पार्टी कोई निर्जीव इकाई नहीं है, विचारधारा कोई निर्जीव इकाई नहीं है, वह समाज और लोगों के विचार से न केवल प्रभावित होता है बल्कि उसी पर निर्भर रहता है। राजनीति सिद्धांतों के लिए होती है लेकिन राजनीति के अपने कोई सिद्धांत नहीं होते। आपके सिद्धांतों के बढ़ावे के लिए जो भी रास्ता आपको दिख रहा है, उसे अपनाना ही चाहिए।