नियंत्रित भोजन आरोग्य शरीर सतीश शर्मा

नियंत्रित भोजन आरोग्य शरीर 

सतीश शर्मा 

“जैसा खाओगे अन्न वैसा होगा मन” एक लोकप्रिय कहावत है. इसका मतलब है कि हम जो खाना खाते हैं, उसका सीधा असर हमारे मन पर पड़ता है. स्वस्थ भोजन करने से मन भी शांत और स्वस्थ रहता है. वहीं, जंक फ़ूड खाने से मन पर नकारात्मक असर पड़ता है.स्वस्थ भोजन करने से शरीर और मन दोनों स्वस्थ रहते हैं. शाकाहारी भोजन करने से मन सादगी से भर जाता है और क्रूरता का भाव नहीं रहता. तामसिक भोजन करने से मन में आलस्य, निद्रा बढ़ती है और हिंसा बढ़ती है.ज़्यादा उत्तेजक पदार्थ खाने से मन भी उत्तेजित होता है और उसमें गलत विचार आते हैं.स्वस्थ और पौष्टिक भोजन करना चाहिए.सब्ज़ियां, फल, दालें, अनाज आदि खाना चाहिए.ईमानदारी से कमाए हुए धन से ही भोजन करना चाहिए.भोजन में संतुलित आहार लेना चाहिए.अपने शरीर और आयु के मुताबिक भोजन करना चाहिए.

आरोग्यं भोजनाधीनम्। (काश्यपसंहिता, खि. 5.9):

सबसे पहले तो हमें यह जान लेना चाहिये, जैसा कि महर्षि कश्यप कहते हैं, कि आरोग्य भोजन के अधीन होता है। सारा खेल भोजन का है।

नाप्रक्षालितपाणिपादवदनो (च.सू.8.20):

महर्षि चरक ने कम से कम पांच हजार साल पहले यह महत्वपूर्ण सूत्र दिया था। आचार्य वाग्भट ने भी इसे सातवीं-आठवीं शताब्दी में धौतपादकराननः  के रूप में पुनः लिखा। इसका साधारण अर्थ यह है कि भोजन करने के पूर्व हाथ, पाँव व मुंह धोना आवश्यक है।

आहारः प्रीणनः सद्यो बलकृद्देहधारकः। आयुस्तेजः समुत्साहस्मृत्योजोऽग्निविवर्द्धनः। (सु.चि., 24.68):

स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा और बीमारी को रोकने में भोजन का स्थान रसायन और औषधि से कम नहीं है। इस सूत्र का अर्थ यह है कि आहार से संतुष्टि, तत्क्षण शक्ति, और संबल मिलता है, तथा आयु, तेज, उत्साह, याददाश्त, ओज, एवं पाचन में वृद्धि होती है।

नाशुद्धमुखो (च.सू.8.20):

अशुद्ध मुंह से अर्थात मुंह की शुद्धता सुनिश्चित किये बिना भोजन नहीं लेना चाहिये। साफ़-सफाई के पश्चात ही भोजन का आनंद लेना उपयुक्त रहता है।

न कुत्सयन्न कुत्सितं न प्रतिकूलोपहितमन्नमाददीत (च.सू.8.20): दूषित अन्न या भोजन या दुश्मन या विरोधियों द्वारा दिया गया भोजन नहीं खाना चाहिये।

न नक्तं दधि भुञ्जीत (च.सू.8.20):

रात में दही नहीं खाना चाहिये।

नसक्तूनेकानश्नीयान्न निशि न भुक्त्वा न बहून्न द्विर्नोदकान्तरितात् न छित्त्वा द्विजैर्भक्षयेत्* (च.सू.8.20):

सत्तू—भुने हुये अनाज का आटा—घी और चीनी के मिश्रण के बिना नहीं खाना चाहिये। सत्तू को रात में, भोजन के बाद, अधिक मात्रा में, दिन में दो बार, या पानी पी पी कर ठांस कर, या दांतों को किटकिटाते हुये भी नहीं खाना चाहिये।

पूर्वं मधुरमश्नीयान् (सु.सू.46.460):

भोजन में सबसे पहले मधुर या मीठे पदार्थ खाना चाहिये। इसका तात्पर्य यह है कि भोजन पूरा करने के बाद मिठाई या आइसक्रीम में हाथ मारना नुकसानदायक है। भोजन का अंत सदैव कटु, तिक्त या कषाय रस से करना चाहिये।

आदौ फलानि भुञ्जीत (सु.सू.46.461):

फल भोजन के प्रारंभ में खाना चाहिये। भोजन के अंत में फल खाने की परंपरा अनुचित है।

पिष्टान्नं नैव भुज्जीत (सु.सू.46.494):

पीठी वाले भोजन प्रायः नहीं लेना चाहिये। अगर बहुत भूखे हैं तो कम मात्रा में पिष्टान्न लेकर उससे दुगनी मात्रा में पानी पीना चाहिये।

हिताहितोपसंयुक्तमन्नं समशनं स्मृतम्। बहु स्तोकमकाले वा तज्ज्ञेयं विषमाशनम्।। अजीर्णे भुज्यते यत्तु तदध्यशनमुच्यते। त्रयमेतन्निहन्त्याशु बहून्व्याधीन्करोति वा।। (सु.सू.46.494):

हितकर और अहितकर भोजन को मिलकर खाना (समशन), कभी अधिक कभी कम या कभी समय पर कभी असमय खाना (विषमाशन) या पहले खाये हुये भोजन के बिना पचे ही पुनः खाना (अध्यशन) शीघ्र ही अनेक बीमारियों को जन्म दे देते हैं। आज की स्थिति में बढ़ रही जीवन-शैली से जुड़ी बीमारियों का यही कारण है।

प्राग्भुक्ते त्वविविक्तेऽग्नौ द्विरन्नं न समाचरेत्। पूर्वभुक्ते विदग्धेऽन्ने भुञ्जानो हन्ति पावकम्। (सु.सू.46.492-493):

सुबह खाने के बाद जब तक तेज भूख न लगे तब तक दुबारा अन्न नहीं खाना चाहिये। पहले का खाया हुआ अन्न विदग्ध हो जाता है और ऐसी दशा में फिर खाने वाला इंसान अपनी पाचकाग्नि को नष्ट कर लेता है।

भुक्त्वा राजवदासीत यावदन्नक्लमो गतः। ततः पादशतं गत्वा वामपार्श्वेन संविशेत्।। (सु.सू.46.487):

भोजन के बाद राजा की तरह सीधा तन कर बैठना चाहिये ताकि भोजन का क्लम हो जाये। फिर सौ कदम चल कर बायें करवट लेट जाना चाहिये।

भुक्त्वाऽपि यत् प्रार्थयते भूयस्तत् स्वादु भोजनम् (सु.सू.46.482):

जिस भोजन को खाने के बाद पुनः माँगा जाये, समझिये वह स्वादिष्ट है।

उष्णमश्नीयात् (च.वि.1.24.1):

उष्ण आहार करना चाहिये। परन्तु ध्यान रखिये कि बहुत गर्म भोजन से मद, दाह, प्यास, बल-हानि, चक्कर आना व पित्त-विकार उत्पन्न होते हैं।

स्निग्धमश्नीयात् (च.वि.1.24.2):

स्निग्ध भोजन करना चाहिये। परन्तु घी में डूबे हुये तरमाल के रूप में नहीं। रूखा-सूखा भोजन बल, वर्ण, आदि का नाश करता है परन्तु बहुत स्निग्ध भोजन कफ, लार, दिल में बोझ, आलस्य व अरुचि उत्पन्न करता है।

मात्रावदश्नीयात् (च.वि.1.24.3):

मात्रापूर्वक भोजन करना चाहिये। भोजन आवश्यकता से कम या अधिक नहीं करना चाहिये।

जीर्णेऽश्नीयात् (च.वि.1.24.4):

पूर्व में ग्रहण किये भोजन के जीर्ण होने या पच जाने के बाद ही भोजन करना चाहिये।

वीर्याविरुद्धमश्नीयात् (च.वि.1.24.5):

वीर्य के अनुकूल भोजन करना चाहिये। अर्थात् विरुद्ध वीर्य वाले खाद्य-पदार्थों, जैसे दूध और खट्टा अचार आदि को मिलाकर नहीं खाना चाहिये।

इष्टे देशे इष्टसर्वोपकरणं चाश्नीयात् (च.वि.1.24.6):

मन के अनुकूल स्थान और सामग्री के साथ भोजन करना चाहिये। अभीष्ट सामग्री के साथ भोजन करने से मन अच्छा रहता है।

नातिद्रुतमश्नीयात् (च.वि.1.24.7):

बहुत तेज गति या जल्दबाज़ी में भोजन नहीं करना चाहिये।

नातिविलम्बितमश्नीयात् (च.वि.1.24.8):

अत्यंत विलम्बपूर्वक भोजन नहीं करना चाहिये।

अजल्पन्नहसन् तन्मना भुञ्जीत (च.वि.1.24.9):

बिना बोले बिना हँसे तन्मयतापूर्वक भोजन करना चाहिये। भोजन और तन्मयता का संबंध इतना प्रगाढ़ है कि भोजन के संबंध में आयुर्वेद में दी गई सम्पूर्ण सलाह निरर्थक जा सकती है, यदि भोजन तन्मयता के साथ न किया जाये।

आत्मानमभिसमीक्ष्य भुञ्जीत (च.वि.1.25):

पूर्ण रूप से स्वयं की समीक्षा कर भोजन करना चाहिये। इसका तात्पर्य यह है कि शरीर के लिये हितकारी और अहितकारी, सुखकर और दुःखकर द्रव्यों का शरीर के परिप्रेक्ष्य में गुण-धर्म का ध्यान रखते हुये यहाँ दिये गये महावाक्यों के अनुरूप ही भोजन करने का लाभ है।

अशितश्चोदकं युक्त्या भुञ्जानश्चान्तरा पिबेत् (सु.सू.46.482):

भोजन के पश्चात युक्तिपूर्वक पानी की मात्रा लेना चाहिये। तात्पर्य यह है कि खाने के बाद गटागट लोटा भर जल नहीं चढ़ा लेना चाहिये

चेते गुङ,बैशाखे तेल,जेठै पंथ असाढै बेल । सावण साग भादवो दही,क्यार करेला काती मही। ।

अगहन जीरा पूये धाणा,माहे मिसरी फागण चीणा । ईं बारह सूं देह बचाय तो घर वैद्य कदहूं ना आय ।।

                                       (राजस्थानी कहावत) 

बारह महिनों में अलग अलग वो ऐसी चीजें जिनका हम परहेज करके निरोगी रह सकते हैं। 

चैत्र  – गुङ नहीं खाना चाहिए, क्योंकि इस महिने का नया गुङ पथ्य नहीं होता।

वैशाख  – तेल नहीं खायें क्योंकि वैशाख में जो पसीना निकलता हैं उन छिद्रों को तेल अवरूद्ध कर देती हैं।

 ज्येष्ठ  – पंथ यानी पथ पर पैदल नहीं चलना चाहिए क्योंकि इस महिने गर्मी बहुत ज्यादा होने से शरीर डिहाइड्रेशन  में आ जायेगा।

आसाढ – बेल फल बहुत गुणकारी होकर भी आसाढ में खाने योग्य नहीं होता।

श्रावण  – सावण में पत्ते वाले आहार न लें क्योंकि इस मास में बरसात के समय पृथ्वी गर्भीणी होकर अदृश्य असंख्य जीव पैदा करती हैं जिनके अंडज पत्तों पर भी होते हैं।

भाद्रपद- इस महिने में दही के जो पथ्य बैक्टीरिया होते हैं वो ह्मूडीटी के चलते जल्दी जल्दी बढ़कर खतरनाक हो जाते हैं।

आश्विन  – करेला आसोज में पककर खाने योग्य नहीं रहता। करेला पितकारक होता हैं। 

कार्तिक  – कार्तिक में मही यानी मट्ठा ना खायें क्योंकि कार्तिक से हमें ठंडा नहीं गरम आहार शुरू कर देना चाहिए। 

मागशीर्ष  – जीरा ना खायें क्योंकि जीरा प्रकृतिगत ठंडा होता हैं। जबकि मिगसर में ठंड ही होती हैं।

पौष – पौष में धनियां ना खायें क्योंकि धनिये की प्रकृति ठंडी होती हैं। सर्दियों के इन दिनों में गर्म प्रकृतिगत व्यंजन खावें। उनका सिन्धोणो बनाकर खायें। गरम दिनों में सिन्धोणा नहीं बनाते। गर्मियों में सिर्फ धनिये के लड्डू बनाकर खावें। 

माघ – माघ में मिश्री ना खायें । मिश्री की तासीर भी ठंडी होती हैं जो गरम ऋत में धनिये के लड्डुओं के साथ खावें हैं।

 फाल्गुन – फाल्गुन में चना ना खावें । एकदम नया चना गैस कारक होता हैं। फाल्गुन में वायुमंडल में भी इधर-उधर की बिना ठिकाने की हवा चलती रहती हैं। मौसम भी कभी कैसा तो कभी कैसा रहता हैं। चना वैसे भी गैस कारक होता हैं  

इस प्रकार अगर आप अपथ्य का पालन करेंगे तो शरीर को जरूर सुरक्षित रख पायेंगे।

स्थानीय आयुर्वेद के तज्ञ वेदो से बातचीत के आधार पर

 

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