मानवाधिकार किसी भी सभ्य समाज के
विकास का मूल आधार
विश्व मानवाधिकार दिवस,10 दिसम्बर 2024,पर विशेष
तपन कुमार सह क्षेत्रीय प्रचार प्रमुख पश्चिमी उत्तर प्रदेश
मानव अधिकारों से तात्पर्य मानव के उन न्यूनतम अधिकारों से है जो प्रत्येक व्यक्ति को आवश्यक रूप से प्राप्त होने चाहिए, मानव अधिकारों का सम्बन्ध मानव की स्वतंत्रता, समानता एवं गरिमा के साथ जीने के लिए स्थितियाँ उत्पन्न करने से होता है। मानव अधिकार ही समाज में ऐसा वातावरण उत्पन्न करते हैं जिसमें सभी व्यक्ति समानता के साथ निर्भीक रूप से मानव गरिमा के साथ जीवन यापन करते हैं।
विश्व में प्राचीन काल से किसी न किसी रूप में मानवाधिकार की अवधारणा विद्यमान थी, मानवाधिकार किसी भी सभ्य समाज के विकास का मूल आधार होते हैं। मानव अधिकार का जन्म धरती पर मानव के विकास के साथ ही हुआ, जैसे-जैसे सभ्यता का विकास हुआ, उसी क्रम में मानव अधिकारों का उत्तरोतर विकास होता गया।
1914-1945 के मध्य की अल्पावधि में दो-दो विश्व युद्धों की विभीषिका में लाखों निर्दोषों के जीवन और धान-धान्य को निगलने की बीभत्स स्थिति ने विश्व समुदाय को यह सोचने के लिए विवश किया कि वैश्विक स्तर पर एक ऐसी सर्व सहमति बने जिसके अंतर्गत देश, क्षेत्र, धर्म, लिंग, भाषा जैसी पहचानों से ऊपर उठकर सम्पूर्ण मानव जाति के मौलिक अधिकारों और सम्मान की रक्षा सुनिश्चित हो सके।
10 दिसंबर, 1948 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने मानवाधिकारों की सार्वभौमिक उद्घोषणा की थी। 4 दिसंबर, 1950 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने एक पूर्ण सत्र में, एक प्रस्ताव (423 [5]) पारित किया, जिसमें संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्य देशों और किसी अन्य इच्छुक संगठनों को मानवाधिकारों की सार्वभौमिक उद्घोषणा की तिथि 10 दिसंबर, 1948 को एक वार्षिक उत्सव के रूप में मनाने के लिए आमंत्रित किया गया और यह निर्णय लिया गया कि इस ऐतिहासिक तिथि की वर्षगांठ पर प्रति वर्ष इसका आयोजन किया जाएगा। संयुक्त राष्ट्र महासभा के उसी प्रस्ताव के अनुरूप प्रति वर्ष 10 दिसंबर को “विश्व मानवाधिकार दिवस” विश्व भर में मनाया जाता है।
मानवाधिकार उच्चायुक्त कार्यालय द्वारा मानवाधिकारों की घोषणा का विश्व की 500 से अधिक भाषाओं में अनुवाद संग्रह और विश्व भर में वितरण किया जा चुका है जिसके लिए उसे गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड द्वारा सम्मानित किया जा चुका है। मानव अधिकारों को बनाए रखने के प्रयास के एक विशेष पहलू की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए हर वर्ष एक विषय चुना जाता है। विषयों में मनुष्य मनुष्य के बीच भेदभाव समाप्त करना, गरीबी से लड़ना और मानवाधिकारों के उल्लंघन के पीड़ितों की रक्षा करना सम्मिलित है।
विश्व मानवाधिकार दिवस 10 दिसंबर 2024 को मनाया जाएगा, ताकि दुनिया को मानवाधिकारों के बारे में शिक्षित करने और इस वैश्विक मुद्दे को संबोधित करने में मदद मिल सके।
मानव परिवार के सदस्यों में अंतर्निहित गरिमा और सभी के समान और अहरणीय अधिकारों की मान्यता संसार में स्वतंत्रता, न्याय और शांति की नींव है। मानवाधिकारों की उपेक्षा और अवमानना के परिणामस्वरूप बर्बर कृत्य हुए हैं, जिससे मानव जाति के विवेक पर अत्याचार हुआ है, और एक ऐसी दुनिया का आगमन हुआ है जिसमें मनुष्य को बोलने और विश्वास की स्वतंत्रता और अभाव तथा भय से मुक्ति का आनंद प्राप्त होगा और जिसे आम लोगों की सर्वोच्च आकांक्षा के रूप में घोषित किया गया है।
संयुक्त राष्ट्र ने मौलिक मानवाधिकारों, मानव व्यक्ति की गरिमा और मूल्य तथा पुरुषों और महिलाओं के समान अधिकारों में अपने विश्वास की पुष्टि की है और व्यापक स्वतंत्रता में सामाजिक प्रगति और जीवन के बेहतर मानकों को बढ़ावा देने के लिए कृतसंकल्प हैं। सदस्य राष्ट्रों ने संयुक्त राष्ट्र के साथ सहयोग, मानवाधिकारों और मौलिक स्वतंत्रताओं के लिए सार्वभौमिक सम्मान को बढ़ावा देने और प्राप्त करने का वचन दिया है।
प्राचीन भारतीय परंपरा में मानवाधिकार
भारतीय परंपरा में मानवाधिकारों की एक समृद्ध यात्रा रही है। सनातन काल के नैतिक अवधारणा से लेकर आधुनिक काल तक लिखित और श्रुति साहित्य दोनों में यह उपलब्ध रही है। ऋग्वेद से लेकर रामचरितमानस तक इसकी प्रतिध्वनि स्पष्ट रूप से सुनाई देती है। भारतीय संस्कृति, सनातन परंपरा और भारत के धार्मिक साहित्य, लोक साहित्य एवं समस्त प्रकार के साहित्य में सनातन काल से मौलिक अधिकारों की उपलब्धता रही है। कालांतर में विदेशी आक्रांताओं द्वारा बलपूर्वक समाजों पर कब्ज़ा किया जाना और उनके राजनीतिकरण किए जाने के कारण मानवाधिकारों के सामने गंभीर संकट उत्पन्न हुआ जिसके निराकरण में भारतीय संविधान की स्थापना और उसमें मानवाधिकारों की स्पष्ट घोषणा मानवाधिकारों को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता के साथ प्राप्त होती है।
मानवाधिकारों के भारतीय हिन्दू दृष्टिकोण को संयुक्त राष्ट्र संघ सहित विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने मान्यता प्रदान की है तथा उसे स्वीकार किया है। इसके अलावा विश्व के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय ऑक्सफोर्ड कैंब्रिज जान्स हापकिंस, हार्वर्ड आदि में मानवाधिकारों के बारें में हिन्दू दृष्टिकोण अध्ययन के प्रमुख विषय के रूप में अध्ययन मानवाधिकारों की अवधारणात्मक श्रृंखला का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है।
भारतीय परंपरा सामाजिक न्याय पर आधारित रही है। उसमें उंच-नीच का भेद नहीं रहा है। शील प्रधान व चरित्र प्रधान मनुष्य ही उच्च है। जाति गौण है। भारतीय संस्कृति में सभी युगों में विचार स्वातंत्र्य एवं उपासना स्वातंत्र्य भावनाओं की पूजा की गयी। गौतम धर्म सूत्र में वर्णित है कि राजा का विशिष्ट उत्तरदायित्त्व है सभी प्राणियों की रक्षा करना, न्यायोचित दण्ड देना, शास्त्र-विहित नियमों के अनुसार रक्षा करना तथा पथभ्रष्ट लोगों को सन्मार्ग दिखाना।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र, महाभारत तथा अन्य ग्रंथों ने प्रजा के अधिकारों के रक्षण हेतु राजा के समक्ष एक आदर्श प्रतिमान उपस्थित किया है। प्रजा के सुख में रजा का सुख और प्रजा के हित में ही राजा का हित है। विष्णु धर्मसूत्र में भी यही बात कही गयी है। मार्कण्डेय पुराण में राजा मरूत की मातामही ने उसे सावधान किया है। “राजा का शरीर आमोद-प्रमोद के लिए नहीं बना है, प्रत्युत वह कर्त्तव्य-पालन करने तथा पृथ्वी की रक्षा करने के प्रयत्न में हर कष्ट सहने के लिए है।‘
प्राचीन शिक्षण पद्धति का अवलोकन करने से इस बात का स्पष्ट संकेत मिलता है कि अध्ययन हेतु पहले से ही कोई शुल्क नहीं निर्धारित था। बृहदारण्यक उपनिषद में वर्णित है कि जनक जब याज्ञवल्क्य को गुरूदक्षिणा देते हैं तो याज्ञवल्क्य कहते हैं कि मेरे पिता का मत था कि बिना पूर्ण पढ़ाये शिष्य से कोई पुरस्कार नहीं लेना चाहिए। आपस्यम्ब धर्मसूत्र में वर्णित है कि शिष्य को अपनी योग्यतानुसार गुरू को दक्षिणा देनी चाहिए।
स्त्रियों को शिक्षा का अधिकार था। मध्य एवं वर्तमान काल की अपेक्षा प्राचीन काल में स्त्रियों की शिक्षा सम्बन्धी व्यवस्था कही उच्चतर थी। स्त्रियों ने तो वैदिक ऋचाओं तक की रचना की है यथा अत्रिकुल की विश्वारा ने ऋग्वेद 2/28 अंश की रचना की। उसी कुल की अपाला ने ऋग्वेद के 8/91 अंश की रचना की। ऋग्वेद के 10/39 अंश घोषा काक्षीवती के नाम से जाना जाता है। उपनिषद में विदेह राजा जनक की राजसभा में हुए शास्त्रार्थ में गार्गी का नाम बड़े श्रद्धा के साथ लिया जाता है। भारतीय परंपरा में नारी शिक्षिकाओं की भी परंपरा रही है पाणिनी ने आचार्या एवं उपाध्याया जैसे शब्दों की व्युत्पत्ति की है। सूत्र काल में स्त्रियाँ वेद के मंत्रों का उच्चारण करती हैं। ऋग्वेद मण्डल में अदिति आदित्यों की माता है। विश्ववारा घोषा, अपाला, लोपा मुद्रा आदि विदुषी स्त्रियाँ इस तथ्य को उजाकर करती हैं कि उस समय की स्त्रियों को प्रत्येक क्षेत्र में अधिकार प्राप्त था।
समानता की धारणा, जो मानवाधिकार की घोषणा के मेरुदंड (रीढ़ की हड्डी) के समान है, ऋग्वेद में विधिवत पाई जाती है –
अज्येस्थासो अकानस्थासा येते सैम भ्रातारो वावरुधुह सौभाग्याः||
– ऋग्वेद, मंडल-5, सूक्त-60, मंत्र-5
(कोई भी श्रेष्ठ या अवर नहीं है; सभी भाई हैं; सभी को सभी के हित के लिए प्रयास करना चाहिए और सामूहिक रूप से प्रगति करनी चाहिए।)
अथर्ववेद में भोजन और पानी के अधिकार जैसे मानवाधिकारों का भी प्रावधान का उल्लेख है –
समानी प्रपा सह वोऽन्नभागः समाने योक्त्रे सह वो युनज्मि। सम्यज्ञ्चो अग्नि सपर्यतारा नाभिमिवाभितः॥
(हे समानता की कामना करने वाले मनुष्यों ! आपके जल पीने के स्थान एक हों तथा अन्न का भाग साथ साथ हो। हम आपको एक ही प्रेमपाश में साथ-साथ बाँधते हैं। जिस प्रकार पहियों के अरे नाभि के आश्रित होकर रहते हैं, उसी प्रकार आप सब भी एक ही फल की कामना करते हुए अग्निदेव की उपासना करें।) – अथर्ववेद – सामनस्य सूक्त
मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा, में प्रसन्न रहने के अधिकार के बारे में कहा गया है, बृहदआरण्यक उपनिषद में आदिकाल से विद्यमान है –
सर्वे भवन्तु सुखिनः , सर्वे संतु निरामया,सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुख भाग भवेत ||
(सभी प्रसन्न रहें, सभी स्वस्थ रहें, सबका भला हो, किसी को भी कोई दुख ना रहे।)
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी सुख का अधिकार पर जोर दिया गया है :-
प्रजासुखे सुखं राज्ञः प्रजानां तु हिते हितम्। नात्मप्रियं हितं राज्ञः प्रजानां तु प्रियं हितम्॥
(प्रजा की खुशी में राजा की खुशी निहित है; उनके कल्याण में उनके कल्याण। राजा इस बात पर विचार नहीं करेगा कि जो स्वयं को अच्छा समझता है; जो कुछ भी उसकी प्रजा को प्रसन्न करता है वह केवल उसके लिए अच्छा है।)
इसी प्रकार नारद स्मृति, हिंदुओं के प्रमुख ग्रंथों में से एक, राजा को अलग आस्थाओं के लोगों की भी रक्षा करने का आदेश देती है –
पसंदनैगमा श्रेनि पूगव्रत गणदिशु,संरक्षित संयम राजा दुर्ग जनपद तथा ||
(राजा को वेद पालकों (नैगमाओं) के साथ-साथ भिन्न-विश्वासियों और अन्य लोगों के संघों को भी राज्य की सुरक्षा प्रदान करनी चाहिए)
प्राचीन हिंदू ग्रंथों में न केवल मानवाधिकारों पर विचारों के तत्व दिए गए हैं बल्कि साथ ही साथ कर्तव्यों पर भी विशेष बल देते हैं। अधिकार और कर्तव्य का यह व्यापक भारतीय दृष्टिकोण निश्चित रूप से अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकारों के सिद्धांत को विकसित और समृद्ध करने में सहायक सिद्ध हो सकता है। पाश्चात्य व्यवस्था में आज भी हमें मौलिक कर्तव्यों का उल्लेख नहीं मिलता है, जबकि मौलिक अधिकारों की भरमार है और कर्तव्य तथा अधिकार के बीच असंतुलन विश्व की अनेकानेक समस्याओं के मूल में है।
भारत जैसे देश में जो सनातन काल से धर्म प्राण और संस्कृति प्रधान देश रहा है, वहां किसी भी प्रकार की राजनीतिक, सामाजिक गतिविधि धर्म और संस्कृति से पृथक और मुक्त नहीं हो सकती। इसी कारण महात्मा गांधी धर्म से मुक्त राजनीति को उचित नहीं मानते थे, उनके लिए धर्म और राजनीति एक ही सिक्के के दो पक्ष हैं, क्योंकि महात्मा गांधी की धर्म और राजनीति की व्याख्या नैतिकता आधारित है और यही भारत की सनातन संस्कृति की परंपरा रही है। एक अत्यधिक बहुलता व्याप्त देश होने के बावजूद सनातन काल से भारत एक सांस्कृतिक देश रहा जिसमें व्यक्ति, समुदाय, जाति, लिंग भेद के लिए कोई स्थान नहीं रहा है। यद्यपि देशकाल परिस्थितियों के अनुसार इसमें समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं लेकिन ऐसी समस्याएँ उसकी सनातन जीवंत प्रवृति को बाधित नहीं कर पायी। इसी कारण विश्व की विभिन्न संस्कृतियाँ जो भारत आयी, वह भारत की सनातन संस्कृति में समाहित हो गई। अतः व्यक्ति की गरिमा और मानवाधिकार भारतीय संस्कृति और भारतीय समाज की मौलिक विशेषता है। इसी कारण सहस्त्रों वर्षों से भारतीय संस्कृति अपने मूल्य के साथ विद्यमान है।
संदर्भ ग्रन्थ
- मानवीय गरिमा और मानवाधिकार: भारतीय दृष्टिकोण, धर्मेन्द्र यादव, रिसर्च एक्सप्रेस, मार्च 2023
- हैरिस एल (2012) द मिराज ऑफ डिग्निटी ऑन हाइवे ऑफ ह्यूमन ‘प्रोग्रेस’- बायस्टैंडर के नजरिए से, ऑथर हाउस
- फ़्लड , गविन डी (1996) हिंदू धर्म का परिचय, कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय प्रेस, 1996,
- पाणिकर आर (1989) इज ह्यूमन राइट्स एक वेस्टर्न कॉन्सेप्ट ? एक हिंदू/जैन/बौद्ध रेफलेक्सन्स
- शर्मा, अरविंद (2004) हिंदू धर्म और मानवाधिकार, एक वैचारिक दृष्टिकोण, नई दिल्ली: ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस