जाने भारतीय काल गणना पंचांग क्या है
ज्योतिष ज्ञान
पंचांग के पांच अंग,तिथि, वार,नक्षत्र, योग व करण,भारतीय मास,राशि,ग्रह व अन्य महत्वपूर्ण विषय।
राशि – राशि जिस प्रकार 12 महीने होते हैं उसी प्रकार 12 राशि होती है।
मेष,वृषभ,कर्क, सिंह,कन्या,तुला,वृश्चिक,धनु,मकर,कुंभ व मीन।
महीने – 12 महीने निम्नलिखित है।
चैत्र,बैसाख,ज्येष्ठ,आषाढ़,श्रावण,भाद्रपद, आश्विन,कार्तिक,मार्गशीष॔,पौष,माघ,फाल्गुन।
पक्ष को जानें : प्रत्येक महीने में तीस दिन होते हैं। तीस दिनों को चंद्रमा की कलाओं के घटने और बढ़ने के आधार पर दो पक्षों यानी शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष में विभाजित किया गया है। एक पक्ष में लगभग पंद्रह दिन या दो सप्ताह होते हैं। एक सप्ताह में सात दिन होते हैं। शुक्ल पक्ष में चंद्रमा की कलाएं बढ़ती हैं और कृष्ण पक्ष में घटती हैं।
दो पक्ष होते हैं ।कृष्ण पक्ष,शुक्ल पक्ष ।कृष्ण पक्ष में 15 तिथि होती हैं, 15 वीं तिथि को अमावस्या कहते हैं ।शुक्ल पक्ष में 15 तिथि होती हैं, 15 वीं तिथि को पूर्णिमा कहते हैं
संक्रांति 12,संक्रांति होती हैं , 12 संक्रांति के नाम हैं मेष, वृषभ, कर्क, सिंह ,कन्या, तुला वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ व मीन
नक्षत्रों के नाम :- स्कन्द पुराण के अनुसार तारो की सँख्या असख्य हैं। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इनकी संख्या में 27 नक्षत्रों बताये गये हैं ।इन नक्षत्रों के देवता नाम से नक्षत्र का बोध होता हैं।प्रत्येक नक्षत्र के आगे चार पद होते है। उनके स्वामी अलग अलग से होते है।
नक्षत्र – देवता- स्वामी
अश्विनी – अश्विनी कुमार – केतु
भरणी – यम – शुक्र
कृतिका -अग्नि देवता – सूर्य
रोहिणी – ब्रह्मा – चंद्र
मृगशिरा – चन्द्रमा – मंगल
आर्दा – शिव शंकर – राहु
पुनर्वसु – आदिति – बृहस्पति
पुष्य – बृहस्पति – शनि
अश्लेषा – सर्प – बुध
माघ – पितर – केतु
पूर्वाफाल्गुनी – भग (भोर का तारा) – शुक्र
उत्तराफाल्गुनी – अर्यमा – सूर्य
हस्त – सूर्य – चंन्द्र
चित्रा -विश्वकर्मा – मंगल
स्वाति – वायु – राहु
विशाखा – इन्द्र, अग्नि – बृहस्पति
अनुराधा – आदित्य – शनि
ज्येष्ठा – इन्द्र – बुध
मूल – राक्षस – केतु
पूर्वाषाढा – जल – शुक्र
उत्तराषाढा – विश्वेदेव – सूर्य
अभिजित – विश्देव – सूर्य
श्रवण – विष्णु – चन्द्र
धनिष्ठा – वसु – मँगल
शतभिषा – वरुण देव – राहु
पूर्वाभाद्रपद – अज – बृहस्पति
उत्तराभाद्रपद – अतिर्बुधन्य – शनि
रेवती – पूूषा – बुध
अभिजित नक्षत्र
अभिजित नक्षत्र – अभिजित नक्षत्र की गणना 27 नक्षत्रों में नहीं होती है क्योंकि यह नक्षत्र क्रान्ति चक्र से बाहर पड़ता है। यह मुहूर्तों आदि में इसे शुभ माना जाता है।अभिजीत मुहूर्त प्रत्येक दिन का मध्यम भाग है,अनुमानत:12:00 बजे अभिजीत मुहूर्त कहलाता है जो मध्यम काल से पहले और बाद में दो घड़ी, 48 मिनट का होता है दिन मान के आधे समय को स्थानीय सूर्योदय के समय में जोड़ें तो मध्यम काल स्पष्ट हो जाता है जिसमें 24 मिनट घटाने और चाबी ने 24 मिनट बढ़ाने पर अभिजीत का प्रारंभ काल और समाप्ति काल निकलता है इस अभिजीत काल में लगभग सभी दोषों के निवारण करने की अद्भुत शक्ति है जब मुंडन आदि शुभ कार्यों के लिए शुभ लगन में ना मिल रहा हो तो अभिजीत मुहूर्त काल में शुभ कार्य करने का किए जा सकते हैं
योग
योग :-योग 27 प्रकार के होते हैं। सूर्य-चंद्र की विशेष दूरियों की स्थितियों को योग कहते हैं। दूरियों के आधार पर बनने वाले 27 योगों के नाम क्रमशः: इस प्रकार हैं:- विष्कुम्भ, प्रीति, आयुष्मान, सौभाग्य, शोभन, अतिगण्ड, सुकर्मा, धृति, शूल, गण्ड, वृद्धि, ध्रुव, व्याघात, हर्षण, वज्र, सिद्धि, व्यातिपात, वरीयान, परिघ, शिव, सिद्ध, साध्य, शुभ, शुक्ल, ब्रह्म, इन्द्र और वैधृति।
27 योगों में से कुल 9 योगों को अशुभ माना जाता है तथा सभी प्रकार के शुभ कामों में इनसे बचने की सलाह दी गई है। ये अशुभ योग हैं: विष्कुम्भ, अतिगण्ड, शूल, गण्ड, व्याघात, वज्र, व्यतिपात, परिघ और वैधृति।
करण
करण :-एक तिथि में दो करण होते हैं- एक पूर्वार्ध में तथा एक उत्तरार्ध में। कुल 11 करण होते हैं- बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज, विष्टि, शकुनि, चतुष्पाद, नाग और किस्तुघ्न। कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी (14) के उत्तरार्ध में शकुनि, अमावस्या के पूर्वार्ध में चतुष्पाद, अमावस्या के उत्तरार्ध में नाग और शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के पूर्वार्ध में किस्तुघ्न करण होता है। विष्टि करण को भद्रा कहते हैं। भद्रा में शुभ कार्य वर्जित माने गए है
मांगलिक दोष विचार परिहार
वर अथवा कन्या दोनों में से किसी की भी कुंडली में 1,4,7,8 व 12 भाव में मंगल होने से ये मांगलिक माने जाते हैं,मंगली से मंगली के विवाह में दोष न होते हुए भी जन्म पत्रिका के अनुसार गुणों को मिलाना ही चाहिए यदि मंगल के साथ शनि अथवा राहु केतु भी हो तो प्रबल मंगली डबल मंगली योग होता है | इसी प्रकार गुरु अथवा चंद्रमा केंद्र हो तो दोष का परिहार भी हो जाता है |इसके अतिरिक्त मेष वृश्चिक मकर का मंगल होने से भी दोष नष्ट हो जाता है | इसी प्रकार यदि वर या कन्या किसी भी कुंडली में 1,4,7,9,12 स्थानों में शनि हो केंद्र त्रिकोण भावो में शुभ ग्रह, 3,6,11 भावो में पाप ग्रह हों तो भी मंगलीक दोष का आंशिक परिहार होता है, सप्तम ग्रह में यदि सप्तमेश हो तो भी दोष निवृत्त होता है |
स्वयं सिद्ध मुहूर्त
स्वयं सिद्ध मुहूर्त चैत्र शुक्ल प्रतिपदा वैशाख शुक्ल तृतीया अक्षय तृतीया आश्विन शुक्ल दशमी विजयदशमी दीपावली के प्रदोष काल का आधा भाग भारत में से इसके अतिरिक्त लोकाचार और देश आचार्य के अनुसार निम्नलिखित कृतियों को भी स्वयं सिद्ध मुहूर्त माना जाता है बडावली नामी देव प्रबोधिनी एकादशी बसंत पंचमी फुलेरा दूज इन में से किसी भी कार्य को करने के लिए पंचांग शुद्धि देखने की आवश्यकता नहीं है परंतु विवाह आदि में तो पंचांग में दिए गए मुहूर्त व कार्य करना श्रेष्ठ रहता है।
जन्म नाम के पहले अक्षर से जाने अपनी जन्म राशि और नक्षत्र
राशि जन्म का नक्षत्र नाम का पहला अक्षर
मेष अश्विनि, भरणी, कृतिका चू, चे, चो, ला, ली, लू, ले, लो, अ
वृष कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा ई, ऊ, ए, ओ, वा, वी, वू, वे, वो
मिथुन मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु का, की, कू, घ, ङ, छ, के, को, ह
कर्क पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेषा ही, हू, हे, हो, डा, डी, डू, डे, डो
सिंह मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी मा, मी, मू, मे, मो, टा, टी, टू, टे
कन्या उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा ढो, पा, पी, पू, ष, ण, ठ, पे, पो
तुला चित्रा, स्वाती, विशाखा रा, री, रू, रे, रो, ता, ती, तू, ते
वृश्चिक विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा तो, ना, नी, नू, ने, नो, या, यी, यू
धनु मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा ये,यो, भा, भी, भू, धा, फा, ढा, भे
मकर उत्तराषाढ़ा, श्रवण, घनिष्ठा भो,जा, जी, खी, खू, खे, खो, गा, गी
कुंभ घनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद गू,गे,गो,सा,सी,सू,से,सो,दा
मीन पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, रेवती दी, दू, थ, झ, ञ, दे, दो, चा, ची
गंड मूल नक्षत्र
1 अश्विनी 2 आश्लेषा 3 मघा 4 ज्येष्ठा 5 मूला 6 रेवती, यह 6 नक्षत्र गंड मूल नक्षत्र माने जाते हैं इन नक्षत्रों में जन्म होना अनिष्ट कारक माना जाता है
अश्विनी– प्रथम चरण में जन्म हो तो पिता को भय , दूसरे चरण में जन्म हो तो सुख,तीसरे चरण में जन्म हो तो मित्र समान,चौथे चरण में जन्म हो तो राजा के समान |
आश्लेषा– प्रथम चरण में जन्म हो तो शांति से शुभ होता है, दूसरे चरण में जन्म हो तो धन नाश ,तीसरे चरण में जन्म हो तो माता का नाश, चौथे चरण में जन्म हो तो पिता का नाश
मघा– पहले चरण में जन्म हो तो माता को भय, दूसरे चरण में जन्म हो तो पिता को भय,तीसरे चरण में जन्म हो तो सुख,चौथे चरण में जन्म हो तो धन लाभ
ज्येष्ठा– प्रथम चरण में जन्म हो तो भाई का नाश ,दूसरे चरण में जन्म हो तो छोटे भाई का नाश, तीसरे चरण में जन्म हो तो माता का नाश,चौथे चरण में जन्म हो तो सोने का नाश ,
मूला – प्रथम चरण में जन्म हो तो पिता को कष्ट दूसरे चरण में जन्म हो तो माता को कष्ट तीसरे चरण में जन्म हो तो धन का नाश और चौथे चरण में जन्म हो तो शांति से शुभ हो जाता है
रेवती – नक्षत्र के प्रथम चरण में जन्म हो तो
राजा के समान,नक्षत्र के दूसरे चरण में जन्म हो तो मंत्री के समान,नक्षत्र के तीसरे चरण में जन्म हो तो धन युक्त,नक्षत्र के चौथे चरण में जन्म हो तो कई प्रकार के दुख होगे |
गंडात विचार – पंचमी दशमी पूर्णिमा व अमावस्या की अंतिम एक घड़ी,षष्टी,एकादशी प्रतिपदा की आरंभ कि एक घड़ी को गंडात कहते हैं,
आश्लेषा ज्येष्ठा,रेवती की अंतिम दो दो घड़ी तथा मघा मूल अश्विन की प्रारंभ की दो दो घड़ी को नक्षत्र गंडांत कहते हैं,
कर्क वृश्चिक मीन लग्न की अंतिम आधी आधी घड़ी तथा सिंह धनु मेष लग्न की आरंभ की आधी आधी घड़ी को लग्न गंडात कहते हैं सरावली में लिखा है कि गंडात में जन्म लेने वाला बालक प्राय जीवित नहीं रहता है यदि जीवित रहे तो माता के लिए क्लेश कारक होता है किंतु स्वयं बहुत ऐश्वर्या साली होता है गंड मूल की शांति लोकाचार यह है कि गंड मूल नक्षत्र में जन्मे बालक को 27 दिन बाद जब उन्हें नक्षत्र आए तो शांति करनी चाहिए जिस नक्षत्र में बालक का जन्म हो यदि जातक के माता-पिता भाई-बहन का वही नक्षत्र हो तो भी शांति करानी चाहिए इसे नक्षत्र शांती कहते है
दिशाशूल
दिशाशूल क्या होता है ? इसके बारे मे सम्पूर्ण जानकारी
दिशाशूल क्या होता है ? क्यों बड़े बुजुर्ग तिथि देख कर आने जाने की रोक टोक करते हैं ? आज की युवा पीढ़ी भले ही उन्हें आउटडेटेड कहे ..लेकिन बड़े सदा बड़े ही रहते हैं ..इसलिए आदर करे उनकी बातों का ;दिशाशूल समझने से पहले हमें दस दिशाओं के विषय में ज्ञान होना आवश्यक है| हम सबने पढ़ा है कि दिशाएं ४ होती हैं |१) पूर्व २) पश्चिम ३) उत्तर ४) दक्षिण
परन्तु जब हम उच्च शिक्षा ग्रहण करते हैं तो ज्ञात होता है कि वास्तव में दिशाएँ दस होती हैं |
१) पूर्व २) पश्चिम ३) उत्तर ४) दक्षिण ५) उत्तर – पूर्व ६) उत्तर – पश्चिम ७) दक्षिण – पूर्व ८) दक्षिण – पश्चिम९) आकाश १०) पाताल
हमारे सनातन धर्म के ग्रंथों में सदैव १० दिशाओं का ही वर्णन किया गया है,जैसे हनुमान जी ने युद्ध इतनी आवाज की कि उनकी आवाज दसों दिशाओं में सुनाई दी | हम यह भी जानते हैं कि प्रत्येक दिशा के देवता होते हैं |
दसों दिशाओं को समझने के पश्चात अब हम बात करते हैं वैदिक ज्योतिष की |ज्योतिष शब्द “ज्योति” से बना है जिसका भावार्थ होता है “प्रकाश” |वैदिक ज्योतिष में अत्यंत विस्तृत रूप में मनुष्य के जीवन की हरपरिस्तिथियों से सम्बन्धित विश्लेषण किया गया है कि मनुष्य यदि इसको तनिकभी समझले तो वह अपने जीवन में उत्पन्न होने वाली बहुत सी समस्याओं से बच सकता है और अपना जीवन सुखी बना सकता है |
दिशाशूल क्या होता है ?
दिशाशूल वह दिशा है जिस तरफ यात्रा नहीं करना चाहिए | हर दिन किसी एक दिशा की ओर दिशाशूल होता है |
1 ) रविवार को पश्चिम,दक्षिण-पश्चिम
2 ) सोमवार, पूर्व,दक्षिण-पूर्व
3 ) मंगलवार को उत्तर-पश्चिम
४ ) बुधवार को उत्तर-पूर्व
५ ) मंगलवार और बुधवार को उत्तर
४) गुरूवार को दक्षिण,दक्षिण-पूर्व
6 ) शुक्रवार को पूर्व,पश्चिम,दक्षिण-पश्चिम
७ ) शनिवार को उत्तर-पूर्व
परन्तु यदि एक ही दिन यात्रा करके उसी दिन वापिस आ जाना हो तो ऐसी दशा में दिशाशूल का विचार नहीं किया जाता है | परन्तु यदि कोई आवश्यक कार्य हो ओर उसी दिशा की तरफ यात्रा करनी पड़े, जिस दिन वहाँ दिशाशूल हो तो यह उपाय करके यात्रा कर लेनी चाहिए रविवार-दलिया और घी खाकर,सोमवार-दर्पण देख कर,मंगलवार-गुड़ खा कर,बुधवार -तिल,धनिया खा कर गुरूवार-दही खा कर,शुक्रवार-जौ खा कर,शनिवार-अदरक अथवा उड़द की दाल खा कर साधारणतया दिशाशूल का इतना विचार नहीं किया जाता परन्तु यदि व्यक्ति के जीवन का अति महत्वपूर्ण कार्य है तो दिशाशूल का ज्ञान होने से व्यक्ति मार्ग में आने वाली बाधाओं से बच सकता है | आशा करते हैं कि आपके जीवन में भी यह ज्ञान उपयोगी सिद्ध होगा तथा आप इसका लाभ उठाकर अपने दैनिक जीवन में सफलता
प्राप्त करेंगे।
सर्वार्थ सिद्धि योग
दैनिक जीवन में आने वाले महत्वपूर्ण कार्यों के लिए शीघ्र ही किसी शुभ मुहूर्त का अभाव हो था किंतु शुभ मुहर्त के लिए अधिक दिनों तक रुका ना जा सकता हो तो इन सुयोग्य वाले मुहर्तु को सफलता से ग्रहण किया जा सकता है इन से प्राप्त होने वाले अभीष्ट फल के विषय में संशय नहीं करना चाहिए यह योग हैं सर्वार्थ सिद्धि,अमृत सिद्धि योग एवं रवियोग योग्यता नाम तथा गुण अनुसार सर्वांगीण सिद्ध कारक है
ज्वालामुखी योग
पड़वा मे तज मूल को,पंचमी भरनी धार,नवमी रोहिणी,कृतिका अष्टम तिथि विचार ||
दसवीं में अश्लेषा तू तज कहता साच बुरी तिथि नक्षत्र ये है ज्वालामुखी पांच |
भद्रा विचार
भद्रा काल का शुभ अशुभ विचार – भद्रा काल में विवाह मुंडन, गृह प्रवेश, रक्षाबंधन आदि मांगलिक कृत्य का निषेध माना जाता है परंतु भद्रा काल में शत्रु का उच्चाटन करना,स्त्री प्रसंग में,यज्ञ करना, स्नान करना, अस्त्र शस्त्र का प्रयोग, ऑपरेशन कराना, मुकदमा करना, अग्नि लगाना, किसी वस्तु को काटना,घोड़ा ऊंट संबंधी कार्य, प्रशस्त माने जाते हैं सामान्य परिस्थिति में विवाह आदि शुभ मुहूर्त में भद्रा का त्याग करना चाहिए परंतु आवश्यक परिस्थितिवश अति आवश्यक कार्य में किसी श्रेष्ठ जानकार पंडित जी से विचार कर लेना चाहिए |
पंचक विचार
पंचक विचार -(धनिष्ठा नक्षत्र के तृतीय चरण से रेवती नक्षत्र तक) पंचको में दक्षिण दिशा की ओर यात्रा करना मकान दुकान आदि की छत डालना चारपाई पलंग आदि बुनना,दाह संस्कार,बांस की चटाई दीवार प्रारंभ करना आदि स्तंभ रोपण तांबा पीतल तृण काष्ट आदि का संचय करना आदि कार्यों का निषेध माना जाता है समुचित उपाय एवं पंचक शांति करवा कर ही उक्त कार्यों का संपादन करना कल्याणकारी होगा ध्यान रहे पंचर नक्षत्रों का विचार मात्र उपरोक्त विशेष कृतियों के लिए ही किया जाता है विवाह मंडल आरंभ गृह प्रवेश प्रवेश उपनयन आदि मुद्दों से तो पंचक नक्षत्र का प्रयोग शुभ माना जाता है
दिशाओ के देवता व ग्रह
दिशा | ग्रह | देवता |
पूर्व | सूर्य | इन्दर |
पश्चिम | शनि | वरुण |
उत्तर | बुध | कुबेर ,चन्द्र |
दक्षिण | मंगल | यम |
उत्तर-पूर्व | ब्र्हश्पति | शंकर ,ब्रह्मा |
उत्तर-पश्चिम | चन्द्र | वायुदेव |
दक्षिण-पूर्व | शुक्र | अग्निदेव |
,दक्षिण-पश्चिम | राहू व केतु | राक्षस,शेष |
राहू काल
राहुकाल – राहुकाल दक्षिण भारत की देन है, दक्षिण भारत में राहु काल में कृत्य करना अच्छा नहीं माना जाता, राहु काल में शुभ कृतियों में वर्जित करने की परंपरा अब हमारे उत्तरी भारत में भी अपनाने लगे हैं राहुकाल प्रतिदिन सूर्यादि वारों में भिन्न-भिन्न समय पर केवल डेढ़ डेढ़ घंटे के लिए घटित होता है
शनि साढ़ेसाती एवं ढैय्या
क्या है शनि साढ़ेसाती एवं ढैय्या जब शनि किसी जातक की जन्म राशि से द्वादश,प्रथम या द्वितीय स्थान में हो तो शनि की प्रस्तुत गोचर स्थिति शनि साढ़ेसाती कहलाती है | इसके प्रभाव स्वरूप जातक\जातिका को मानसिक संताप,शारीरिक कष्ट,कलह क्लेश,आर्थिक परेशानियां,आय कम व खर्च की अधिकता,रोग व शत्रु भय,बनते कार्य में विघ्न बाधाएं,संतान एवं परिवार संबंधी परेशानियां उत्पन्न होती है | प्रत्येक राशि में लगभग ढाई वर्ष तक संचार करता है | शनि वक्री-मार्गी गति के कारण कई वर्षों के काल में न्यूनता-अधिकता भी होती रहती है | शनि किस राशि पर संचरित होता है उससे पहले बारहवे में और दूसरे भाव में स्थित राशियों पर विशेष प्रभावित करता है | इसी को शनि की साढ़ेसाती कहा जाता है |
शनि की ढैय्या – गोचरवश शनि चंद्र राशि से चौथे स्थान पर संचार करता है तब शनि की ढैय्या कहलाती है | यह भी शनि के किसी राशि संचार के अनुसार ढाई वर्ष के लिए होती है | इसका प्रभाव भी अशुभ माना गया है | शनि की ढैय्या के प्रभाव स्वरूप जातक/जातिका को वृथा दौड़-धूप,धन हानि अनावश्यक खर्च, गुप्त चिंताएं, रोग शोक, क्लेश,बंधु विरोध, कार्य में विघ्न बाधाओं एवं आर्थिक उलझनों का सामना करना पड़ता है |
समय गणना तन्त्र (ऋषि मुनियो का अनुसंधान )
क्रति = सैकन्ड का 34000 वाँ भाग,1 त्रुति = सैकन्ड का 300 वाँ भाग, 2 त्रुति = 1 लव ,
1 लव = 1 क्षण,30 क्षण = 1 विपल , 60 विपल = 1 पल,60 पल = 1 घड़ी (24 मिनट ) ,
2.5 घड़ी = 1 होरा (घन्टा ), 24 होरा = 1 दिवस (दिन या वार) , 7 दिवस = 1 सप्ताह
4 सप्ताह = 1 माह ,2 माह = 1 ऋतू, 6 ऋतू = 1 वर्ष ,100 वर्ष = 1 शताब्दी
10 शताब्दी = 1 सहस्राब्दी , 432 सहस्राब्दी = 1 युग, 2 युग = 1 द्वापर युग , 3 युग = 1 त्रैता युग ,
4 युग = सतयुग, सतयुग + त्रेतायुग + द्वापरयुग + कलियुग = 1 महायुग
76 महायुग = मनवन्तर , 1000 महायुग = 1 कल्प
1 नित्य प्रलय = 1 महायुग (धरती पर जीवन अन्त और फिर आरम्भ )
1 नैमितिका प्रलय = 1 कल्प ।(देवों का अन्त और जन्म )
महाकाल = 730 कल्प ।(ब्राह्मा का अन्त और जन्म )
शुभ तिथियां
सोमवती अमावस्या,रविवारी सप्तमी,मंगलवारी चतुर्थी,बुधवारी अष्टमी-ये चार तिथियाँ सूर्यग्रहण के बराबर कही गयी हैं।इनमें किया गया जप-ध्यान,स्नान,दान व श्राद्ध अक्षय होता है ( शिव पुराण , विद्यश्वर संहिताः अध्याय 10
चौघड़िया मुहूर्त
चौघड़िया मुहूर्त देखकर कार्य या यात्रा करना उत्तम होता है। एक तिथि के लिये दिवस और रात्रि के आठ-आठ भाग का एक चौघड़िया निश्चित है। इस प्रकार से 12 घंटे का दिन और 12 घंटे की रात मानें तो प्रत्येक में 90 मिनट यानि 1.30 घण्टे का एक चौघड़िया होता है जो सूर्योदय से प्रारंभ होता है |
ग्रह मैत्री
ग्रह | मित्र | सम | शत्रु |
सूर्य | चंद्र ,मंगल ,गुरु | बुध | शुक्र ,शनि |
चंद्र | सूर्य ,बुध , | मंगल ,गुरु ,शुक्र ,शनि | – |
मंगल | सूर्य ,चंद्र ,गुरु | शुक्र ,शनि | बुध |
बुध | सूर्य , शुक्र | मंगल , गुरु, शनि | चंद्र |
गुरु | सूर्य ,चंद्र ,मंगल | शनि | बुध ,शुक्र |
शुक्र | बुध शनि , | मंगल गुरु , | सूर्य ,चंद्र |
शनि | बुध ,शुक्र | गुरु | सूर्य ,चंद्र ,मंगल |
भाव तत्व एवं उनका का ग्रहों पर प्रभाव
प्रथम भाव (लग्न), पंचम भाव तथा नवम भाव अग्नि तत्व है।
द्वितीय एवं दशम भाव पृथ्वी तत्व है।
तृतीय एवं एकादश भाव वायु तत्व हैं।
चतुर्थ – अष्टम एवं द्वादश भाव जल तत्व है।
जो ग्रह जिस भाव का स्वामी होता है उसमें अपने उस भाव के तत्व गुण होना स्वाभाविक ही है, किंतु जब उसके घर में कोई दूसरा ग्रह आ बैठता अपने घर में आकर बैठे उस (उन) ग्रह (ग्रहों) के गुणों को भी अपना लेता है।
जैसे- द्वादश भाव में मीन राशि हो और वहां मंगल स्थित हो तो क्योंकि मीन राशि जल तत्व है, इसलिए इसके स्वामी गुरु की जल का प्रभाव करना चाहिए किंतु नहीं गुरु यहां मंगल के बैठने से अग्नि का ही प्रभाव करेगा कारण मंगल अग्नि तत्त्व का परिचायक है।
ग्रहों के कालांश
यह तो सर्वविदित ही है कि सूर्य का प्रकाश सर्वाधिक होता है। इसी कारण सूर्य को सब ग्रहों का राजा कहा गया है। दूसरा ग्रह जब सूर्य के निकट पहुंचा 1 है तब सूर्य की प्रचंड किरणों के आगे उसकी ज्योति मंद पड़ जाती है, तब उस ग्रह को ‘अस्त’ की संज्ञा दी जाती है। कौन ग्रह सूर्य से कितने निकट पहुंचने (कितने अंशों की दूरी पर अस्त होता है, इसका विवरण इस प्रकार है।
चंद्रमा सूर्य से 12 अंश के भीतर रहने पर अस्त रहता है।
मंगल सूर्य से 17 अंश के भीतर रहने पर अस्त रहता है।
बुध सूर्य से 13 अंश (मतांतर से 14 अंश) के भीतर रहने से अस्त रहता है। वक्री हो तो 12 अंश ।
गुरु सूर्य से 11 अंश के भीतर रहने पर अस्त रहता है।
शुक्र सूर्य से 9 अंश (मतांतर से 10 अंश) के भीतर रहने पर तथा वक्री हो तो 8 अंश के भीतर रहने पर अस्त रहता है।
शनि सूर्य से 15 अंश के भीतर रहने पर अस्त रहता है।
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