सामाजिक समरसता के लिए संस्कृति व संस्कारों की आवश्यकता -सुरेश सरदाना

सामाजिक समरसता के लिए संस्कृति व संस्कारों की आवश्यकता 

सुरेश सरदाना

सामाजिक समरसता का अर्थ है समाज में सभी वर्गों, जातियों, धर्मों और समुदायों के बीच परस्पर सौहार्द, एकता और समानता की भावना का विकास। यह केवल कानून या शासन व्यवस्था से नहीं, बल्कि समाज के भीतर गहरे संस्कारों और सांस्कृतिक मूल्यों से प्राप्त होती है। संस्कृति और संस्कार किसी भी समाज की आत्मा होते हैं, जो व्यक्ति के व्यवहार, सोच और आचरण को दिशा प्रदान करते हैं।

संस्कृति और सामाजिक समरसता:

अब हम बिन्दुवार इस विषय पर चर्चा करते हैं:-

साझा विरासत का बोध: भारत जैसे बहुरंगी समाज में विविध भाषाएँ, धर्म और परंपराएँ होते हुए भी एक साझा सांस्कृतिक विरासत है – जैसे नमस्ते करना, अतिथि सत्कार, त्यौहारों का उत्सव आदि। ये सांस्कृतिक पहलू लोगों को जोड़ते हैं।

सहिष्णुता और समभाव की भावना: भारतीय संस्कृति में “वसुधैव कुटुम्बकम्” और “सर्वे भवन्तु सुखिनः” जैसे विचार सामाजिक समरसता के मूल स्तंभ हैं। ये विचार सभी को समान दृष्टि से देखने और स्वीकारने की प्रेरणा देते हैं।

संवाद और सहयोग: हमारी संस्कृति संवाद पर आधारित है, चाहे वह ऋषि-मुनियों की परंपरा हो या पंचायत व्यवस्था। इससे भिन्न मत रखने वालों के बीच भी संवाद की संस्कृति बनी रहती है, जो सामाजिक समरसता को बनाए रखने में सहायक होती है।

संस्कार और सामाजिक समरसता:-

इस विषय पर भी बिन्दुवार चर्चा इस प्रकार से है। 

मानवता और करुणा का विकास: परिवार और शिक्षा के माध्यम से जब बच्चे को करुणा, दया, सहयोग, आदर आदि जैसे संस्कार मिलते हैं, तो वह समाज में दूसरों को समझने और स्वीकारने की प्रवृत्ति विकसित करता है।

कर्तव्यों की भावना: अच्छे संस्कार व्यक्ति में अपने दायित्वों और कर्तव्यों के प्रति सजगता उत्पन्न करते हैं, जिससे वह समाज में न्याय और समानता को बनाए रखने में योगदान देता है।

अहंकार और भेदभाव का त्याग: संस्कारों से व्यक्ति में विनम्रता, सहिष्णुता और आत्मनिरीक्षण की भावना आती है, जिससे जाति, धर्म, वर्ग आदि के आधार पर भेदभाव की प्रवृत्तियाँ घटती हैं।

अत: संस्कृति और संस्कार सामाजिक समरसता के लिए आधारशिला के समान हैं। ये न केवल समाज को जोड़ते हैं, बल्कि उसमें प्रेम, करुणा, सहयोग और समानता की भावना को भी पुष्ट करते हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि आधुनिक शिक्षा व्यवस्था और सामाजिक परिवेश में इन मूल्यों को स्थान दिया जाए, ताकि एक समरस, शांतिपूर्ण और एकजुट समाज का निर्माण किया जा सके।

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