दशमेश पिता गुरु गोबिंद सिंह जी

दशमेश पिता गुरु गोबिंद सिंह जी

सतीश शर्मा

दशमेश पिता गुरु गोबिंद सिंह जी की जयंती पर  शत  शत नमन। उनका जन्म 22 दिसंबर, 1666 को पटना में हुआ था। गुरु गोबिंद सिंह जी सिख धर्म के दसवें और अंतिम गुरु थे, जिन्होंने अपने जीवन को मानवता की सेवा और धर्म की रक्षा के लिए समर्पित किया। वे एक महान आध्यात्मिक गुरु, वीर योद्धा, समाज सुधारक, और कवि थे। उन्होंने अपने अनुयायियों को पांच ककार — केश, कड़ा, कृपाण, कंघा, और कच्छा — धारण करने का आदेश दिया, जो सिख धर्म की पहचान बनें। गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की, जिसका उद्देश्य सिख समाज को एकजुट करना और उन्हें धर्म और सत्य की रक्षा के लिए प्रेरित करना था। उनकी शिक्षाएँ मानवता और धर्म के लिए एक मार्गदर्शक हैं, जिनमें साहस, समानता, सेवा, और धार्मिकता का महत्व बताया गया है। आज उनकी जयंती पर, हम उनके जीवन और शिक्षाओं से प्रेरणा लेते हैं और उनके आदर्शों को अपने जीवन में उतारने का संकल्प लेते हैं। उन्होंने खालसा पंथ की स्थापना की थी। उन्होंने गुरु ग्रंथ साहिब को सिख धर्म का प्राथमिक पवित्र धार्मिक ग्रंथ और शाश्वत गुरु के रूप में प्रतिष्ठित किया। उन्होंने चंडी द वार, जाप साहिब, खालसा महिमा, बचित्र नाटक, जफ़रनामा जैसे कई महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखे।उनकी काव्य रचना दशम ग्रंथ के नाम से जानी जाती है। गुरु गोबिंद सिंह ने अपने सिखों को मूल्य और वीरता से भरने के लिए हमेशा अपने हाथ में एक सफ़ेद बाज़ रखा. गुरु गोबिंद सिंह ने मुगलों की सेना को चिड़िया और सिखों को बाज़ कहा था. “सवा लाख से एक लड़ाऊं,चिड़ियन ते मैं बाज़ तुड़ाऊं,तबै गुरु गोबिंद सिंह नाम कहाऊं” यह सिखों के दसवें गुरु गुरु गोबिंद सिंह का एक अनमोल वचन है |धर्म की रक्षा के लिए उन्होंने मुगलों के साथ 14 युद्ध लड़े | गुरु गोविंद सिंह जी ने अपने पिता गुरु तेग बहादुर सिंह, चारों बेटों, और खुद भी बलिदान देकर धर्म की रक्षा की | गुरु गोविंद सिंह जी की मृत्यु 7 अक्टूबर, 1708 को महाराष्ट्र के नांदेड़ साहिब में हुई थी गुरु गोविंद सिंह जी पर सरहिंद के गवर्नर वज़ीर ख़ान ने दो पठानों को हमला करने का आदेश दिया था। इन पठानों ने गुरु गोविंद सिंह जी पर धोखे से हमला किया और उनका वध कर दिया।

फतेह सिंह तथा जोरावर सिंह को छोटी सी उम्र में ही उन्हें बड़े संकटों  का सामना करना पड़ा । धर्म छोड़ने के लिए पहले लालच और कठोर यातनाएँ दी गयीं परन्तु ये दोनों वीर अपने धर्म पर अडिग रहे । ऐसे धर्मनिष्ठ बालकों की यह गाथा हम सबको को अवश्य पढ़नी चाहिए | फतेह सिंह तथा जोरावर सिंह सिख धर्म के दसवें गुरू गोविंदसिंह जी के सुपुत्र थे । आनंदपुर के युद्ध में गुरू जी का परिवार बिखर गया था । उनके दो पुत्र अजीतसिंह एवं जुझारसिंह की तो उनसे भेंट हो गयी, परन्तु उनके दो छोटे पुत्र गुरू गोविंद सिहं  की माता गुजरीदेवी के साथ अन्यत्र बिछुड़ गये । आनंदपुर छोड़ने के बाद फतेह सिंह एवं जोरावर सिंह अपनी दादी के साथ जंगलों, पहाड़ों को पार करके एक नगर में पहुँचे । उस समय जोरावरसिंह की उम्र मात्र सात वर्ष ग्यारह माह एवं फतेहसिंह की उम्र पाँच वर्ष दस माह थी । इस नगर में उन्हें गंगू  मिला, जो बीस वर्षों तक गुरूगोविंद सिंह के पास रसोईये का काम करता था । उसकी जब माता गुजरीदेवी से भेंट हुई तो उसने उन्हें अपने घर ले जाने का आग्रह किया । पुराना सेवक होने के नाते माता जी दोनों नन्हें बालकों के साथ गंगू के घर चलने को तैयार हो गयी ।माता गुजरीदेवी के सामान में कुछ सोने की मुहरें थी जिसे देखकर गंगू लोभवश अपना ईमान बेच बैठा । उसने रात्रि को मुहरें चुरा लीं परन्तु लालच बड़ी बुरी बला होती है । वासना का पेट कभी नहीं भरता अपितु वह तो बढ़ती ही रहती है । गंगू की वासना और अधिक भड़क उठी । वह ईनाम पाने के लालच में मुरिंज थाना पहुँचा और वहाँ के कोतवाल को बता दिया कि गुरूगोविंद सिंह के दो पुत्र एवं माता उसके घर में छिपी हैं । कोतवाल ने गंगू के साथ सिपाहियों को भेजा तथा दोनों बालकों सहित माता गुजरीदेवी को बंदी बना लिया । एक रात उन्हें मुरिंडा की जेल में रखकर दूसरे दिन सरहिंद के नवाब के पास ले जाया गया । इस बीच माता गुजरीदेवी दोनों बालकों को उनके दादा गुरू तेग बहादुर एवं पिता गुरुगोविंदसिंह की वीरतापूर्ण कथाएँ सुनाती रहीं । सरहिंद पहुँचने पर उन्हें किले के एक हवादार बुर्ज में भूखा प्यासा रखा गया । माता गुजरीदेवी उन्हें रात भर वीरता एवं अपने धर्म में अडिग रहने के लिए प्रेरित करती रहीं । वे जानती थीं कि मुगल सर्वप्रथम बच्चों से धर्मपरिवर्तन करने के लिए कहेंगे । दोनों बालकों ने अपनी दादी को भरोसा दिलाया कि वे अपने पिता एवं कुल की शान पर दाग नहीं लगने देंगे तथा अपने धर्म में अडिग रहेंगे । सुबह सैनिक बच्चों को लेने पहुँच गये। दोनों बालकों ने दादी के चरणस्पर्श किये एवं सफलता का आशीर्वाद लेकर चले गए । दोनों बालक नवाब वजीरखान के सामने पहुँचे तथा सिंह की तरह गर्जना करते बोलेः “वाहे गुरु जी का खालसा, वाहे गुरू जी की फतेह ।” चारों ओर से शत्रुओं से घिरे होने पर भी इन नन्हें शेरों की निर्भीकता को देखकर सभी दरबारी दाँतो तले उँगली दबाने लगे । शरीर पर केसरी वस्त्र एवं पगड़ी तथा कृपाण धारण किए इन नन्हें योद्धाओं को देखकर एक बार तो नवाब का भी हृदय भी पिघल गया । उसने बच्चों से कहा : “इन्शाह अल्लाह! तुम बड़े सुन्दर दिखाई दे रहे हो । तुम्हें सजा देने की इच्छा नहीं होती । बच्चों ! हम तु्म्हें नवाबों के बच्चों की तरह रखना चाहते हैं । एक छोटी सी शर्त है कि तुम अपना धर्म छोड़कर मुसलमान बन जाओ ।” नवाब ने लालच एवं प्रलोभन देकर अपना पहला पाँसा फैंका । वह समझता था कि इन बच्चों को मनाना ज़्यादा कठिन नहीं है परन्तु वह यह भूल बैठा था कि भले ही वे बालक हैं परन्तु कोई साधारण नहीं अपितु गुरू गोविंद सिंह के सपूत हैं । वह भूल बैठा था कि इनकी रगों में उस वीर महापुरूष का रक्त दौड़ रहा है जिसने अपना समस्त जीवन धर्म की रक्षा में लगा दिया था ।नवाब की बात सुनकर दोनों भाई निर्भीकतापूर्वक बोले : “हमें अपना धर्म प्राणों से भी प्यारा है । जिस धर्म के लिए हमारे पूर्वजों ने अपने प्राणों की बलि दे दी उसे हम तुम्हारी लालचभरी बातों में आकर छोड़ दें, यह कभी नहीं हो सकता ।” नवाब की पहली चाल बेकार गयी । बच्चे नवाब की मीठी बातों एवं लालच में नहीं फँसे। अब उसने दूसरी चाल खेली । नवाब ने सोचा ये दोनों बच्चे ही तो हैं, इन्हें डराया धमकाया जाय तो अपना काम बन सकता है ।
उसने बच्चों से कहा : “तुमने हमारे दरबार का अपमान किया है । हम चाहें तो तुम्हें कड़ी सजा दे सकते हैं परन्तु तु्म्हे एक अवसर फिर से देते हैं । अभी भी समय है यदि ज़िंदगी चाहते हो तो मुसलमान बन जाओ वर्ना….”

नवाब अपनी बात पूरी करे इससे पहले ही ये नन्हें वीर गरज कर बोल उठे : “नवाब ! हम उन गुरू तेग बहादुर  जी के पोते हैं जो धर्म की रक्षा के लिए कुर्बान हो गये। हम उन गुरू गोविंद सिंह जी के पुत्र हैं जिनका नारा है : चिड़ियों से मैं बाज लड़ाऊँ, सवा लाख से एक लड़ाऊँ । जिनका एक-एक सिपाही तेरे सवा लाख गुलामों को धूल चटा देता है, जिनका नाम सुनते ही तेरी सल्तनत थर-थर काँपने लगती है । तू हमें मृत्यु का भय दिखाता है । हम फिर से कहते हैं कि हमारा धर्म हमें प्राणों से भी प्यारा है। हम प्राण त्याग सकते हैं परन्तु अपना धर्म नहीं त्याग सकते ।” इतने में दीवान सुच्चानंद ने बालकों से पूछा : “अच्छा! यदि हम तुम्हे छोड़ दें तो तुम क्या करोगे ?” बालक जोरावर सिंह ने कहा : “हम सेना इकट्ठी करेंगे और अत्याचारी मुगलों को इस देश से खदेड़ने के लिए युद्ध करेंगे ।” दीवान : “यदि तुम हार गये तो ?” जोरावर सिंह : (दृढ़तापूर्वक) “हार शब्द हमारे जीवन में नहीं है । हम हारेंगे नहीं या तो विजयी होंगे या शहीद होंगे ।” बालकों की वीरतापूर्ण बातें सुनकर नवाब आग बबूला हो उठा । उसने काजी से कहा : “इन बच्चों ने हमारे दरबार का अपमान किया है तथा भविष्य में मुगल शासन के विरूद्ध विद्रोह की घोषणा की है । अतः इनके लिए क्या दण्ड निश्चित किया जाये ?” काजी : “ये बालक मुगल शासन के दुश्मन हैं और इस्लाम को स्वीकार करने को भी तैयार नहीं हैं । अतः, इन्हें जिन्दा दीवार में चुनवा दिया जाये ।”

शैतान नवाब तथा काजी के क्रूर फैसले के बाद दोनों बालकों को उनकी दादी के पास भेज दिया गया । बालकों ने उत्साहपूर्वक दादी को पूरी घटना सुनाई । बालकों की वीरता को देखकर दादी गदगद हो उठी और उन्हें हृदय से लगाकर बोली : “मेरे बच्चों! तुमने अपने पिता की लाज रख ली ।” दूसरे दिन दोनों वीर बालकों को दिल्ली के सरकारी जल्लाद शिशाल बेग और विशाल बेग को सुपुर्द कर दिया गया । बालकों को निश्चित स्थान पर ले जाकर उनके चारों ओर दीवार बननी प्रारम्भ हो गयी । धीरे-धीरे दीवार उनके कानों तक ऊँची उठ गयी । इतने में बड़े भाई जोरावरसिंह ने अंतिम बार अपने छोटे भाई फतेहसिंह की ओर देखा और उसकी आँखों से आँसू छलक उठे ।

जोरावर सिंह की इस अवस्था को देखकर वहाँ खड़ा काजी बड़ा प्रसन्न हुआ । उसने समझा कि ये बच्चे मृत्यु को सामने देखकर डर गये हैं । उसने अच्छा मौका देखकर जोरावरसिंह से कहा : “बच्चों ! अभी भी समय है । यदि तुम मुसलमान बन जाओ तो तुम्हारी सजा माफ कर दी जाएगी ।” जोरावर सिंह ने गरजकर कहा : “मूर्ख काजी ! मैं मौत से नहीं डर रहा हूँ । मेरा भाई मेरे बाद इस संसार में आया परन्तु मुझसे पहले धर्म के लिए शहीद हो रहा है । मुझे बड़ा भाई होने पर भी यह सौभाग्य नहीं मिला, इसलिए मुझे रोना आता है ।” सात वर्ष के इस नन्हें से बालक के मुख से ऐसी बात सुनकर सभी दंग रह गये । थोड़ी देर में दीवार पूरी हुई और वे दोनों नन्हें धर्मवीर उसमें समा गये ।
कुछ समय पश्चात दीवार को गिरा दिया गया। दोनों बालक बेहोश पड़े थे, परन्तु अत्याचारियों ने उसी स्थिति में उनकी हत्या कर दी ।

(21 दिसम्बर से लेकर 27 दिसम्बर तक) इन्ही 7 दिनों में गुरु गोबिंद सिंह जी का पूरा परिवार शहीद हो गया था। 21 दिसम्बर को गुरू गोविंद सिंह द्वारा परिवार सहित आनंदपुर साहिब किला छोङने से लेकर 27 दिसम्बर तक के इतिहास को हम भूला बैठे हैं?

एक ज़माना था जब यहाँ पंजाब में इस हफ्ते सब लोग ज़मीन पर सोते थे क्योंकि माता गूजर कौर ने वो रात दोनों छोटे साहिबजादों (जोरावर सिंह व फतेह सिंह) के साथ, नवाब वजीर खां की गिरफ्त में – सरहिन्द के किले में – ठंडी बुर्ज में गुजारी थी। यह सप्ताह सिख इतिहास में शोक का सप्ताह होता है।

पर आज देखते हैं कि पंजाब समेत पूरा हिन्दुस्तान क्रिसमस के जश्न में डूबा हुआ है एक दूसरे को बधाई दी जा रही हैं

गुरु गोबिंद सिंह जी की कुर्बानियों को इस अहसान फरामोश मुल्क ने सिर्फ 300 साल में भुला दिया?? जो कौमें अपना इतिहास – अपनी कुर्बानियाँ – भूल जाती हैं वो खुद इतिहास बन जाती है। आज हर भारतीय को विशेषतः युवाओं व बच्चों को इस जानकारी से अवगत कराना जरुरी है। हर भारतीय को क्रिसमस नही, हिन्दुस्थान के हिन्दू शहजादों को याद करना चाहिये। 

21 दिसंबर – श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने परिवार सहित श्री आनंद पुर साहिब का किला छोड़ा।

22 दिसंबर – गुरु साहिब अपने दोनों बड़े पुत्रों सहित चमकौर के मैदान में पहुंचे और गुरु साहिब की माता और छोटे दोनों साहिबजादों को गंगू जो कभी गुरु घर का रसोइया था उन्हें अपने साथ अपने घर ले आया।

चमकौर की जंग शुरू और दुश्मनों से जूझते हुए गुरु साहिब के बड़े साहिबजादे श्री अजीत सिंह उम्र महज 17 वर्ष और छोटे साहिबजादे श्री जुझार सिंह उम्र महज 14 वर्ष अपने 11 अन्य साथियों सहित मजहब और मुल्क की रक्षा के लिए वीरगति को प्राप्त हुए।

23 दिसंबर – गुरु साहिब की माता श्री गुजर कौर जी और दोनों छोटे साहिबजादे गंगू  के द्वारा गहने एवं अन्य सामान चोरी करने के उपरांत तीनों की मुखबरी मोरिंडा के चौधरी गनी खान से की और तीनो को गनी खान के हाथों ग्रिफ्तार करवा दिया और गुरु साहिब को अन्य साथियों की बात मानते हुए चमकौर छोड़ना पड़ा।

24 दिसंबर – तीनों को सरहिंद पहुंचाया गया और वहां ठंडे बुर्ज में नजरबंद किया गया।

25 और 26 दिसंबर – छोटे साहिबजादों को नवाब वजीर खान की अदालत में पेश किया गया और उन्हें धर्म परिवर्तन करने के लिए लालच दिया गया।

27 दिसंबर – साहिबजादा जोरावर सिंह उम्र महज 8 वर्ष और साहिबजादा फतेह सिंह उम्र महज 6 वर्ष को तमाम जुल्म ओ जब्र उपरांत जिंदा दीवार में चीनने उपरांत जिबह (गला रेत) कर शहीद किया गया और खबर सुनते ही माता गुजर कौर ने अपने साँस त्याग दिए।

धन्य हैं गुरु गोविन्द सिंह जी जिन्होंने धर्म रक्षार्थ अपने पुत्रो को शहीद किया था। 

धन्य हैं वह माता जिसने अजित सिंह, जुझार सिंह, जोरावर सिंह और फतेह सिंह को जन्म दिया।

धन्य है वे लाल जिन्होने अपनी भारत भूमि, अपने धर्म और अपने संस्कार की रक्षा हेतु माँ के दूध का कर्ज चुकाया और यौवन आने के पहले मृत्यु का वरण किया।

चमकौर की गढ़ी का युद्ध: एक तरफ थे मधु मक्खी के छत्ते की तरह बिलबिलाते यवन आक्रांता और दूसरी तरफ थे मुट्ठी भर रण बाकुँरे सिक्ख – सिर पर केशरिया पगड़ी बाधें, हाथ मे लपलपाती भवानी तलवार लिये, सामने विशाल म्लेच्छ सेना और फिर भी बेखौफ!

दुष्टों को उनहोंने गाजर मूली की तरह काटा। वीर सपूत गुरुजी के दोनो साहबजादे – 17 साल के अजितसिंह और 14 साल के जुझार सिंह – हजारों हजार म्लेच्छो को मार कर शहीद हुये।

विश्व इतिहास में यह एक ऐसी अनोखी घटना है जिसमे पिता ने अपने तरूण सपूतो को धर्म वेदी पर शहीद कर दिया और विश्व इतिहास मे अपना नाम स्वणृक्षरो मे अंकित करवा दिया। क्या दुनिया के किसी और देश मे ऐसी मिसाल मिलती है?

यवन शासक ने उन रण बांकुरों से उनके धर्म और संस्कृति के परिवर्तन की माँग की थी जिसको उन्होंने सिरे से खारिज कर दिया। गुरू महाराज के उन दो छोटे सिंह शावको ने अपना सर नही झुकाया। इस पर दुष्ट यवन बादशाह ने 7 साल के जोरावरसिंह और 5 साल के फतेह सिंह को जिंदा दीवाल मे चिनवा दिया।

कितना बड़ा कलेजा रहा होगा वीर सपूतों का, कितनी गर्माहट और कितना जोश होगा उस वीर प्रसूता माँ के दूध मे – जो पाँच और सात साल के बच्चों की रगों मे रक्त बन कर बह रहा था – कि उनमे इतना जज्बा – इतना जोश – था कि अपने धर्म संस्कृति की रक्षा के लिये इतनी यातनादायक मृत्यु का वरण किया।

और कितने दुष्ट, कितने नृशंस, कितने कातिल और कितने कायर थे वे म्लेच्छ जिनका मन फूल जैसे बच्चो को जिन्दा चिनवाते नही पसीजा था! और किस लिये? सिर्फ इसलिये कि मुसलमान बन जाओ! आखिर क्या अच्छाई हो सकती है ऐसे धर्म मे जो निरीह अबोध बच्चो को भी जिन्दा दीवार मे चिनवा दे?

यही कारण है कि यह भूमि वीर प्रसूता और हम आज गुरू गोविंद सिंह और उनके साहबजादो को श्रृद्धा और विनम्रता से याद कर रहे हैं।

हम मे से अधिसंख्य को इन वीरो के बलिदान की जानकारी भी नही होगी क्योकि हमने तो अकबर महान और शाहजहाँ का काल स्वण काल पढ़ा है; हमने तो इन वीर पुरुषो के विषय मे किसी किताब के कोने मे केवल दो लाइने भर पढ़ी होंगी।

हमारा यह कर्तव्य है कि हम अपने बच्चो को इतिहास की यह जानकारी दें, यह जरुरी है कि हम अपने इतिहास और पुरखो के बारे मे जानें। 

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