विचारों का महत्व
सुमित कुमार,नोएडा महानगर
आर्दश विचारों के प्रसार की क्यों आवश्यकता है। आप इसमें अपनी भूमिका कैसे निभा सकते हैं।
आज समाज जिस गिरी हुई अवस्था में पहुंच चुका है उसे देख कर यही लगता है कि अब यदि इसे संभालने के प्रयास नहीं किए गए तो समय की चाल हमें गर्त की दिशा में ले चलेगी और परिणाम होगा मनुष्य का पतन और इस राष्ट्र की अवनति जो कि पहले से तमाम तरह के संघर्षों और मूढ़ प्रचलनों से त्रस्त है, जिसकी आत्मा यह गवाई दे रही है कि वह अपने स्वर्णिम भाग्योदय की दिशा में बढ़ना तो चाहता है पर उसकी संवेदना उस रूप में प्रकट नहीं हो रही जिसे कि सौभाग्यपूर्ण एवं परिपूर्णतादायक कहा जा सके। साथ ही भारत के भाग्योदय से संबंधित है एक आदर्श विश्व की परिकल्पना और मानवता के उच्च चारित्रिक विकास की दिशाधारा। जो भी भारतप्रेमी है एक उज्ज्वल भविष्य के स्वप्न का आकांक्षी है वर्तमान दुर्दशा का साक्षी और मानवता के श्रेष्ठ भविष्य का अनुयायी है, उसे यह समझना चाहिए कि यदि हम थोड़ा भी जागरूक हो सकें और अपनी संवेदना के विस्तार स्वरूप श्रेष्ठ विचारों के प्रसार को महत्व दें तो हम यह देखेंगे कि कैसे एक उज्ज्वल भविष्य की संभावना को साकार करने में हमारी भी भागीदारी सुनिश्चित होती जाती है। हमें मात्र मध्यम बनना है और यह विश्वास रखना है कि एक प्रेरणा है जो हम सब के अंतराल में कार्य कर रही है। वही हमें श्रेष्ठ मानव बनने, देश और समाज के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा करने की दिशा में प्रेरित कर रही है। और उसका आव्हान यही है कि आप स्वयं को जानें और अपने व्यक्तित्व निर्माण की खातिर वह सब करें, जो कि समय की आवश्यकता है एवं विश्व की मांग है। आप निश्चित ही वह सब कर सकेंगे बशर्ते आप इस सत्य के प्रति जागरुक हों कि हम सब का जीवन एक विशिष्ट ध्येय की प्राप्ति के लिए हुआ है, जिसे कि आत्मोत्कर्ष की संज्ञा एवं जीवन के सभी पहलुओं पर अपनी आत्मा का एकाधिकार कहा जा सके। जिसे यह बात समझ आ गई कि मनुष्य जीवन के अंतराल में देवत्व की अनुप्रेरणा ही कार्य कर रही है एवं अपने भगवद्लक्ष्य की प्राप्ति हेतु हमें वह क्रियाप्रणाली अपनानी ही होगी, जो कि मनुष्य जीवन की गरिमा के अनुरूप एवं उसके श्रेष्ठ सदुपयोग की खातिर अनिवार्य है, उसी व्यक्ति का जीवन धन्य है एवं वही परमात्मा की अनुपम कृति होने के योग्य कहा जा सकता है। शेष तो आबादी की दृष्टि से भारत बहुत बड़ा देश है, इतना कि दुनिया के कई देश इसमें समा जाएं परंतु जिस विचारणा एवं स्वतंत्र चिंतन पर उसे चलना चाहिए, वह उस पर चल नहीं रहा एवं अपनी प्रेरणा को उन संतों, महान विभूतियों एवं आदर्श व्यक्तित्वों से ग्रहण नहीं कर रहा, जो कि समय की चाल से परे, आज भी अपने छोड़े साहित्य द्वारा, अपनी कही बातों से एवं अपने दिव्य जीवन की चिर नाद से हम सभी के जीवन को आलोकित किए हुए हैं। उन्हें पढ़ना, स्मरण करना एवं तदनुरूप आचरण में प्रस्तुत करना हम सभी का कर्तव्य है। इसके लिए वे पुस्तकें ली जाएं जो कि उनके जीवन पर आधारित हैं एवं उनके दिव्य संदेश को अपने तक ही सीमित न कर समीपवर्तियों तक भी उसे पहुंचाने का दिव्य संकल्प लिया जाए। तभी यह दुनिया बेहतर हो पाएगी अन्यथा जिस स्तिथि में आज हम सब लोग खड़े हैं वह दैनीय है एवं इस सत्य के प्रति विचारणीय है कि मानवता के पास ज्ञान का इतना बड़ा खजाना होने के बावजूद कलह क्लेश की इतनी संभावनाएं क्यों मौजूद हैं। क्या मानव को अपने दिव्य स्वरूप का स्मरण नहीं क्या उसकी चिरनिद्रा वर्तमान दुर्दशा को देख कर टूटी नहीं एवं क्या उसके संकल्पों में उस श्रेष्ठ संभावना की तस्वीर नहीं जो कि मनुष्यता में दिव्यता को स्वीकारे एवं वर्तमान समस्याओं के समाधान स्वरूप उसे आदर्श भूमिका निभाने को प्रेरित करे। क्या मानवता इतनी अंधी हो गई कि उसे यह दिखाई ही नहीं पड़ता कि किन कुचक्रों से वह ग्रस्त है मात्र इस कारण कि उसने अपनी दिव्य संभावना को उजागर करने का प्रयास ही नहीं किया है, अपने निहित स्वार्थ के चलते उसने भविष्य की अनुप्रेरणा को वर्तमान के दलदल में खो जाने दिया, स्वयं को इस भ्रम में रखा कि पदार्थ की सच्चाई से चेतना की ऊंचाई को नहीं खरीदा जा सकता एवं जीवन के उत्कर्ष को मात्र बाहरी क्रिया कांडों एवं स्वार्थगत गतिविधियों से प्राप्त नहीं किया जा सकता। इसके लिए चाहिए जीवन का उत्सर्ग, स्वयं में यह जिम्मेदारी भरा भाव कि ‘हम सुधरेंगे तो युग सुधरेगा, हम बदलेंगे तो युग बदलेगा’।