एक संन्यासी का शोकगीत
भगवत्पाद आचार्य शंकर ने पाँच पञ्चकों (पंचश्लोकी स्तोत्र) की रचना की है – मनीषापञ्चक, साधनापञ्चक, काशीपञ्चक, यतिपञ्चक एवं मातृपञ्चक। इनमें से आरम्भिक चार की तो चर्चा एवं पारायण साधक-जिज्ञासुजन करते हैं, लेकिन मातृपञ्चक की चर्चा प्रायः कम होती है। इस पञ्चक की रचना आचार्य ने अत्यंत विषम स्थिति में की थी। मेरे देखे उनके स्तोत्रसाहित्य के सर्वाधिक मार्मिक स्तोत्रों में से यह एक है।
भारत भ्रमण पूर्ण करने के बाद आचार्य पुनः दक्षिण की ओर लौट रहे थे। कर्नाटक में सम्राट सुधन्वा के साथ मिलकर कापालिकों की समस्या का समाधान करने के पश्चात उन्होंने केरल की सीमा आने पर सभी शिष्यों को शृंगेरी भेजते हुए कहा कि मैं कालड़ी जा रहा हूँ। मेरी माता के देहावसान का समय आ गया है। मैंने उन्हें वचन दिया था कि अन्तिम समय में उनके साथ रहूँगा। वे जब घर पहुँचे तो माता आर्याम्बा मृत्युशैय्या पर थीं। आचार्य ने उन्हें उनके ईष्टदेव भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन कराया और आत्मतत्त्व का उपदेश किया। ठीक दोपहर उन्होंने शरीर त्याग दिया।
आचार्य ने उनकी प्रदक्षिणा की और शव के मुख में अक्षत डालते हुए उनके सब्र का बाँध टूट पड़ा। उनके रूँधे कंठ से फूट पड़ा –
मुक्तामणि त्वं नयनं ममेति ,राजेति जीवेति चिर सुत त्वम्।
इत्युक्तवत्यास्तव वाचि मातः,ददाम्यहं तण्डुलमेव शुष्कम् ॥
[ माँ! जिस मुख से तुम मुझे अपनी आँखों का तारा कहा करती थीं। मेरे राजदुलारे सदा जीते रहो, कहते हुए तुम कभी न अघाती थीं। मेरा दुर्भाग्य है कि उस मुख में मैं शुष्क तंडुल डालने के सिवा कुछ और न कर सका। ]
अंबेति तातेति शिवेति तस्मिन् ,प्रसूतिकाले यदवोच उच्चैः।
कृष्णेति गोविन्द हरे मुकुन्द ,इति जनन्यै अहो रचितोऽयमञ्जलिः॥
[ माँ! मेरे जन्म के समय “हे माँ! हे पिता! हे शिव! हे कृष्ण! हे गोविंद! हे मुकुंद!” चिल्लाते हुए तुमने कितनी पीड़ा सही थी। अहो माँ मैं तुम्हें बारम्बार प्रणाम करता हूँ। ]
आस्तं तावदियं प्रसूतिसमये दुर्वारशूलव्यथा ,नैरुच्यं तनुशोषणं मलमयी शय्या च संवत्सरी।
एकस्यापि न गर्भभारभरणक्लेशस्य यस्याक्षमः ,दातुं निष्कृतिमुन्नतोऽपि तनयस्तस्यै जनन्यै नमः॥
[ माँ! मुझे जन्म देते हुए तुमने भयंकर दर्द सहा। एक वर्ष तक तुम असहनीय पीड़ादायक अवस्था में बिस्तर पर पड़ी रहीं लेकिन तुमने अपनी दुरावस्था के विषय में एक शब्द नहीं कहा। जिन विषम परिस्थितियों से तुम गुजरी हो, उनके लिए एक बेटा तुम्हारे प्रति सदैव नतशिर होने के सिवा क्या प्रायश्चित कर सकता है! ]
गुरुकुलमुपसृत्य स्वप्नकाले तु दृष्ट्वा यतिसमुचितवेशं प्रारुदो मां त्वमुच्चैः।
गुरुकुलमथ सर्वं प्रारुदत्ते समक्षं ,सपदि चरणयोस्ते मातरस्तु प्रणामः॥
[ माँ याद है, एक दिन जब तुमने मुझे स्वप्न में संन्यासी के वेश में देख लिया था। तुम भागते हुए हुए गुरुकुल चली आईं थीं। मुझे गले से लगाकर तुम फूट-फूट कर रो पड़ी थीं और सारा गुरुकुल तुम्हारे साथ रो पड़ा था। आज उस दृश्य को यादकर माँ मैं तुम्हारे चरणों में बारम्बार प्रणाम करता हूँ। ]
न दत्तं मातस्ते मरणसमये तोयमपिवा ,स्वधा वा नो दत्ता मरणदिवसे श्राद्धविधिना ।
न जप्त्वा मातस्ते मरणसमये तारकमनु ,रकाले सम्प्राप्ते मयि कुरु दयां मातुरतुलाम् ॥
[ माँ! मैं तुम्हें अकेला छोड़कर चला गया और ऐसे कठिन समय पर तुम्हारे पास पहुँचा हूँ कि न तुम्हारे मुँह में गंगाजल डाल सका और न अन्तिम दिवस पर किए जाने वाले श्राद्धविधि का हवन कर सका। और तो और मैं इतना अभागा हूँ कि तुम्हारे मृतप्राय कानों में तारक मन्त्र का जप भी न कर सका। मेरे इस महापराध को क्षमा करते हुए मुझ पर करुणा करना माँ! ]
आचार्य की मनोदशा उस समय क्या रही होगी, इसकी कल्पना कर पाना असंभव है। पड़ोसियों ने शव को हाथ तक लगाने से मना कर दिया था। कोई साथ नहीं! निपट अकेले! दरवाजे पर चिता बनाकर माता का शव रखते हुए उस युवा संन्यासी की छवि मेरे सामने उभरती है और मैं विचित्र शून्यदशा में चला जाता हूँ।
कैसा विचित्र संयोग है इस वर्ष ! आज वैशाख शुक्ल पंचमी है, आद्य शंकराचार्य की जन्मजयंती जिनके द्वारा रचित स्तोत्र ऊपर दिया है। अंग्रेजी कैलेण्डर के अनुसार 12 May- Mother’s Day !!
अवनीश भटनागर