ब्रह्म-विद्या है धन्यता का पथ

ब्रह्म-विद्या है धन्यता का पथ

सुमित कुमार,नोएडा

जिसे अपनी आत्म-गरिमा का भान हो गया, जो संसार से परे किसी अदृश्य शक्ति-स्रोत से जुड़ गया, जिसकी प्रतिभा जाग्रत हो गई तथा जिसके सभी द्वंद समाप्त हो गए, वही ब्रह्म-विद्या का अधिकारी है। जब किसी मनुष्य के जीवन में इसका प्रवेश होता है वह पूर्ण परिवर्तित हो जाता है। यह महान कल्याण की विद्या है। इसके द्वारा सभी प्रकार के मनोभावों पर विजय प्राप्त कर मनुष्य चमत्कृत हो उठता है। जिसने भी ब्रह्म-विद्या का अवलंबन प्राप्त किया है उसके जीवन में किसी चीज की कमी नहीं रह गई। हम पूर्णतः मुक्त हो जाते हैं यदि अपने भीतर से सभी आसक्ति-विकार मिटा दें तथा उसे प्राप्त करने का प्रयास करें जो कि हमारा वास्तविक ध्येय है। वह है ब्रह्म। जो उसे जान जाता है उसी फिर इस संसार में भटकना नहीं पड़ता अपनी क्षुधापूर्ति हेतु। उसके सभी कार्य उच्च-दृष्टिकोण से होने लगते हैं तथा उसका जीवन सदैव आत्मा का प्रतिनिधित्व करता हुआ अपनी अंतिम परिणति को प्राप्त करता है। ब्रह्म-विद्या के साधक को यह समझना चाहिए कि यह संसार मात्र उसकी उन्नति का साधन है, इसमें कुछ विशेष नहीं। जो इसमें अपनापन जोड़ देता है उसे दुख का सामना करता पड़ता है तथा जिसकी चेतना जाग्रत है, जो यह देख सका कि मैं अपने आप में पूर्ण समर्थ हूं इसके भ्रम-जंजाल को समझने में वह इस जीवन को इसके यथार्थ प्रयोजन में लगाने में समर्थ होता है। हमारी आत्मा जानती है कि उसे जाना कहां है, हम उसे संसार में फंसाए रहते हैं। जो यह समझ गया कि मुझे तो उस एकत्व के स्रोत से जा मिलना है जो कि मेरी सभी क्षुधाओं का अंत है उसे ही यह दृष्टि प्राप्त होती है कि वह जीवन को संवारे, हर प्रकार की दुविधा-समस्या से मुक्त हो तथा उसे एकत्व के प्रयोजन हेतु लगा सके। जिसकी आत्मा जाग गई वह फिर सोया नहीं रह सकता है। उसे स्वतः ही उत्थान का मार्ग दिखाई देगा तथा उसका जीवन अपने उच्च-लक्ष्य के प्रति समर्पित रहेगा। जब तक मनुष्य यह नहीं पहचान लेता है कि उसका उद्गम विराट ब्रह्म ही है तथा उसी से प्रेरित उसके क्रियाकलाप होने चाहिए, तब तक उसका जीवन पूर्ण रूप से शांति को प्राप्त नहीं करता तथा बिना शांति के मुक्ति संभव नहीं। सर्वप्रथम हमें अपने बंधनों को मिटाने का प्रयास करना चाहिए, तदुपरांत अपनी शक्ति-संपदा को आदर्श प्रयोजन में लगाने हेतु तत्पर होना चाहिए। जो यह कर गया उसे ही पूर्णता का पथ प्रशस्त होता है तथा वह हर प्रकार की पीड़ा-मोह से परे अपने दिव्य स्रोत से जा मिलता है।

इस विद्या के द्वारा मनुष्य अपने भीतर के दिव्य वैभव को उजागर करने में सफल होता है तथा उसे किसी भी बात की चिंता नहीं रह जाती। उसका जीवन सदा निश्चिंत एकत्व की परिधि में भ्रमण करने लगता है, उसे यही प्रतीत होता है कि मेरे भीतर की प्रेरणा ही मुखरित होकर मुझसे सब कार्य कराती है। मेरा अपना कुछ भी नहीं तथा मैं इस संसार में मात्र एक माध्यम हूं। मुझे अपना कर्तव्य निभाना है तथा पुनः उस सुख सागर में जा मिलना है जिससे कि मैं आया हूं। यही अध्यात्म का सार है तथा इसी के द्वारा जीवन में पूर्णता प्राप्त की जाती है।
सुमित कुमार,नोएडा

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