देवर्षि नारद : लोक-कल्याण संचारक और संदेशवाहक
‘नारद’ शब्द में ‘नार’ का अर्थ है ‘जल’ तथा ‘अज्ञान’ और ‘द’ का अर्थ है ‘देना’ या ‘नाश करना’। अर्थात जो पितरो को तर्पण द्वारा सदा जल प्रदान करता है, इसलिए नारद नाम पड़ा। दूसरा अर्थ है – अज्ञान का जो नाश कर ज्ञान का प्रकाश दे, उसे नारद कहते है।
भारतीय ज्ञान परंपरा में अलग-अलग जगह पर महर्षि नारद का उल्लेख है। शास्त्रों में वर्णन मिलता है कि वह ब्रह्मा जी के पुत्र है, भगवान विष्णु जी के भक्त और बृहस्पति जी के शिष्य है। इन्हें एक लोक कल्याणकारी संदेशवाहक और लोक-संचारक के रूप में भी जाना जाता है क्योंकि प्राचीनकाल में सूचना, संवाद, संचार व्यवस्था मुख्यतः मौखिक ही होती थी और मेले, तीर्थयात्रा, यज्ञादि कार्यक्रमों के निमित्त लोग जब इकट्ठे होते थे, तो सूचनाओं का आदान-प्रदान करते थे।
देवर्षि नारद जी के लिए ‘आचार्य पिशुनः’ का उल्लेख कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ में कई बार आया है। इसके अतिरिक्त संस्कृत के शब्दकोशों में भी ‘आचार्य पिशुनः’ का अर्थ देवर्षि नारद, सूचना देने वाला, संचारक, सूचना पहुंचाने वाला, सूचना को एक स्थान से दूसरे स्थान तक देने वाला है। आचार्य का अर्थ, गुरु, शिक्षक, यज्ञ का मुख्य संचालक, विद्वान आदि है। इन दोनों शब्दों का अर्थ हुआ, सूचना देने वाला विद्वान अथवा विज्ञ पुरुष। इस अर्थ का संयुक्त उपयोग संस्कृत साहित्य में जिसके लिए किया गया, वह है देवर्षि नारद जी। इस प्रकार संस्कृत साहित्य में देवर्षि नारद के लिए उल्लिखित ‘आचार्य पिशुनः’ से स्पष्ट है कि देवर्षि नारद तीनों लोकों में सूचना अथवा समाचार के प्रेषक के रूप में विख्यात थे। इसी क्रम में एक और भी संदर्भ महत्त्वपूर्ण है, जो देवर्षि नारद जी के पत्रकारिता व्यवहार को स्पष्ट करता है। पुराणों के अनुसार ब्रहमाजी के आदेश पर उनके पुत्र ‘दक्ष’ के सौ पुत्र हुए और सभी पुत्रों को सृष्टि बढ़ाने का आदेश मिला। लेकिन ब्रहमाजी के मानसपुत्र और ‘दक्ष’ के भाई ‘नारद’ ने सभी दक्ष पुत्रों को सृष्टि से अलग कर तप में लगा दिया। ‘दक्ष’ ने पुनः अपने पुत्रों को सृष्टि का आदेश दिया। किंतु, इन दक्ष पुत्रों को भी नारद जी ने सृष्टि के स्थान पर तपस्या में लगाया। इससे क्रोधित होकर ‘दक्ष’ ने नारद जी को श्राप दिया कि – (1) सदा विचरण करेंगे, (2) कहीं अधिक समय तक नहीं रुकेंगे एवं (3) एक स्थान की सूचना दूसरे स्थान पर पहुंचाएंगे। देवर्षि नारद ने ‘दक्ष’ के इन तीनों श्रापों को लोकहित में स्वीकार किया। इस संदर्भ में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि यद्यपि देवर्षि नारद इतने सक्षम थे कि ‘दक्ष’ के श्राप से मुक्त हो सकते थे, परंतु लोकहित में श्राप को स्वीकार किया और तभी से वह निरंतर तीनों लोकों का भ्रमण करते है, कहीं अधिक समय तक रुकते नहीं तथा आसुरी शक्ति विनाशक एवं सज्जन शक्ति की रक्षा में त्रिलोक की सूचना लोकहित में देवों के मध्य पहुंचाते रहते है।
आदि पत्रकार देवर्षि नारद सूचना के संप्रेषक अथवा प्रसारक होने के साथ-साथ-नारद पुराण, नारदस्मृति, नारदीय ज्योतिष आदि ग्रन्थों के रचयिता थे। ‘वीणा’ नामक वाद्य यंत्र का उन्होंने आविष्कार किया। संगीत शास्त्र के श्रेष्ठ ज्ञाता थे। नारद जी के अनुसार संदेश वक्ता, श्रोता एवं कथन है। यही सूत्र पत्रकारिता का सार है। आदि पत्रकार नारद जी की पत्रकारिता सज्जन रक्षक और दुष्ट विनाश की थी। समुद्र मंथन में विष निकलने की सूचना सर्वप्रथम आदि पत्रकार नारद ने मंथन में लगे पक्षों को दिया परंतु सूचना पर ध्यान नहीं देने से विष फैला। आदि पत्रकार नारद ने सती द्वारा ‘दक्ष’ के यज्ञ कुंड में शरीर त्यागने की सूचना सर्वप्रथम भगवान शिव को दी। महाभारत के युद्ध के समय तीर्थयात्रा पर गए बलराम जी को महाभारत के युद्ध की समाप्ति की सूचना नारद जी ने ही दी। नारद जी एक पत्रकार के रूप में जगन्नाथ की रथयात्रा को प्रारंभ कराया। इतना ही नहीं पत्रकार के रूप में काशी, प्रयाग, मथुरा, गया, बद्रिकाश्रम, केदारनाथ, रामेश्वरम् सहित सभी तीर्थों की सीमा तथा महत्व का वर्णन नारद पुराण में है। नारद जी ने प्रश्नोत्तरी पत्रकारिता का भी शुभारंभ किया। उन्होंने प्रश्न का सही उत्तर देने पर पुरस्कार की परम्परा प्रारम्भ की, यह उल्लेख पुराणों में है।
महर्षि नारद के प्रमुख ग्रंथ
नारदपुराण : नारद जी के इस ग्रंथ में नदियों की महिमा तथा पवित्र तीर्थों का महात्म्य; भक्ति, ज्ञान, योग, ध्यान, वर्णाश्रम-व्यवस्था, सदाचार, व्रत, श्राद्ध आदि का वर्णन तो हुआ ही है किन्तु छह वेदांगों का वर्णन, विशेष रूप से त्रिस्कन्ध ज्योतिष का विस्तृत वर्णन, मन्त्र-तंत्र विद्या, प्रायश्चित-विधान और सभी अठारह पुराणों का प्रामाणिक परिचय ‘नारदपुराण’ की महत्वपूर्ण विशेषताएं हैं।
नारद स्मृति : व्यावहारिक विषयों का नारद स्मृति में निरूपण किया गया है। न्याय, वेतन, सम्पति का विक्रय, क्रय, उतराधिकार, अपराध, ऋण आदि विषयों पर कानून है। इस स्मृति में नारद संगीत ग्रन्थ होने का भी उल्लेख है।
नारद भक्ति-सूत्र : महर्षि नारद द्वारा रचित 84 भक्ति सूत्रों का यदि सूक्ष्म अध्ययन करें तो केवल पत्रकारिता ही नहीं पूरे मीडिया के लिए शाश्वत सिद्धांतो का प्रतिपालन दृष्टिगत होता है। उनके द्वारा रचित भक्ति सूत्र आज के समय में कितना प्रासंगिक है : सूत्र 72 एकात्मकता को पोषित करने वाला अत्यंत सुंदर वाक्य है, जिसमें नारद जी समाज में भेद उन्पन्न करने वाले कारकों को बताकर उनको निषेध करते हैं।
नास्ति तेषु जातिविधारूपकुलधनक्रियादिभेद:।। – अर्थात् जाति, विद्या, रूप, कुल, धन, कार्य आदि के कारण भेद नहीं होना चाहिए।
प्राचीन साहित्य में नारद-सम्वाद
‘श्रीशिवमहापुराण’ में नारद-ब्रह्मा सम्वाद मिलता है जोकि प्राचीन साहित्य में नारद जी की प्रासंगिकता को ही दर्शाता है। ‘श्रीशिवमहापुराण’ के साथ-साथ ‘वामनपुराण’ के भी अलग-अलग प्रकरण में नारद-सम्वाद मिलते हैं। इसके अतिरिक्त जैन धर्म के प्राचीन इतिहास में भी नारद-सम्वाद का उल्लेख किया गया है। ‘वाल्मीकीय रामायण’ १।६ में नारद को ‘त्रिलोकज्ञ’ कहा है। प्रतीत होता है कि तीनों लोको में भ्रमण करने के कारण वह उनका पूर्ण ज्ञान रखते थे। पुराणों में उन्हें देवर्षि कहा गया है। सनत्कुमार, महर्षि नारद के गुरु माने जाते हैं। छान्दोग्योपनिषद्, अध्याय सात के अनुसार नारद जी ने सनत्कुमार से अध्यात्म ज्ञान प्राप्त किया तथा सनत्कुमार से ही उन्होंने रोग-विषयक अनेक कल्प सुने।
आधुनिक कालखंड
आधुनिक भारत का प्रथम हिंदी साप्ताहिक ‘उदन्त मार्तण्ड’ 30 मई 1826 को कोलकाता से प्रकाशित हुआ था। इस दिन नारद जयंती थी तथा इस पत्रिका के प्रथम अंक के प्रथम पृष्ठ पर सम्पादक ने कहा, “देवऋषि नारद की जयंती के शुभ अवसर पर यह पत्रिका प्रकाशित होने जा रही है क्योंकि नारद जी एक आदर्श संदेशवाहक होने के नाते उनका तीनों लोक (देव, मानव, दानव) में समान सहज संचार था।“ वास्तव में, इतिहास के पन्नों को उलट कर देखें तो सूचना संचार (आधुनिक भाषा में – कम्युनिकेशन) के क्षेत्र में उनके प्रयास अभिनव तत्पर और परिणामकारक रहते थे। उनके प्रत्येक परामर्श तथा वक्तव्य में लोकहित प्राथमिक रहता था। इसलिए अतीत से लेकर वर्तमान सहित भविष्य में सभी लोकों के सर्वश्रेष्ठ लोक संचारक अगर कोई है तो वह देवर्षि नारद जी ही है।
प्रथम संस्कृत पत्रिका
उन्नीसवी शताब्दी के मध्यभाग के पूर्व ही सम्पूर्ण भारत में अनेक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ। हिंदी पत्र-पत्रिकाओं के विकास के समय से ही संस्कृत पत्र-पत्रिकाओं का विकास हुआ। उन्नीसवीं शताब्दी में अनेक पत्र-पत्रिकाएं संस्कृत मिश्रित थी। संस्कृत के अनेक श्लोकों का प्रकाशन उनमें होता था। हिंदी का पहला पत्र ‘उदंड मार्तण्ड’ है जिसको देखने से यह ज्ञात होता है कि इस पत्र के संपादक जुगल किशोर शुक्ल संस्कृत के विद्वान थे। अनेक स्वरचित श्लोक इसमें प्रकाशित किए जाते थे। पत्र का नाम भी संस्कृत में था। इसी प्रकार और भी अनेक पत्र-पत्रिकाएं थी, परंतु संस्कृत क्षेत्र से शुद्ध संस्कृत मासिक पत्र 1 जून 1866 को बनारस से ‘काशीविद्यासुधानिधि’ नाम से प्रकाशित हुआ। इसे संस्कृत की पहली पत्रिका माना जाता है। संस्कृत के पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादकों का जीवन सदैव त्यागमय और आदर्श से परिपूर्ण रहा है। अनेक ऐसे सम्पादक हुए हैं जो आजीवन अनेक बाधाओं के रहने पर भी पत्र-पत्रिका के प्रकाशन से विमुख नहीं हुए। लाभ की भावना से किसी भी संस्कृत पत्रिका का प्रकाशन नहीं हुआ है। अतः संस्कृत पत्रकारिता आत्मबल पर निर्भर प्रतीत होती है, इसीलिए यह प्रवाह अनवरत चल रहा है।
महर्षि नारद : समाचारदाता
महर्षि नारद को सबसे बड़ा समाचार दाता माना जाता है। प्राचीन काल से ही समाचार गुप्तचरों द्वारा प्राप्त किए जाते थे। ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ में समाचार दाताओं के नाम मिलते हैं। ‘रामायण’ में ‘सुमुख’ गुप्तचर वेष में समाचारों को जानकार राम जी को बताता है। महाभारत का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि उस समय समाचार दाता लोग निर्धारित रहते थे, जो कि समाचार एक स्थान से लाया और ले जाया करते थे। ‘महाभारत’ में ‘संजय’ की भूमिका भी समाचारदाता के रूप में देखने को मिलती है। संजय ने धृतराष्ट्र को कुरुक्षेत्र में होने वाले युद्ध का वर्णन प्रत्यक्ष की तरह किया है। प्राचीन साहित्य के अध्ययन से यह भी ज्ञात होता है कि ‘भाट’ और ‘दूत’ लोग भी समाचार दाताओं का काम करते थे और उन्हें पूरी स्वतंत्रता दी जाती थी। आदि पत्रकार नारदजी ने वर्तमान के पत्रकारों के लिए जो मानक रखे हैं, उनका भी विश्लेषण आवश्यक है। उन्होंने माया के ज्ञान के लिए एक बार स्त्री का रूप धारण किया। यह उनकी अनुभवात्मक पत्रकारिता व्यवहार का श्रेष्ठ उदाहरण है। उन्होंने मृत्यु का भी जीवनवृत्त लिखा है, जो दुनिया में अन्यत्र नहीं है। कलियुग में भक्ति को दिए वरदान के परिणामस्वरूप भक्ति के प्रचार के लिए भक्तिसूत्र भी लिखा। कलियुग में धर्म की रक्षा एवं सदआचारण के लिए श्री सत्यनारायण कथा की प्रेरण दी। ‘महाभारत’ के पश्चात महर्षि वेदव्यास को शांति एवं संतोष के लिए भगवान श्रीकृष्ण के चरित्र का गुणगान करने के लिए प्रेरित किया। इसी प्रेरणा के परिणामस्वरूप महर्षि वेदव्यास ने ‘श्रीमद्भागवत’ का लेखन किया। इसी के साथ-साथ नारदजी ने ‘इंद्रप्रस्थ’(दिल्ली) के नामकरण एवं ‘कुरूक्षेत्र’ के नामकरण तथा इतिहास का भी वर्णन किया है। आदि पत्रकार नारद जी ने सृष्टि के प्रारम्भ में ही पत्रकारिता के समक्ष जो आदर्श एवं स्वरूप प्रस्तुत किया वह अनुपम है। हमें आदि पत्रकार के रूप में महर्षि नारद के योगदान को सदैव याद रखना चाहिए। उन्होंने महान विपत्ति से मानवता की रक्षा का कार्य किया। एक समय जब अर्जुन दिव्यास्त्रों का परीक्षण करने जा रहे थे, उस समय अर्जुन को ऐसा करने से रोका। नारद जी ने अर्जुन से कहा था कि दिव्यास्त्र परीक्षण व प्रयोग की वस्तु नहीं है। इसका उपयोग आसुरी शक्तियों से सृष्टि की रक्षा करने के लिए किया जाना चाहिए। इस प्रकार देवर्षि नारद ने शुचिता के साथ पत्रकारिता के कार्यों का निर्वहन किया। उनका पत्रकार कर्म श्रेष्ठ और सर्वोत्तम है।
महर्षि नारद : प्रासंगिकता
सोशल मीडिया के पदार्पण से पत्रकारिता में नारदीय परंपरा और भी प्रासंगिक हो गई है। किसी भी कार्य को जब शुरू किया जाता है तो धीरे-धीरे काल प्रवाह में उसके कुछ उच्च आदर्श स्थापित हो जाते हैं। कालांतर में उस कार्य में लगे लोग उन आदर्शों का उदाहरण देने लगते हैं और प्रयास किया जाता है कि उन आदर्शों तक पहुँचा जाए। उस व्यवसाय में लगा व्यक्ति यदि उन आदर्शों का पालन करने का प्रयास करता है तो उसकी प्रसंशा होती है। सभी का प्रयास रहता है कि इन आदर्शों का पालन किया जाए। कितना पालन हो पाता है कितना नहीं, यह अलग विषय है। लेकिन आदर्श सदैव सामने रहने चाहिए ताकि वे मार्गदर्शन करते रहें। आदर्श राजनीतिज्ञ कैसा होना चाहिए, इसके लिए कई बार सरदार पटेल या लाल बहादुर शास्त्री द्वारा स्थापित आदर्शों का उदाहरण दिया जाता है। कुटनीतिज्ञ कैसा होना चाहिए? तब कुटनीतिज्ञ चाणक्य का नाम लेते हैं। आदर्श राजा या आदर्श राज्य कैसा होना चाहिए ? इसके लिए रामराज्य का उदाहरण दिया जाता है। सत्य बोलने की बात करनी हो तो महाराजा हरिश्चंद्र के उच्च आदर्श का नाम लिया जाता है। ठीक उसी प्रकार जब पत्रकारिता के उच्च आदर्श की बात की जाती है तो सहज ही महर्षि नारद का नाम स्मरण हो आता है। वस्तुतः पत्रकारिता में आदर्शों की खोज या आदर्श पत्रकार की पहचान ही हमें महर्षि नारद तक ले जाती है। खबर लेने, देने या संवाद रचना में जो आदर्श और परंपरा उन्होंने स्थापित की थी, वह आज की पत्रकारिता के लिए एक मानक है। लोक संचार में उन्होंने जो मूल्य स्थापित किए वे आज के पत्रकारों के लिए आदर्श माने जाते हैं।
नारद जयंती को लेकर पूर्वाग्रह
‘आद्य पत्रकार देवर्षि नारद’ यह शीर्षक देखकर कई प्रगतिशील तथा उदार कहलाने वाले पत्रकारों की भौंहें चढ़ सकती हैं। वे कह सकते हैं कि संघ वाले हर चीज के लिए कोई न कोई पौराणिक संदर्भ ढूंढकर समाज पर थोपना चाहते हैं। उन्हें यह जानकार और भी आश्चर्य होगा कि ज्येष्ठ कृष्ण द्वित्तीया को देश के अनेक राज्यों में नारद जयंती के कार्यक्रम उत्साहपूर्वक सम्पन्न हो रहे हैं। ऐसे कार्यक्रमों में जहाँ पत्रकारों को सम्मानित किया जा रहा है तथा किसी वरिष्ठ पत्रकार द्वारा राष्ट्रीय दृष्टिकोण से मीडिया का प्रबोधन भी हो रहा है। नारद जयन्ती के कार्यक्रमों में धीरे-धीरे बड़ी संख्या में पत्रकार सहभागी हो रहे हैं। जिस किसी राज्य में पहली बार यह कार्यक्रम होता है तब एक उपहास की प्रतिक्रिया कुछ लोगों द्वारा उठाई जाती है, किंतु अब अनेक राज्यों में यह एक प्रतिष्ठित कार्यक्रम बन गया है। देवर्षि नारद आद्य पत्रकार थे, यह संघ की खोज है, ऐसा मिथ्यारोप कुछ लोग कर सकते हैं, परंतु यह जानकार उन्हें शायद हैरानी होगी कि भारत का प्रथम हिंदी साप्ताहिक ‘उदन्त मार्तंड’ 30 मई, 1826 को कोलकाता से प्रारम्भ हुआ था। 30 मई 1826 को ज्येष्ठ कृष्ण द्वित्तीया, नारद जयंती थी। उसके प्रथम अंक के प्रथम पृष्ठ पर सम्पादक ने आनंद व्यक्त किया था कि आद्य पत्रकार देवर्षि नारद की जयंती के शुभ अवसर पर यह पत्रिका प्रकाशित होने जा रही है। यह घटना संघ की स्थापना के करीब एक शतक पहले की है।
सम्पूर्णानंद के अनुसार- “पत्रकारों को चाहिये कि वह महर्षि नारद को अपना आद्यगुरु मानें। महर्षि नारद प्रखर विचारक थे। शौर्य, धैर्य और आत्म-त्याग की खबर वे दिगन्त तक फैलाते रहे। सद्गुणों की कीर्ति फैलाने की तथा विपत्ति और फूट के नाश की इच्छा से बढ़कर और कौन दूसरा आदर्श हो सकता है।“ वस्तुतः भगवत-भक्ति की स्थापना तथा प्रचार के लिए नारद जी का आविर्भाव हुआ है। उन्होंने कठिन तपस्या से ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया है। देवर्षि नारद धर्म के प्रचार तथा लोक-कल्याण हेतु सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। इसी कारण सभी युगों में, सब लोकों में, समस्त विद्याओं में, समाज के सभी वर्गों में नारद जी का सदा से प्रवेश रहा है। मात्र देवताओं ने ही नहीं, वरन दानवों ने भी उन्हें सदैव आदर दिया है। समय-समय पर सभी ने उनसे परामर्श लिया है।
श्री तपन कुमार,सह क्षेत्र प्रचार प्रमुख,पश्चिम उत्तर प्रदेश क्षेत्र,राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ