गोवा मुक्ति आंदोलन ,भारतीय जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का योगदान
सतीश शर्मा
13 जून, 1955 को कर्नाटक से भारतीय जनसंघ के नेता और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक जगन्नाथ राव जोशी ने गोवा सत्याग्रह की शुरुआत की.जोशी के साथ वहां लगभग 3000 कार्यकर्ताओं का एक दल गया था, जिसमें महिलाएं भी शामिल थी.गोवा की सीमा पर पहुँचने पर पुर्तगालियों ने सत्याग्रहियों पर लाठी चार्ज एवं गोलियां चला दी.15 अगस्त, 1955 को सत्याग्रह में 5000 से अधिक सत्याग्रहियों पर गोवा में तैनात पुर्तगाली सेना ने गोलियां चला दी और करीब 51 लोग मारे गए.इस प्रकार के अनेक आन्दोलन 1961 तक चलते रहे.गोवा आन्दोलन के लिए प्रसिद्ध संगीतकार और स्वयंसेवक सुधीर फड़के ‘बाबुजी’ ने सांस्कृतिक आधार पर सहायता की थी.सरस्वती आपटे ‘ताई’ के नेतृत्व में गोवा मुक्ति आंदोलन में राष्ट्रीय सेविका समिति ने भी हिस्सा लिया वे पुणे में एकत्रित होने वाले सभी सत्याग्रही गुटों भोजन आदि की व्यवस्था करती थी.जनसंघ के सत्याग्रहियों की संख्या बाकी सभी दलों के सम्मिलित प्रदर्शनकारियों से लगभग चौगुनी थी.
यूनाइटेड फ्रंट आफ गोवन (युएफजी)
मुंबई में यूनाइटेड फ्रंट आफ गोवन (युएफजी) का संगठन अस्तित्व में आ गया.
युएफजी ने दादर को स्वतंत्र करा लिया और नागर हवेली को विनायक राव आप्टे के नेतृत्व में 40-50 संघ के स्वयंसेवकों और प्रभाकर विट्ठल सेनारी व् प्रभाकर वैद्य के नेतृत्व में आजाद गोमान्तक दल के दमन व् गोवा से आये कार्यकर्ताओं ने पुर्तगालियों से आजाद करा लिया. इसके बाद गोवा को स्वतंत्र करने का दवाब बढ़ने लगा, प्रधानमंत्री नेहरू इस समस्या का कूटनीतिक हल चाहते थे. उनका मत था कि उस वक्त पुर्तगाल नाटो का सदस्य था, उस पर कश्मीर का भी विवाद चल रहा हैं. ऐसे में भारत की तरफ से सैनिक कार्यवाही उचित नहीं हैं. जनता ने प्रधानमंत्री नेहरू के कूटनीतिक रास्ते को नकार दिया.
इसके बाद साल 1955 में गोवा मुक्ति आन्दोलन की शुरुआत हुई.
आन्दोलन के पहले ही दिनों में राजा भाऊ महाकाल की गोली लगने से मृत्यु हो गयी. इस घटना पर जनता ने भारत सरकार पर आंदोलनकारियो की मदद की गुहार लगाई जिसपर सरकार ने उलटे आन्दोलनकारियों पर ही रोक शुरू कर दी.
सत्याग्रहियों पर अत्याचार
पुर्तगाली शासन के अत्याचारों के परिणाम स्वरूप अखिल भारतीय जनसंघ के मंत्री ‘कर्नाटक केसरी’ जगन्नाथ राव जोशी तथा महाराष्ट्र जनसंघ के उपाध्यक्ष अण्ण साहेब कवड़ी की स्थिति अत्यंत चिंताजनक हो गई थी.
इसके अतिरिक्त जगन्नाथ राव जोशी के नेतृत्व में गोवा में प्रविष्ट होने वाले जनसंघ के जत्थे के दो सत्याग्रहियों की भयंकर यातनाओं के परिणाम स्वरूप मृत्यु हो गई थी, इन बलिदानियों में से एक मथुरा के अमीरचंद गुप्त भी थे. (पांचजन्य, 1955)
सत्याग्रहियों का बलिदान पर पांचजन्य की रिपोर्ट
15 अगस्त को जिस समय समस्त भारत में स्वतंत्रता की 9वीं वर्षगांठ की खुशियां मनाई जा रही थी, उस समय अखण्ड भारत के पुजारी माता के लाडले, वीर देशभक्त बर्बर पुर्तगालियों की बन्दूकों के सामने सीने खोलकर बढ़ रहे थे तथा उन पर निरन्तर भीषण रूप में गालियां बरसाई जा रही थीं. एक–दो नहीं ठीक 51 वीरों ने उस दिन मां की वेदी पर स्वजीवन की आहुति चढ़ाई. घायलों की संख्या तो 300 के लगभग पहुंच गई. एक छोटे से क्षेत्र में एक दिन में निहत्थे लोगों की इतनी बड़ी संख्या में हत्या की गई हो इसका उदाहरण संसार के इतिहास में ढूंढ़ने पर शायद ही मिल सके.
15 अगस्त को इधर तो गगन मण्डल में सूर्य का आगमन हुआ उधर सत्याग्रहियों की टोलियों ने “पुर्तगालियो भारत छोड़ो” के जयघोष के साथ गोवा की सीमा में प्रवेश किया. सीमा पर तैनात पुर्तगाली सैनिकों ने निहत्थे सत्याग्रहियों पर अपनी ब्रोनगनों, स्टेनगनों, रायफलों तथा बन्दूकों के मुंह खोल दिए. एक–के–बाद दूसरा सत्याग्रही शहीद होने के लिए बढ़ने लगा. मौत से जूझने की होड़ लग गई. एक दिन में 5000 सत्याग्रही गोवा की सीमा में प्रविष्ट हुए, जिनमें से 51 के लगभग घटनास्थल पर शहीद हुए तथा तीन सौ से ऊपर घायल. इस अहिंसात्मक संग्राम में पुरुषों ने जिस वीरता का परिचय दिया, उससे कहीं अधिक वीरता का प्रदर्शन महिलाओं ने किया. चालीस वर्षीया सुभद्रा बाई ने तो झांसी की रानी की ही स्मृति जाग्रत कर दी. आपने पुरुष सत्याग्रही से झण्डा छीनकर सवयं छाती पर गोली खाकर अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया. (पांचजन्य, 22 अगस्त, 1955)
जनसंघ की जनसभा और दीनदयाल उपाध्याय का भाषण
दिल्ली में जनसंघ की ओर से राजेंद्र नगर में एक विशाल सार्वजनिक सभा का आयोजन हुआ था.
जिसमें बलिदानियों के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए सरकार से पुलिस कार्यवाही की माँग की गई.
सभा में दीनदयाल उपाध्याय ने कहा, “पुर्तगाली शासन बर्बर अत्याचारों से जनता को भयभीत करके भारतीयों को गोवा में आंदोलन करने से रोकना चाहता है किंतु भारतवासी डरते नहीं है. वे पुर्तगाली अत्याचारों के सम्मुख किंचित भी नहीं झुकेंगे. जनसंघ इसके पश्चात बड़ी संख्या में सत्याग्रही भेज कर आंदोलन को प्रबल बनाएगा.”
गृहमंत्री पंडित गोविन्द बल्लभ पंत को तार भेजकर जनसंघ के महामंत्री दीनदयाल उपाध्याय ने अमीरचंद की मृत्यु की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए जगन्नाथ राव जोशी आदि सत्याग्रहियों की सुरक्षा की माँग की थी. (पांचजन्य, 1955)
गोवा मुक्ति आन्दोलन को पुलिस सहायता के लिए श्री गुरुजी की नेहरू सरकार से मांग
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर (गुरुजी) ने एक वक्तव्य में कहा, “गोवा में पुलिस कार्रवाई करने और गोवा को मुक्त कराने का इससे ज्यादा अच्छा अवसर कोई न आएगा. इससे हमारी अन्तरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा में वृद्धि होगी और आसपास के जो राष्ट्र सदा हमें धमकाते रहते हैं, उन्हें भी पाठ मिल जाएगा. भारत सरकार ने गोवा मुक्ति आन्दोलन का साथ न देने की घोषणा करके मुक्ति आन्दोलन की पीठ में छुरा मारा है. भारत सरकार को चाहिए कि भारतीय नागरिकों पर हुए इस अमानुषिक गोलीबारी का प्रत्युत्तर दे और मातृभूमि का जो भाग अभी तक विदेशियों की दासता में सड़ रहा है, उसे अविलम्ब मुक्त करने के उपाय करे.” (पांचजन्य, 22 अगस्त, 1955)
पुर्तगाल सरकार ने कुछ सुधारों की घोषणा और जनसंघ का स्पष्ट मत
पुर्तगाल सरकार ने उपनिवेशों में सुधार करने की घोषणा के खिलाफ अखिल भारतीय जनसंघ के महामंत्री दीनदयाल उपाध्याय का वक्तव्य
पुर्तगाल सरकार ने कुछ सुधारों की घोषणा की है जिसके अनुसार गोवा, दमन तथा द्वीप के शासन के निमित्त एक प्रतिनिधि सभा के संगठन का आश्वासन प्रदान किया गया है. मुक्ति आंदोलन के प्रति संसार के लोगों की बढ़ती हुई सद्भावना को दबाने के लिए तथा समस्त समस्या को ओझल करने के लिए चली गई चाल के अतिरिक्त यह कुछ नहीं है. गोवा और भारतवासियों के समक्ष समस्या किसी प्रकार के शासन विशेष को विकसित करना नहीं है लेकिन राष्ट्रीय एकता और अखंड भारत के निर्माण का प्रश्न है. गोवा तथा अन्य पुर्तगाल उपनिवेशों की जनता अपनी मातृभूमि से मिलने के लिए निरंतर संघर्ष कर रही है. अत: किसी भी प्रकार का ऐसा प्रतिनिधि शासन, जिसका संगठन विदेशी गवर्नर जनरल के आधीन किया गया हो कभी भी उक्त आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं कर सकता.
कुछ भी हो किंतु इस घोषणा ने मुक्ति आंदोलन की सफलता प्रमाणित कर दी है, क्योंकि स्वेच्छाचारी पुर्तगाली शासन को बाध्य होकर आश्वासनीय उपायों को स्वीकार करना पड़ा है. साम्राज्यवादी शक्तियों का यह एक पुराना एवं भ्रष्ट हथकंडा है जो राष्ट्रीयता के उठते हुए तूफान के सम्मुख अधिक दिन तक नहीं टिक सकता. पुर्तगालियों को पूर्णत: भारत छोडऩा होगा. उनका हित इसी में है कि वे इतिहास के पृष्ठों पर अंकित घटना–चक्र को देखें और इससे पूर्व कि उन्हें देश छोडऩे के लिए बाध्य होना पड़े वे स्वयं ब्रिटेन तथा फ्रांस का अनुसरण करके देश से बाहर चले जाएँ.
अत: सुधारों का विवेचन करना अनावश्यक प्रतीत होता है। स्वतंत्रता के सेनानी तब तक संघर्ष करते रहेंगे जब तक कि ये बस्तियाँ भारत के साथ पूर्णत: सम्मिलित नहीं हो जातीं. (पांचजन्य, 18 जुलाई, 1955)
कांग्रेस का प्रस्ताव और जनसंघ का उत्तर
गोवा–मुक्ति आंदोलन का केंद्र पूना, बेलगाँव और पंजिम के साथ भारत की राजधानी दिल्ली में भी था.
हर दिन इस विषय को लेकर कुछ न कुछ सार्वजनिक कार्यक्रम राजधानी में आयोजित किये गए थे.
जबकि भारत के विभिन्न दल गोवा सत्याग्रह में भाग ले रहे हैं लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष के आदेशानुसार कांग्रेसजन इस आंदोलन से दूर रहे.
23 जुलाई, 1955 को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक इस प्रश्न पर विचार करने के लिए बुलाई गई. जिसमें कांग्रेस ने एक प्रस्ताव पारित किया जिसकी चार मुख्य बाते थी – (1) गोवा का आंदोलन प्रधानत: गोवावासियों को चलाना चाहिए, (2) भारत से बड़ी संख्या में सत्याग्रही न जाएँ, (3) गोवा की समस्या शांतिपूर्ण ढंग से ही सुलझानी चाहिए, और (4) गोवा भारत का होकर रहेगा.
जनसंघ ने उपर्युक्त बातों एक–दूसरे का विरोधी और सभी बिन्दुओं को निराधार एवं गलत बताया. जनसंघ के अनुसार गोवा का आंदोलन प्रधानत: गोवावासियों के द्वारा चलाए जाने की माँग करने के अर्थ है कि प्रथमत: हम गोवावासियों को भारतीयों से अलग समझते हैं. गोवा भारत का अंग होने के कारण गोवा की आजादी भारत की आजादी का ही भाग है और इसलिए यह प्रधानत: भारतवासियों का जो आजाद हो चुके हैं कर्तव्य है कि वे अपने उन भाईयों की आजादी के लिए प्रयत्न करें जो अभी भी पराधीनता के पाश में बँधे हैं.
जनसंघ का कहना था, “गोवा के छह लाख लोगों ने भी स्वतंत्रता आंदोलन में कम बलिदान नहीं किए थे. सत्याग्रह के दौरान वहां तीन हजार से अधिक सत्याग्रहियों को गिरफ्तार किया जा चुका था. इस अनुपात से भारत की आजादी के लिए उन्नीस लाख लोगों को जेल की यात्रा करनी चाहिए थी. गोवा के बंधुओं ने बहुत मूल्य दिया है और अभी भी दे रहे हैं. बार–बार उनसे इस आंदोलन को प्रमुखतया चलाने की माँग करना उनके प्रति सरासर अन्याय है, हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि गोवा के लोग और भी बलिदान दे सकते हैं. यदि उन्हें विश्वास हो जाए कि सरकार और जनता उनकी मदद पर करेंगे. किंतु अभी तक का इतिहास तो उलटा ही रहा है. भारत सरकार ने उन्हें सदा धोखा दिया है.
जनसंघ ने कहा कि गोवा की समस्या को शांति से सुलझाने का आग्रह और बड़ी संख्या में सत्याग्रह पर रोक ये दोनों कैसे चल सकते हैं. सत्य तो यह है कि पुर्तगाल शांति की भाषा नहीं समझता. वह एक अधिनायकवादी हुकूमत है जो गोवा में ही नहीं पुर्तगाल में भी आतंककारी उपायों से काम ले रही है. सत्याग्रह भी जैसा चल रहा है वहाँ इकतरफा शांति है. पुर्तगाली तो जघन्य अत्याचार करके अशांति उत्पन्न कर ही रहे हैं. यदि भारत सरकार पुलिस कार्रवाई नहीं करना चाहती तो जन–सत्याग्रह पर क्यों रोक लगाई जाती है. कांग्रेस इसका उत्तर नहीं दे सकती.
जनसंघ के अनुसार कांग्रेस का दावा कि गोवा भारत का अंग होकर रहेगा एक सत्य का ही निरूपण है। आज इसकी घोषणा की आवश्यकता नहीं, आवश्यकता तो उस नीति निर्धारण की है जिसके अनुसार गोवा–भारत का अंग हो जाए. कांग्रेस ने इस दृष्टि से देश को इस समय बड़ा धोखा दिया है तथा गोवा आंदोलन के एक नेता के शब्दों में आंदोलन की पीठ में छुरा भोंकने का प्रयत्न किया है. (पांचजन्य, 1 अगस्त, 1955)
सत्याग्रहियों की पहली जीत और सरकार पर पुलिस कार्यवाही के लिए दवाब, अन्य दलों का कांग्रेस को समर्थन
कांग्रेस के प्रस्ताव के पश्चात यह स्पष्ट हो जाता है कि आंदोलन की मुख्य जिम्मेदारी विरोधी दलों के ऊपर थी.
हालाँकि कम्युनिस्ट पार्टी ने गोवा मुक्ति के लिए पुलिस कार्रवाई की माँग की थी लेकिन फिर श्री गोपालन ने सार्वजनिक सभा में कांग्रेस कार्यसमिति के प्रस्ताव का स्वागत किया.
अशोक मेहता और सुचेता कृपलानी ने भी कांग्रेस का साथ दिया.
भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष प्रेमनाथ डोगरा ने कई पत्र सभी दलों के नेताओं को लिखे. अधिकतर दलों ने गोवा मुक्ति के लिए जनसंघ को समर्थन देने से दूरी बना ली.
जनसंघ की मांग थी कि एक अखिल भारतीय स्तर पर सर्वदलीय समिति का निर्माण किया जाए.
कांग्रेस के सदस्य भी जनता के मन में यह भ्रम पैदा करने का प्रयत्न कर रहे थे कि सरकार की नीति ठीक है और कांग्रेस कार्यसमिति के प्रस्ताव पास करने के बाद कुछ बचा नहीं.
सत्याग्रहियों की भावनाओं का आदर करते हुए प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अपनी गोवा–संबंधी नीति में कुछ परिवर्तन भी किया. उन्होंने घोषणा की है कि दिनांक 8 अगस्त, 1955 से भारत में पुर्तगाली दूतावास बंद कर दिया जाएगा.
प्रधानमंत्री नेहरू ने यह भी स्वीकार किया था कि पुर्तगाल बातचीत करने के लिए तैयार नहीं है.
जनसंघ के अनुसार, “समझौता न होने और भारत सरकार द्वारा पुर्तगाली दूतावास बंद करने का निर्णय के बाद पुलिस कार्रवाई अथवा शांतिपूर्ण जन–सत्याग्रह दो ही मार्ग रह जाते हैं। आश्चर्य का विषय है कि प्रधानमंत्री नेहरू इन दोनों के ही लिए तैयार नहीं है. ऐसी स्थिति में गतिरोध उपस्थित हो जाता है. यदि भारत की जनता नेहरू सरकार पर और दबाव डाले तो उसे कोई सक्रिय कदम उठाने पर मजबूर किया जा सकता है. (पांचजन्य, 1 अगस्त, 1955)
अंतरराष्ट्रीय स्थिति और भारत
अंतरराष्ट्रीय स्थिति पर जनंसघ का पक्ष :
पहला प्रश्न तो यह है कि जब भारत सरकार यह कहती है कि गोवा की समस्या अंतरराष्ट्रीय दबाव से हल होगी तो देशवासी यह जानना चाहेंगे कि इस समय अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में कितने और कौन से देश हैं जो भारत के पक्ष में पुर्तगाल पर दबाव डालने के लिए तैयार प्रतीत होते हैं. हमें पता है कि गोवा में अहिंसक तथा नि:शस्त्र भारतीय सत्याग्रहियों का दिन दहाड़े कत्ले–आम होने पर भी दुनिया के बड़े कहलाने वाले किसी भी राष्ट्र ने उसके विरुद्ध एक शब्द तक नहीं कहा. इतने दिन से गोवा आंदोलन चल रहा है किंतु ‘चार बड़ों’ में से भला कोई भी भारत के पक्ष में कुछ बोला है. बर्मा, हिंदेशिया, पेकिंग में ही थोड़ी बहुत भारत के पक्ष में प्रतिक्रिया हुई है किंतु पुर्तगाल पर उसका कोई प्रभाव पडऩे की संभावना नहीं.
इससे संबंधित दूसरा प्रश्न यह है कि भारत राष्ट्रमंडल का ‘सम्मानित’ सदस्य कहलाता है परंतु दूसरी ओर हम देखते हैं कि गोवा के प्रश्न पर ब्रिटिश प्रतिक्रिया भारत के पक्ष में होने के बजाय उल्टा भारत के विरुद्ध ही प्रकट हुई है. ब्रिटेन के कुछ पत्रों ने तो गोवा के प्रश्न पर भारत के साथ न्याय करने के बजाय उल्टा पीठ में छुरा भोंका है और इतना ही नहीं तो ऐसा लगता है कि इन भारत–विरोधी पत्रों की प्रतिक्रिया बहुत कुछ ब्रिटिश सरकार की अप्रकट प्रतिक्रिया की झलक है.
कहने का तात्पर्य यह कि ब्रिटिश प्रेस ने तो अमेरिका से भी अधिक गोवा के प्रश्न पर भारत के विरुद्ध विष–वमन किया है और मजा यह है कि भारत ब्रिटिश राष्ट्रमंडल में रहने का पुरस्कार उसे क्या मिल रहा है. यही न कि गोवा में उसके न्यायोचित अधिकारों का अपहरण होने पर भी ब्रिटिश सरकार शरारतपूर्ण चुप्पी साधे बैठी रहती है और उसके समाचारपत्र भारत के विरुद्ध विषदवमन करते रहते हैं तथा भारत के दुश्मनों की गलत बात की वकालत करते हैं.
क्या इस स्थिति में हमें कुछ शिक्षा नहीं लेनी चाहिए. क्या ब्रिटिश राष्ट्रमंडल से संबंध रखने न रखने के प्रश्न पर भारत को गंभीरतापूर्वक पुनर्विचार करने की आवश्यकता नहीं है.
पाकिस्तान के एक प्रमुख राजनीतिज्ञ सुहरावर्दी ने प्रधानमंत्री नेहरू को गोवा सत्याग्रह बंद कर देने का परामर्श दिया है क्योंकि उनका तर्क यह है कि उपनिवेशवाद ‘बाहरी आक्रमण से समाप्त नहीं किया जा सकता.’ इतना ही नहीं उन्होंने यहाँ तक कह दिया था कि ‘यदि नेहरू सरकार गोवा मुक्ति के लिए भारतीय सत्याग्रहियों का गोवा प्रवेश उचित समझती है तो क्या वह पाकिस्तानियों को कश्मीर मुक्ति के लिए कश्मीर में प्रवेश करने की अनुमति देगी।’ यहाँ हम यह मानते हुए भी कि सुहरावर्दी का उपर्युक्त सुझाव सर्वथा निराधार तथा अनर्गल है यह कहना चाहते हैं कि नेहरू सरकार को पाक प्रेस तथा राजनीतिज्ञों की शरारतों और भारत विरोधी बातों की ओर दुर्लक्ष्य नहीं करना चाहिए और उनका उपर्युक्त उत्तर देना चाहिए. (पांचजन्य, 29 अगस्त, 1955)
प्रधानमंत्री नेहरू की शिथिलता
इस सन्दर्भ में जनसंघ का पक्ष
गोवा समस्या का एक और पक्ष है जिस पर भी विचार करने की आवश्यकता है. वह यह कि भारत के पक्ष में शीघ्र और सही रूप में विश्व का जनमत तैयार करने के लिए जिस व्यापक तथा तूफानी प्रचार की अनिवार्य आवश्यकता है उसके लिए भारत सरकार क्या कर रही है. हमें तो लगता है कि हमारा प्रचार तंत्र इस दृष्टि से बड़ा शिथिल, अव्यवस्थित तथा असंगठित है.
गोवा–मुक्ति आंदोलन में भाग लेनेवाले निहत्थे तथा शांत सत्याग्रहियों पर पुर्तगालियों द्वारा मनमानी गोली वर्षा और अन्य अनेक अत्याचार किए जाने के बाद भी भारत सरकार का शांति और अहिंसा की बराबर रट लगाना किस मनोवृत्ति का द्योतक है पाठक स्वयं विचार करें. या तो यह कहना पड़ेगा कि नेहरू सरकार राष्ट्रीय अपमान नहीं समझती और इसलिए उसके प्रतिशोध के लिए कोई कार्रवाई नहीं करती या फिर कहना चाहिए क उसे अपने कर्तव्य तथा दायित्व का रत्ती भर भी मान नहीं है.
दूसरी ओर यह भी कहा जा सकता है कि भारतीय जनता की उदारता तथा सहिष्णुता का सरकार अनुचित लाभ उठा रही है. हम विश्वास के साथ कह सकते हैं कि यदि आज गोवा जैसी समस्या ब्रिटिश राष्ट्र के सामने होती और वहाँ की सरकार का नेहरू सरकार जैसा ढुलमुल यकीन तथा दुर्बल रवैया होता तो वह सरकार वहाँ दो दिन भी टिक नहीं सकती थी. उसका अवश्यमेव पतन होता किंतु यह भारतीय जनता की उदारता या राजनीतिक चेतना की कमी का ही परिणाम है कि नेहरू सरकार गोवा संबंधी अपनी दुर्बल नीति के बावजूद भी सुस्थिर है. (पांचजन्य, 29 अगस्त, 1955)
जनसंघ के सत्याग्रह का असर
19 दिसंबर, 1961 को भारतीय सेना ने गोवा, दमन और दीव में तिरंगा फहराया दिया.
इसे ऑपरेशन विजय का नाम दिया गया जोकि 36 घंटों तक चला.
पुर्तगाल के गवर्नर जनरल वसालो इ सिल्वा ने भारतीय सेना प्रमुख पीएन थापर के सामने सरेंडर कर दिया था.
इस तरह जनंसघ, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय सेना के माध्यम से गोवा भारतीय गणराज्य का हिस्सा बना.
30 मई, 1987 को गोवा को राज्य का दर्जा दिया गया जबकि दमन और दीव केन्द्रशासित प्रदेश बने रहे.
गोवा मुक्ति दिवस 19 दिसंबर को मनाया जाता है.
अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा 1964 : गोवा आदि का संलग्न प्रान्तों में विलय
यह स्वाभाविक था कि पुर्तगाल और फ्रांस की दासता से मुक्त विभिन्न भारतीय भू–भागों का निकटस्थ प्रान्तों में विलय कर दिया जाता. यह भारत के विद्यमान राजनीतिक ढाँचे, वहाँ की जनता की सामान्य अपेक्षाओं, उनको पूर्ण स्वातंत्र्य की अनुभूति एवं भारतीय जीवन के साथ तादात्म्य और प्रशासनिक सुविधा तथा विकास, सभी की दृष्टि से आवश्यक था। किन्तु दु:ख का विषय है कि भारत–शासन ने अभी तक यह कदम नहीं उठाया, प्रत्युत् इन क्षेत्रों की एक विशिष्ट संस्कृति और उसकी रक्षा के मिथ्या सिद्धान्त का प्रतिपादन कर ऐसा गलत कार्य किया है जो भारत की भावात्मक एकता तथा राष्ट्रीय एकता के आधारभूत तत्त्वों से असंगत है तथा भविष्य में जिसके गम्भीर परिणाम हो सकते हैं. सभा माँग करती है कि इन क्षेत्रों को निकटवर्ती प्रदेशों में मिलाने की अविलम्ब व्यवस्था की जाए. (आर्काइव्ज ऑफ़ आरएसएस)
आर्काइव्ज ऑफ़ आरएसएस व प्रदीप शर्मा जी व अन्य के सहयोग से सतीश शर्मा जी द्वारा संकलित