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आज़ादी किससे…

नोरिन शर्मा

आज हम किसी देश ,महादेश की आज़ादी की चर्चा नहीं कर रहे हैं। आज़ाद भारतवासियों या किसी भी मुल्क के आज़ाद नागरिकों के अधिकारों या कर्त्तव्यों की चर्चा भी नहीं है।

      जब हम स्वतंत्रता की बात करते हैं तो हमारे ज़हन में ‘ स्व ‘ या अपनी आज़ादी भी कौंध जाती है। किस गुलामी में बंधे हैं हम…? आज़ादी किससे..?

वास्तव में देखा जाए तो विश्व की दूसरी सबसे छोटी इकाई परिवार है।धीरे धीरे ही सही पिछली दो तीन पीढ़ियों ने संयुक्त परिवार परंपरा से आज़ादी पा ही ली।कारण कोई भी हों,शहरीकरण,आवासीय तंगी या देश विदेश पलायन..!

      फिर भी हमारी यह पीढ़ी और उनके समकालीन ऊपर की दो पीढ़ियां अपनी अपनी आज़ादी हेतु संघर्षरत हैं।मानसिक रूप से हम जितने मज़बूत और आज़ाद होंगे ,जीवन का भरपूर आनंद उठा पाएंगे।

परिवार में स्त्री एक ऐसी धुरी है,जिसके इर्द गिर्द संपूर्ण परिवार का जीवन समरूप गति से चलता रहता है।हममें से सभी ने कभी न कभी इस समरूपता में उथल पुथल को अवश्य ही महसूसा होगा। माँ की बीमारी से पूरे घर की हलचल को जाना,समझा होगा।कुछ अवर मध्यमवर्गीय परिवारों में, जहाँ खाना बनाने से लेकर बच्चों के गृहकार्य तक की ज़िम्मेदारी वो घर की धुरी ने समेटी होती है;एकबारगी चरमराने लगती है।

   जहां समस्या है ,वहीं हल भी है।क्यों न इसका अभ्यास दिन प्रतिदिन किया जाए।इस मानसिक गुलामी से स्त्री को साँस लेने की भी फुरसत मिलेगी और परिवार का प्रत्येक सदस्य अपने अपने कर्तव्यों का निर्वहन भी कर सकेगा।घर की स्त्री ही सब घरेलू कार्यों के लिए ज़िम्मेदार है,इस गुलामी से आज़ादी मिलते ही घर का वातावरण खुशनुमा हो जाएगा।”तुम सारा दिन घर में क्या करती हो..?” इसका उत्तर भी मिल जाएगा।

       छोटे से लेकर बड़े बूढ़े तक मोबाइल के भीतर अपनी अपनी एक दुनिया बसा चुके हैं।कई बार रात के तीन चार बजने का एहसास भी उन्हें नहीं होता।इस तकनीकि गुलामी से आज़ादी भी बेहद ज़रूरी है।वयस्क अक्सर यही मंथन करते हैं,हमारा पढ़ने लिखने का समय नहीं है ,अपना करियर बन चुका है…बच्चों को मोबाइल पर इतना समय नहीं गंवाना चाहिए।क्या आपकी भी यही सोच है?सच यहीं कहीं छिपा है।एक यूरोपीय देश में बच्चों ने हाल ही में एक रैली निकाली।सबके हाथ में बड़े बड़े बोर्ड और बैनर थे…”मम्मी,पापा हमसे बात करो”

“मम्मी हमें समय पर खाना दो”

“पापा अब फ़ोन छोड़ भी दो”

“प्लीज़,हमें भी आपके साथ और प्यार की ज़रूरत है”

वो दिन दूर नहीं जब भारत में भी ऐसी रैलियां निकलेंगीं..!

समय रहते चेतना बहुत आवश्यक है।तकनीकि गुलामी से आज़ादी हमारे परिवार बचा सकती है।

वो दिन दूर नहीं जब पुरुष या स्त्रियां तलाक़ के लिए इस वजह को सबसे पहले रखेंगे!

     आइए मानसिक गुलामी से आज़ादी की ओर एक क़दम हम मिलकर बढ़ाएं और परिवारों को महकती बगिया बनाएं।

9 thoughts on “ARTICLE”

  1. कहानी की विषयवस्तु नई है।कहानी की सरल और रोचक भाषा घर-घर की इस कहानी को दिलचस्प बना देती है.।कहानी पाठकों को तत्कालीन समाज की बढ़ती समस्या से रूबरू करवाती है।बढिया कहानी!

  2. एकदम दुरुस्त फ़रमाया आपने.मानसिक और शारीरिक सेहत तो ख़राब हो ही रही है सामाजिक और रचनात्मक सरोकार भी मर रहे हैं.

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