अंको के भ्रमजाल में शिक्षा

अंको के भ्रमजाल में शिक्षा

शिवेश प्रताप (लेखक, लोकनीति विश्लेषक, तकनीकी-प्रबंधन सलाहकार)

CBSE का रिजल्ट घोषित हुआ और हर तरफ सोशल मीडिया पर 90-95 प्रतिशत प्राप्त करने वाले बच्चों की बधाइयां दिख रही हैं। लेकिन यही सही समय है की हम इन अंकों के पीछे छुपे शिक्षा के व्यवसायीकरण, वस्तुनिष्ठता एवं सरलीकरण से उपजे कृत्रिम प्रसन्नता के कुचक्र के उस पार देखने का प्रयास करें। शिक्षा का उद्देश्य ज्ञानार्जन, सृजनशीलता और व्यक्तित्व विकास होना चाहिए था, लेकिन बीते दो दशकों में यह एक ‘अंक-उद्योग’ में बदल गया है। विशेषकर केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (CBSE) और उससे संबद्ध पब्लिक स्कूलों के गठजोड़ ने एक ऐसा माहौल तैयार किया है जिसमें 85-90% अंक लाना औसत माना जाने लगा है। स्कूलों में छात्र 98% से लेकर 100% तक अंक प्राप्त कर रहे हैं, लेकिन देश की सबसे कठिन और प्रतिष्ठित परीक्षाओं में से एक, संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) की सिविल सेवा परीक्षा (IAS) में टॉपर्स महज 50-55% अंक ही प्राप्त कर पाते हैं। यह विरोधाभास इस बात का संकेत है कि हमारी स्कूली मूल्यांकन प्रणाली और वास्तविक ज्ञान के बीच एक बड़ा अंतर आ चुका है। आइये इसकी पड़ताल कर समझते हैं की इस नयी शिक्षा व्यवस्था से क्या भारत को हम अनुसंधान और नवाचार का वैश्विक नेता बना सकेंगे? 

स्कूलों में ‘मास प्रोडक्शन’ और परीक्षा प्रणाली की गिरावट – CBSE और निजी पब्लिक स्कूलों ने मिलकर एक ऐसी परीक्षा प्रणाली को जन्म दिया है, जिसमें छात्रों को प्रश्नों के उत्तर रटवाए जाते हैं। उत्तर पुस्तिकाओं में ‘की-वर्ड्स’ पर अंक दिए जाते हैं और अध्यापक किसी भी उत्तर की गहराई, तार्किक प्रवाह या विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण को महत्व नहीं देते। उदाहरण स्वरुप, यदि प्रश्न पूछा जाए की दशरथ के कितने पुत्र थे? तो इसके उत्तर में चार लिखकर भी आप सम्पूर्ण अंक प्राप्त करने की अहर्ता रखते हैं, चाहे आप राम के चारो भाइयों का नाम न भी लिखें। इसने छात्रों को विश्लेषणात्मक और रचनात्मक लेखन, वर्तनी की शुद्धता, सुलेख आदि से दूर कर दिया है। 

पहले जहां उत्तर प्रदेश, बिहार, और मध्यप्रदेश जैसे राज्यों के बोर्ड, सरस्वती शिशु मंदिर की शिक्षा प्रणाली में 60% अंक भी उत्कृष्ट माने जाते थे, वहीं आज CBSE में 90% अंक सामान्य हो गए हैं। डेढ़ दशक पहले तक, यूपी बोर्ड में 75% अंक प्राप्त करने से लोग राज्य स्तर पर मेरिट में  आ जाते थे, क्योंकि उत्तर पुस्तिकाओं का मूल्यांकन अत्यंत कठोर होता था और लेखन में गहराई की अपेक्षा की जाती थी। 

CBSE बोर्ड ने ‘लर्निंग आउटकम’ के नाम पर ऑब्जेक्टिव और संक्षिप्त उत्तरों को बढ़ावा दिया, जिससे छात्रों में गहराई से सोचने, संदर्भों का विश्लेषण करने और विषय पर व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत करने की क्षमता का ह्रास हुआ। परिणामस्वरूप, छात्र बड़े निबंधात्मक उत्तरों से कतराने लगे और ‘टेम्प्लेट आधारित’ उत्तर लिखना सीख गए। इससे निबंध लेखन, इतिहास, राजनीति, समाजशास्त्र जैसे विषयों में विचारशीलता घटने लगी, जबकि यही विषय यूपीएससी जैसी परीक्षाओं का मूल हैं। साथ ही मानविकी से सम्बंधित विषयों में रचनात्मक लेखन के लिए अंक प्राप्ति की अर्हता समाप्त होने और वस्तुनिष्ठता ने साहित्यिक विषयों में रचनात्मकता और सृजनशीलता की लगभग हत्या कर दिया।

CBSE वेबसाइट के अनुसार 2019 में भारत में कुल मान्यता प्राप्त 22030 स्कूल थे जिसमें 1138 केंद्रीय विद्यालय, 2727 सरकारी, 598 जवाहर नवोदय तथा 14 केंद्रीय तिब्बती विद्यालय के अलावा 17553 निजी स्कूलों को मान्यता मिली थी। 

भारत में सीबीएसई मान्यता प्राप्त स्कूलों का विश्लेषण (2019) 

कुल मान्यता प्राप्त स्कूलों की संख्या: 22,030

श्रेणी स्कूलों की संख्या प्रतिशत (%)
केंद्रीय विद्यालय (KVS) 1138 5,17 %
सरकारी स्कूल 2,727 12.38%
जवाहर नवोदय विद्यालय (JNV) 598 2.71 %
केंद्रीय तिब्बती विद्यालय 14 0.06 %
निजी मान्यता प्राप्त स्कूल 17553 79.68

कुल मान्यता प्राप्त स्कूलों में लगभग 80% निजी स्कूल हैं, जो स्पष्ट करता है कि CBSE का कितना बड़ा हिस्सा निजी क्षेत्र के प्रभाव में है। सरकार को इस केन्द्रीकरण के विरुद्ध कार्यकर इस प्रकार की शक्ति के केन्द्रीकरण को ख़त्म करने की जरुरत है क्योंकि अब यह एक सिंडिकेट के रूप में कार्य कर रहा है जिसमें फीस बृद्धि, महँगी किताबें और शिक्षा के व्यवसायीकरण के नीचे दबते परिवारों की हालत और खराब हो रही है। फ़ीस वृद्धि अभी बड़े शहरों की समस्या है लेकिन जल्द ही देश की राजनीती में यह बड़ा मुद्दा होगा। 

UPSC की सच्चाई: 100 में 50 भी काफी है! – भारत में स्कूली शिक्षा और प्रतियोगी परीक्षाओं के मूल्यांकन में एक महत्वपूर्ण अंतर देखा जा सकता है। जहाँ CBSE और अन्य पब्लिक स्कूलों में छात्रों को 95% से अधिक अंक प्राप्त होते हैं, वहीं UPSC सिविल सेवा परीक्षा में टॉपर्स भी केवल 50-55% अंक ही प्राप्त कर पाते हैं। यह अंतर इस बात को दर्शाता है कि स्कूली शिक्षा में अंकों का महत्त्व अधिक हो गया है, जबकि प्रतियोगी परीक्षाएँ गहन विश्लेषणात्मक और तार्किक क्षमताओं का मूल्यांकन करती हैं।

2015 की UPSC टापर टीना डाबी ने UPSC सिविल सेवा परीक्षा में कुल 1063 अंक प्राप्त किए, जो कि 52.49% के बराबर है।  इस वर्ष हाल ही में आये परिणामों में शक्ति दुबे ने कुल 1043 अंक प्राप्त किए, जिसमें 843 अंक मुख्य परीक्षा में और 200 अंक साक्षात्कार में शामिल हैं। यह कुल मिलाकर 51.47% के बराबर है। ऐसा इसलिए है क्योंकि सिविल सेवा परीक्षा ने समय के साथ व्यवसायीकरण के दुष्चक्र से स्वयं को बचाकर रखा है। 

यह आंकड़े स्पष्ट रूप से दिखाते हैं कि UPSC जैसी परीक्षाओं में उच्च अंक प्राप्त करना कठिन होता है, और यहाँ सफलता का मापदंड केवल अंक नहीं, बल्कि गहन विश्लेषण, तार्किकता और विषय की गहराई में समझ होता है। CBSE और अन्य पब्लिक स्कूलों में हाल के वर्षों में अंकों की प्रतिस्पर्धा बढ़ गई है। छात्रों को 95% से अधिक अंक प्राप्त होते हैं, जिससे यह प्रतीत होता है कि वे विषय में पारंगत हैं। हालांकि, यह उच्च अंक अक्सर रटने और टेम्प्लेट आधारित उत्तरों का परिणाम होते हैं, न कि गहन समझ और विश्लेषण का और इसलिए जब अधिक प्रतिशत के आधार पर परिवार बड़ी बड़ी महत्वाकांक्षाओं में अपने बच्चों को JEE और अन्य परीक्षाओं में धकेलते हैं जिसके परिणाम में पिछले डेढ़ दशक में हमने बच्चों में आत्महत्या और अवसाद की घटनाएं देखी हैं। क्योंकि JEE एडवांस, मेडिकल और  UPSC जैसी परीक्षाएँ उम्मीदवारों की विषय की गहराई, विश्लेषणात्मक क्षमता, तार्किकता और समसामयिक मुद्दों पर समझ का मूल्यांकन करती हैं। यहाँ रटे-रटाए उत्तर या टेम्प्लेट आधारित उत्तर काम नहीं आते और अच्छे अच्छे नम्बरों वाले बच्चे ऐसी प्रतियोगी परीक्षाओं से निराश होकर लौटते हैं।

समस्या की जड़: ‘पब्लिक स्कूल – बोर्ड’ गठजोड़ – अभिभावकों के मनोविज्ञान को समझते हुए निजी पब्लिक स्कूलों में फीस के बदले अंक दिए जाने की मानसिकता विकसित हो चुकी है। परिणामस्वरूप स्कूल बोर्ड परीक्षाएं एक औपचारिकता बन गई हैं साथ ही बच्चों को अधिक से अधिक अंक देने की संस्कृति जान बुझ कर विकसित की गई है जिससे अभिभावकों को अपने बच्चों की इस छद्म प्रगति से ख़ुशी हो और वह और अधिक पैसे खर्च कर सकें। कुछ शिक्षाविदों और चिंतकों का यह भी मानना है कि बोर्ड द्वारा मॉडरेशन पॉलिसी और ‘नो फेल’ कल्चर ने शिक्षा की गुणवत्ता को खोखला कर दिया है।

समाधान की ओर एक दृष्टि – भारतीय स्कूली शिक्षा प्रणाली में सुधार की आवश्यकता स्पष्ट रूप से महसूस की जा रही है, विशेषकर जब हम UPSC जैसी प्रतियोगी परीक्षाओं की वास्तविकताओं को समझते हैं। सबसे पहले, स्कूलों में ऐसी मूल्यांकन प्रणाली अपनाई जानी चाहिए जो केवल रटे-रटाए उत्तरों को पुरस्कृत करने के बजाय छात्रों की रचनात्मकता, विश्लेषणात्मक क्षमता और विचारों की मौलिकता को महत्व दे। इससे छात्र केवल अंक प्राप्त करने की दौड़ में शामिल नहीं होंगे, बल्कि विषय को गहराई से समझने की ओर प्रवृत्त होंगे।

इसके अतिरिक्त, CBSE जैसी संस्थाओं को अपनी मार्किंग स्कीम की पुनर्समीक्षा करनी चाहिए। पिछले एक दशक में अंक देने की प्रक्रिया अत्यधिक लचीली हो गई है, जिससे 95% से अधिक अंक सामान्य हो गए हैं। यह प्रवृत्ति छात्रों के भीतर वास्तविक प्रतिस्पर्धा और आत्म-मूल्यांकन की भावना को क्षीण करती है। यदि मूल्यांकन प्रणाली थोड़ी कठोर और वास्तविक ज्ञान के स्तर पर आधारित हो, तो छात्रों में गंभीरता तथा समझ विकसित होगी।

छात्रों को UPSC जैसी परीक्षाओं के लिए आरंभिक स्तर से ही लेखन और तर्कशीलता का प्रशिक्षण देना भी आवश्यक है। स्कूली स्तर पर उत्तर लेखन में केवल तथ्यात्मक जानकारी के बजाय विश्लेषण, दृष्टिकोण और संतुलन पर बल दिया जाना चाहिए, ताकि छात्र बाद में किसी भी उच्च स्तरीय परीक्षा के लिए तैयार हों। इसके लिए निबंध लेखन, बहस, समूह चर्चा और केस स्टडी जैसे अभ्यास को शिक्षा का हिस्सा बनाया जा सकता है।

अंततः, सीबीएसई सहित राज्य बोर्डों को उनकी पूर्ववर्ती कठोर किंतु न्यायपूर्ण मूल्यांकन प्रणाली की ओर लौटने का विचार करना चाहिए। जैसे उत्तर प्रदेश बोर्ड एक समय पर 75% अंक को उत्कृष्टता का प्रतीक मानता था और उसके मूल्यांकन मानदंड छात्रों को मेहनत और सच्चे ज्ञान की ओर प्रेरित करते थे। इन मूल्य प्रणालियों को आधुनिक संदर्भ में ढालते हुए पूरे देश के लिए एक न्यायपूर्ण और संतुलित मॉडल के रूप में पुनः प्रतिष्ठित किया जाना चाहिए। इस दिशा में एक संयुक्त और बहु-स्तरीय प्रयास ही शिक्षा की गुणवत्ता और प्रतियोगी परीक्षाओं की सफलता के बीच की खाई को पाट सकता है।

आज जब भारत को हम विश्व के अनुसंधान और नवाचार का केंद्र बनाने की सोच रहे हैं तो यहाँ की शिक्षा प्रणाली में यह आवश्यक है कि हम अंकों की होड़ से हटकर वास्तविक ज्ञान, समझ और विश्लेषणात्मक क्षमताओं को महत्व दें। स्कूलों में मूल्यांकन प्रणाली को इस प्रकार ढालना चाहिए कि छात्र न केवल उच्च अंक प्राप्त करें, बल्कि विषय की गहराई में जाकर उसकी वास्तविक समझ भी विकसित करें। केवल तभी हम JEE एडवांस तथा UPSC जैसी प्रतियोगी परीक्षाओं में अधिक सफल और सक्षम उम्मीदवार तैयार कर पाएंगे। साथ ही अनुसन्धान के लिए जिन सृजनशील मेधा की आवश्यकता है उसका निर्माण हो सकेगा। हमें भूलना नहीं चाहिए की भारत की जिस मेधा ने पूरी दुनिया में अपनी प्रतिभा का परचम लहराया उसमें अधिकतर स्टेट बोर्ड की परीक्षाओं से औसत अंक प्राप्त कर आगे बढ़ने वाले लोग थे जिनमें उच्च सृजनशीलता निर्मित की गई थी।

आज भारत में एक ऐसा शैक्षणिक विरोधाभास बन गया है जहाँ छात्र स्कूल में 98% लाते हैं, लेकिन देश की सबसे प्रतिष्ठित सिविल सेवा परीक्षा महज 50% अंक प्राप्त करते हैं। यह स्थिति हमें चेतावनी देती है कि कहीं हम शिक्षा को सिर्फ एक प्रमाणपत्र तक सीमित तो नहीं कर रहे? समय आ गया है कि हम शिक्षा के वास्तविक उद्देश्य – चिंतनशील, विवेकशील और उत्तरदायी नागरिक बनाने  की ओर लौटें।

सोर्स: https://www.cbse.gov.in/cbsenew/documents/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%95%20%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A4%B0.pdf

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