सामाजिक समरसता के लिए संस्कृति व संस्कारों की आवश्यकता

 

सामाजिक समरसता के लिए संस्कृति व संस्कारों की आवश्यकता

भूपेंद्र सिंह एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ इंडिया

समरसता के साथ कर्मों के सिद्धांत को प्रमुखता भी देनी  चाहिए क्योंकि अच्छे कर्मों के बिना समरसता को नहीं लाया जा सकता लालच से साथ रहना और कर्मों के सिद्धांत को ना समझना अपने कर्तव्य को ना समझना समरसता के काम में बाधा पहुंचा सकता है इसलिए भगवान श्री कृष्ण के सिद्धांत कर्मों के सिद्धांत को सर्वोपरि मानकर अर्थात अच्छे कर्मों के सिद्धांत को मानकर समरसता को जल्दी लाया जा सकता है भारतीय संस्कृति में समरसता के सिद्धांत की कमी नहीं थी यहां सैद्धांतिक रूप से समरसता है लेकिन विभिन प्रकार की  प्रवृत्ति के लोगों  ने अलग-अलग ग्रुप बना दिए अलग-अलग लोगों के मजहब बना दिए अलग-अलग जातियां बना दी जिससे उनका शासन करना आसान हो गया और प्राकृतिक रूप से अच्छे कर्मों के सिद्धांत पर चलने वालों को अलग कर दिया गया और एक अप्राकृतिक व्यवस्था को जन्म देकर अक्षम व्यक्ति शासन कर रहे हैं आज सक्षम व्यक्ति वही हो सकता है जो अच्छे कर्म करके शासन की गाड़ी पर बैठता है तो इसलिए कर्मों के सिद्धांत को मनाना बहुत आवश्यक है क्योंकि आज लोगों को आपस में लड़ा कर बैठ कर अलग-अलग जातियां बनाकर अलग-अलग ग्रुप बनाकर इतनी नेता पैदा हो रहे हैं कि वह शासन हत्या रहे और शासन हत्या कर अत्याचार कर रहे हैं  विद्वेष फैला रहे हैं भारतीय संस्कृति को पीछे कर रहे हैं कर्मों के सिद्धांत को पीछे कर रहे हैं इसलिए कर्मों का सिद्धांत जब तक लोग नहीं जानेंगे कि हमें प्रकृति में जन्म क्यों हुआ भगवान ने अच्छे कर्म करने के लिए क्यों बोला है इन सबको आगे बढ़ना होगा और भगवान कृष्ण के संदेश को निष्काम कर्म के संदेश को आगे बढ़कर समरसता संपूर्ण रूप से लाई जा सकती है और जो विदेश फैला कर राज करने की कोशिश कर रहे हैं उनको आज सफल किया जा सकता है

श्लोक:

 *कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥* 

अर्थ:

कर्म करने का अधिकार तुम्हारा है, लेकिन फल का नहीं। इसलिए कर्म के फल की इच्छा मत रखो और कर्म न करने में भी आसक्त मत हो।

व्याख्या:

गीता के अनुसार, कर्मयोग का अर्थ है कि व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए, बिना किसी फल की इच्छा के। कर्म के फल को ईश्वर पर छोड़ देना चाहिए। यदि व्यक्ति कर्म करता है, तो उसे कर्म के फल की चिंता नहीं करनी चाहिए, बल्कि उसे अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए।

गीता में यह भी कहा गया है कि कर्म करना आवश्यक है, क्योंकि कर्म करना मनुष्य को बंधन से मुक्त करता है। कर्म के द्वारा मनुष्य अपने सांसारिक कर्तव्यों को पूरा कर सकता है और अपने जीवन को सफल बना सकता है।

उदाहरण:

यदि कोई व्यक्ति एक शिक्षक है, तो उसका कर्तव्य है कि वह छात्रों को पढ़ाए। उसे यह नहीं सोचना चाहिए कि वह कितना वेतन पाएगा या उसके छात्रों को कितना ज्ञान प्राप्त होगा। उसे केवल अपना कर्तव्य पालन करना चाहिए।

निष्कर्ष:

गीता का कर्म का सिद्धांत यह है कि व्यक्ति को कर्म करना चाहिए, लेकिन कर्म के फल की इच्छा नहीं रखनी चाहिए। कर्म का अधिकार व्यक्ति को होता है, लेकिन कर्म के फल का नहीं। यदि व्यक्ति कर्म करता है, तो उसे कर्म के फल की चिंता नहीं करनी चाहिए, बल्कि उसे अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए।

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